दलितों और पिछड़ों की राजनीति में माहिर दल सपा-बसपा दशकों पुरानी तल्खियां भुला कर एक हो गये हैं. दलितों-पिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर यूपी से भाजपा को साफ किया जा सकता है, इस कॉन्फिडेंस में ये गठबंधन मुस्लिम वोट को लेकर ओवर कॉन्फिडेंस में है. बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की साझा प्रेस कांफ्रेंस में गठबंधन की घोषणा में जाति के खूब जिक्र हुए लेकिन मुस्लिम समाज के किसी भी दर्द की चर्चा नहीं हुई. एक दूसरे के धुर विरोधी रहे अखिलेश और मायावती भले ही आपस में बेहतर सामंजस्य बनाने में कुशलता दिखा रहे हैं किन्तु दलित-पिछड़ों के साथ खुल कर मुसलमानों का सामंजस्य बनाने में थोड़ा हिचक रहे हैं. वजह ये है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा के पारंपरिक वोटर भाजपा के साथ जिन कारणों से चले गये थे उनमें एक मुख्य कारण ये भी था कि पिछड़ों-दलितों के मन में ये बात जगह कर गयी थी कि सपा और बसपा में मुस्लिम समाज को विशेष तवज्जो दी जाती है.
पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती ने मुसलमानों को दिल खोलकर टिकट दे दिये. जिसके कारण बसपा को अपने पारंपरिक मतदाताओं का भरोसा खोना पड़ा. इसी तरह सपा की झोली के पिछड़े भी ऐसी ही भावना के साथ भाजपा की तरफ छिटक गये थे. यही कारण है कि बसपा और सपा दोनो दलों के नेता अपने-अपने जातिगत वोटबैंक को संजो कर रखने के लिए अल्पसंख्यक समाज को रिझाने वाले मुद्दों से परहेज करने लगे हैं. अखिलेश यादव ने तो भाजपा सरकार पर यहां तक आरोप लगा दिया कि गंभीर मरीज जब इलाज के लिए अस्पताल ले जाया जाता है तो पहले उसकी जाति पूछी जाती है और फिर उसकी जाति के हिसाब से ही इलाज होता है.
भाजपा सरकार के आलोचकों...
दलितों और पिछड़ों की राजनीति में माहिर दल सपा-बसपा दशकों पुरानी तल्खियां भुला कर एक हो गये हैं. दलितों-पिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर यूपी से भाजपा को साफ किया जा सकता है, इस कॉन्फिडेंस में ये गठबंधन मुस्लिम वोट को लेकर ओवर कॉन्फिडेंस में है. बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की साझा प्रेस कांफ्रेंस में गठबंधन की घोषणा में जाति के खूब जिक्र हुए लेकिन मुस्लिम समाज के किसी भी दर्द की चर्चा नहीं हुई. एक दूसरे के धुर विरोधी रहे अखिलेश और मायावती भले ही आपस में बेहतर सामंजस्य बनाने में कुशलता दिखा रहे हैं किन्तु दलित-पिछड़ों के साथ खुल कर मुसलमानों का सामंजस्य बनाने में थोड़ा हिचक रहे हैं. वजह ये है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा के पारंपरिक वोटर भाजपा के साथ जिन कारणों से चले गये थे उनमें एक मुख्य कारण ये भी था कि पिछड़ों-दलितों के मन में ये बात जगह कर गयी थी कि सपा और बसपा में मुस्लिम समाज को विशेष तवज्जो दी जाती है.
पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती ने मुसलमानों को दिल खोलकर टिकट दे दिये. जिसके कारण बसपा को अपने पारंपरिक मतदाताओं का भरोसा खोना पड़ा. इसी तरह सपा की झोली के पिछड़े भी ऐसी ही भावना के साथ भाजपा की तरफ छिटक गये थे. यही कारण है कि बसपा और सपा दोनो दलों के नेता अपने-अपने जातिगत वोटबैंक को संजो कर रखने के लिए अल्पसंख्यक समाज को रिझाने वाले मुद्दों से परहेज करने लगे हैं. अखिलेश यादव ने तो भाजपा सरकार पर यहां तक आरोप लगा दिया कि गंभीर मरीज जब इलाज के लिए अस्पताल ले जाया जाता है तो पहले उसकी जाति पूछी जाती है और फिर उसकी जाति के हिसाब से ही इलाज होता है.
भाजपा सरकार के आलोचकों द्वारा मुस्लिम समाज में खौफ व्याप्त होने से लेकर मॉब लिचिंग की घटनाओं पर चिंता व्यक्त की जाती रही है. अलीगढ़ में कथित फर्जी मुठभेड़ में मारे गये मुस्लिम युवक की चर्चा से लेकर गो रक्षा के नाम पर पहलू खान और इखलाक जैसों की हत्या की फिक्र भी भाजपा विरोधी खूब करते रहे हैं. किन्तु अल्पसंख्यक समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं, बदहाली या असुरक्षा को लेकर गठबंधन के दोनों नेताओं ने एक भी शब्द नहीं बोला. राजनीति विश्लेषकों का कहना है कि यूपी की आबादी में करीब बीस प्रतिशत मुस्लिम वोट की ताकत पर सपा-बसपा गठबंधन एकाधिकार मानकर अति आत्मविश्वास का शिकार है.
मनोवैज्ञानिक पहलू से देखिये तो खासकर यूपी का अल्पसंख्यक वर्ग एक्स्ट्रा केयर का आदि हो गया है. अब से करीब तीस बरस पहले यूपी में कांग्रेस के हिस्से से छीन कर मुसलमानों का भरोसा जीतने वाले मुलायम सिंह यादव ने अल्पसंख्यक समाज के लिए क्या क्या किया वो अलग बात है लेकिन उनके हर भाषण में मुस्लिमपरस्ती की झलक दिखती रहती थी. बसपा के संस्थापक काशीराम ने भी मुलायम सिंह के साथ गठबंधन बनाकर दलितों और मुसलमानों की दो नाली सियासी बंदूक चलाकर भाजपा को शिकस्त देने की रणनीति तय की थी.
काशीराम और मुलायम के अतीत के गठबंधन के लम्बे अर्से बाद अब जब मायावती और अखिलेश यादव ने इतिहास दोहराने की कोशिश की है तो इन दोनों तस्वीरों में कुछ फर्क नजर आ रहा है. गठबंधन मुसलमानों को तवज्जो ना देकर जातिगत राजनीति को ज्यादा तरजीह दे रहा है. अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका किसी हद तक लाभ कांग्रेस उठा सकती है. मुसलमानों को लगने लगा है कि यदि गठबंधन जीतता है तो इसमें हमारा बड़ा श्रेय होगा पर इसका लाभ अल्पसंख्यकों को नहीं पिछड़ों-दलितों को ही दिया जायेगा. सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी ही टिप्पणियों में एक शख्स लिखते हैं कि चुनाव से पहले जब गठबंधन हमारा नाम लेवा नहीं है तो जीतने के बाद क्या खाक हमारी जरूरतें पूरी होंगी.
गठबंधन और अल्पसंख्यक वर्ग का रूख देखकर लगता है कि यदि कांग्रेस यूपी में पंद्रह-बीस सीटों पर भी लड़ाई में आ गयी तो इन सीटों पर मुसलमानों की पहली पसंद कांग्रेस हो सकती है. जिन जिन सीटों पर कांग्रेस से मुकाबले में आ जायेगी वहां बल्क में मुस्लिम वोट कांग्रेस का मजबूत सहारा बन सकता है.
अल्पसंख्यक वर्ग फिलहाल दोराहे पर खड़ा है और गठबंधन और कांग्रेस दोनों के हर रवैये पर निगाहें लगाये है. ऊंट किस करवट बैठेगा और यूपी का तकरीबन बीस फीसद मुस्लिम वैट किस दल के विजय रथ का पहिया बनेगा या बिखर जायेगा ये कहना अभी मुश्किल है. पर ये जरूर लग रहा है कि कथित धर्मनिरपेक्ष दलों के सियासत के दरिया के मझधार में खड़ा यूपी का मुसलमान कभी सपा-बसपा गठबंधन की तरफ देख रहा है तो कभी कांग्रेस की तरफ ताक रहा है.
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