भारत में होने वाले सभी बड़े चुनावों में 'जिन्ना का जिन्न' बाहर आना अब एक स्थायी परंपरा बन चुकी है. तो, देश के सबसे बड़े सूबे के यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले मोहम्मद अली जिन्ना का लोगों के सामने आना तय था. हालांकि, इस बार मोहम्मद अली जिन्ना को भाजपा से पहले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से याद कर लिया गया है. आमतौर पर भाजपा की ओर से विपक्षी पार्टियों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने के लिए जिन्ना की विचारधारा की बात कही जाती है. लेकिन, अखिलेश यादव ने तो जिन्ना की तुलना सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू से कर दी. इतना ही नहीं, अखिलेश यादव अपने बयान पर अडिग होकर मोहम्मद अली जिन्ना पर लोगों को फिर से किताबें पढ़ने का सुझाव भी दे रहे हैं. भारत का बंटवारा होकर पाकिस्तान बने 75 साल हो चुके हैं और पाकिस्तान समर्थक मुसलमान 1947 में ही जिन्ना के साथ चले गए थे. तो, इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि जिन्ना का भारतीय मुसलमानों से क्या लेना देना है, जो अखिलेश यादव उन्हें छोड़ना नहीं चाहते?
मुस्लिम समाज से दूर हुए अखिलेश यादव
यूपी चुनाव के मद्देनजर सभी राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक को अपने पाले में बनाए रखने के लिए कोशिशों में जुट गई हैं. दोबारा सत्ता में आने के लिए भाजपा की ओर से हिंदुत्व के नाम पर हिंदू वोटों को ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है. वहीं, सपा भी अपने सफल रह चुके एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण की शरण में गई है. लेकिन, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने अपने इस परंपरागत एमवाई समीकरण में थोड़ा फेरबदल किया है. अखिलेश ने एमवाई समीकरण को...
भारत में होने वाले सभी बड़े चुनावों में 'जिन्ना का जिन्न' बाहर आना अब एक स्थायी परंपरा बन चुकी है. तो, देश के सबसे बड़े सूबे के यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले मोहम्मद अली जिन्ना का लोगों के सामने आना तय था. हालांकि, इस बार मोहम्मद अली जिन्ना को भाजपा से पहले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से याद कर लिया गया है. आमतौर पर भाजपा की ओर से विपक्षी पार्टियों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने के लिए जिन्ना की विचारधारा की बात कही जाती है. लेकिन, अखिलेश यादव ने तो जिन्ना की तुलना सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू से कर दी. इतना ही नहीं, अखिलेश यादव अपने बयान पर अडिग होकर मोहम्मद अली जिन्ना पर लोगों को फिर से किताबें पढ़ने का सुझाव भी दे रहे हैं. भारत का बंटवारा होकर पाकिस्तान बने 75 साल हो चुके हैं और पाकिस्तान समर्थक मुसलमान 1947 में ही जिन्ना के साथ चले गए थे. तो, इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि जिन्ना का भारतीय मुसलमानों से क्या लेना देना है, जो अखिलेश यादव उन्हें छोड़ना नहीं चाहते?
मुस्लिम समाज से दूर हुए अखिलेश यादव
यूपी चुनाव के मद्देनजर सभी राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक को अपने पाले में बनाए रखने के लिए कोशिशों में जुट गई हैं. दोबारा सत्ता में आने के लिए भाजपा की ओर से हिंदुत्व के नाम पर हिंदू वोटों को ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है. वहीं, सपा भी अपने सफल रह चुके एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण की शरण में गई है. लेकिन, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने अपने इस परंपरागत एमवाई समीकरण में थोड़ा फेरबदल किया है. अखिलेश ने एमवाई समीकरण को महिला-युवा समीकरण में बदल दिया है. इसके साथ ही उन्होंने सपा में सांगठनिक स्तर पर यादव समाज को तवज्जो देने की जगह सोशल इंजीनियरिंग को बढ़ावा दिया है. मुस्लिम नेताओं को सपा के मंचों पर बहुत ज्यादा स्थान नहीं मिल पा रहा है. तमाम आरोपों से घिरे सपा के सबसे बड़े मुस्लिम नेता आजम खां को लेकर भी अखिलेश यादव ज्यादा मुखर नजर नहीं आते हैं.
राम मंदिर के सपरिवार दर्शन करने का वादा भी अखिलेश यादव कर ही चुके हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले अखिलेश यादव की छवि एक ऐसे नेता की बनती जा रही है, जो मुसलमानों से दूर हो गया है. और, इसका फायदा कहीं न कहीं प्रियंका गांधी की ओर से की जा रही जमीनी मेहनत से कांग्रेस के हक में जाता दिख रहा है. क्योंकि, प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने मुस्लिम बहुल सीटों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रखा है. कांग्रेस मुस्लिम समाज के बीच मोहम्मद अली जिन्ना के नाम पर वोट नहीं मांग रही है. बल्कि, प्रियंका गांधी मुस्लिमों के बीच कांग्रेस को फिर से एक विकल्प के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में जुटी हुई हैं.
वोटों के लिए मुस्लिम समाज पर प्रश्न चिन्ह?
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर अखिलेश यादव अपने सियासी समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए कई छोटे-छोटे दलों से गठबंधन कर चुके हैं. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर के बाद आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी से भी गठबंधन की बात लगभग फाइनल हो चुकी है. प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के अध्यक्ष और अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव भी पुराने गिले-शिकवे भुलाकर सपा के साथ आने को तैयार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि चुनाव किसी एक जाति या वर्ग के सहारे नहीं जीते जाते हैं. लेकिन, चुनाव जीतने के लिए बहुसंख्यक मतदाताओं के सामने अखिलेश यादव मुस्लिम समाज को कठघरे क्यों खड़ा करना चाहते हैं, ये एक अहम सवाल है.
बहुसंख्यक हिंदुओं में आज भी मोहम्मद अली जिन्ना को एक खलनायक के तौर पर ही देखा जाता है. बावजूद इसके राजनीतिक तौर पर सबसे संवेदनशील मुद्दे पर अखिलेश यादव की ये नासमझी सीधे तौर पर मुस्लिम समाज पर ही सवाल खड़ा करने पर आमादा नजर आती है. जिन्ना ने भले ही भारत की आजादी के आंदोलन में सहयोग दिया हो. लेकिन, मुस्लिम लीग के साथ देश के विभाजन की नींव उन्हीं ने डाली थी. हजारों निर्दोष हिंदुओं के कत्लेआम का दोषी मोहम्मद अली जिन्ना को ही माना जाता है. देश के बंटवारे के समय जिन्ना के जैसी सोच वाले मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहीं, भारत में रह रहे मुसलमानों का जिन्ना से कोई लेना-देना ही नहीं है, तो अखिलेश यादव अपने सियासी समीकरण सुधारने के चक्कर में मुस्लिम समाज पर प्रश्न चिन्ह लगाने में क्यों जुटे हैं.
मुस्लिम मतदाताओं को लेकर भाजपा की सोच हमेशा से ही स्पष्ट रही है. भाजपा को पता है कि मुस्लिम समाज के लिए कुछ भी कर देने के बावजूद भी उसे मुसलमानों का वोट मिलना असंभव है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो मुस्लिम मतदाताओं के एक तबके में भाजपा को एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी माना जाता है. तो, काफी हद तक ये तय हो जाता है कि भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर नजर आ रही सपा को मुस्लिम समाज का वोट आसानी से मिलना तय है. लेकिन, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, बसपा सुप्रीमो मायावती और एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी सरीखे नेताओं की वजह से मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगने की संभावना बढ़ गई है. कहना गलत नहीं होगा कि मुस्लिम वोट को सपा के पक्ष में एकजुट रखने के लिए अखिलेश यादव कोई और जरिया भी खोज सकते थे. लेकिन, जिन्ना के 'जिन्न' का सहारा लेना राजनीतिक तौर पर बहुत ही अटपटा लगता है.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश की 100 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता अपना प्रभाव रखते हैं. लेकिन, अखिलेश यादव देश का विभाजन कर पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना के नाम के सहारे मुस्लिम वोटों को साधने की कोशिश कर रहे हैं. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए आसानी से कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव के पक्ष में मुस्लिम मतदाताओं का एकजुट होना कोई बड़ी बात नहीं है. यूपी में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या तकरीबन 19 फीसदी है और अखिलेश यादव मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए जिन्ना को बोतल से निकाल लाए हैं. कहना गलत नहीं होगा कि जिन्ना के नाम का सहारा लेना अखिलेश यादव पर कम और मुस्लिम समाज पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा रहा है. जिन्ना के नाम के सहारे मुस्लिम वोटबैंक सपा के साथ जुड़ने वाला नहीं है. बल्कि, इसके छिटकने का खतरा और बढ़ गया है.
जिन्ना पर बयान से घिरे अखिलेश पर भाजपा हमलावर
सरदार पटेल की तुलना मोहम्मद अली जिन्ना के साथ करने के बाद भाजपा ने इस मामले को हाथोंहाथ लेते हुए अखिलेश यादव पर सियासी हमले तेज कर दिए हैं. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने जनता से ऐसे शर्मनाक बयानों को खारिज करने की अपील करते हुए इन लोगों की मानसिकता समझने का बात कही थी. जिसके बाद अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ को जिन्ना पर किताबें और इतिहास को पढ़ने की सलाह दे डाली थी. जिस पर तंज कसते हुए सीएम योगी ने कहा कि शुरुआती शिक्षा सही न होने से लोगों को नायक और देशद्रोही के बीच का अंतर नहीं पता चलता है. कहना गलत नहीं होगा कि अखिलेश यादव ने भाजपा को बैठे-बिठाए उन्हें घेरने के लिए एक मुद्दा दे दिया है. और, भाजपा इस मौके को भुनाने में शायद ही कोई कोताही बरतेगी.
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