जैसे काम को छोटा या बड़ा नहीं माना जाता, अमित शाह की बीजेपी चुनावों को भी उसी नजरिये से देखती है - हैदराबाद में अपने साथ साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को छोड़ सारे वरिष्ठों को सड़क पर उतार कर अमित शाह ने दिखा दिया कि बीजेपी के लिए हर चुनाव बराबर अहमियत रखता है. बिहार विधानसभा चुनाव के बाद हैदराबाद नगर निगम चुनाव में शायद ही देश के बाकी हिस्सों किसी की दिलचस्पी हुई होती, लेकिन अमित शाह ने ऐसा किया और थोड़ा आराम करने की सोच रहे बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव के पास हैदराबाद की फ्लाइट पकड़ लेने का संदेश ही भिजवा दिया.
ई. श्रीधरन (E Sreedharan) के जरिये बीजेपी नेतृत्व ने एक बार फिर वैसा ही काम किया है, पश्चिम बंगाल के आगे केरल चुनाव को जहां कोई तवज्जो नहीं दे रहा था, मेट्रो मैन ने देश और दुनिया का ध्यान एक झटके में खींच लिया है. ई. श्रीधरन बीजेपी और मोदी के ब्रांड एंबेसडर बन गये हैं.
ई. श्रीधरन एक एक करके अपनी सारी बातें बताते जा रहे हैं, लेकिन अपने नये प्रोजेक्ट को लेकर मोदी-शाह से किसी तरह की बात और मुलाकात को बड़ी समझदारी से टाल जा रहे हैं - ऐसे में ये समझना और भी ज्यादा जरूरी हो गया है कि बीजेपी ज्वाइन करने का विचार खुद उनके मन में आया या बीजेपी ने अपने केरल प्रोजेक्ट (Kerala Election) के लिए उनको काफी सोच समझ कर हायर किया है - लेकिन उनकी एक बात बरबस ध्यान खींचती है कि राज्यपाल बनने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं!
कौन किसका फायाद उठाना चाहता है?
मेट्रो मैन की पॉलिटिकल एंट्री भी क्रेन बेदी जैसी ही लगती है - मेट्रो मैन के नाम से मशहूर ई. श्रीधरन को भी केरल बीजेपी की राजनीति में वैसे ही पैराशूट एंट्री मिली है जैसे एक समय क्रेन बेदी के नाम से शोहरत हासिल करने वाली आईपीएस अधिकारी किरन बेदी को मिली थी. 2015 के चुनाव में किरन बेदी को दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार उतारा गया और वो कोई भी करिश्मा नहीं दिखा सकीं, शायद इसलिए भी क्योंकि उनके मुकाबले मैदान में आंदोलन के जरिये...
जैसे काम को छोटा या बड़ा नहीं माना जाता, अमित शाह की बीजेपी चुनावों को भी उसी नजरिये से देखती है - हैदराबाद में अपने साथ साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को छोड़ सारे वरिष्ठों को सड़क पर उतार कर अमित शाह ने दिखा दिया कि बीजेपी के लिए हर चुनाव बराबर अहमियत रखता है. बिहार विधानसभा चुनाव के बाद हैदराबाद नगर निगम चुनाव में शायद ही देश के बाकी हिस्सों किसी की दिलचस्पी हुई होती, लेकिन अमित शाह ने ऐसा किया और थोड़ा आराम करने की सोच रहे बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव के पास हैदराबाद की फ्लाइट पकड़ लेने का संदेश ही भिजवा दिया.
ई. श्रीधरन (E Sreedharan) के जरिये बीजेपी नेतृत्व ने एक बार फिर वैसा ही काम किया है, पश्चिम बंगाल के आगे केरल चुनाव को जहां कोई तवज्जो नहीं दे रहा था, मेट्रो मैन ने देश और दुनिया का ध्यान एक झटके में खींच लिया है. ई. श्रीधरन बीजेपी और मोदी के ब्रांड एंबेसडर बन गये हैं.
ई. श्रीधरन एक एक करके अपनी सारी बातें बताते जा रहे हैं, लेकिन अपने नये प्रोजेक्ट को लेकर मोदी-शाह से किसी तरह की बात और मुलाकात को बड़ी समझदारी से टाल जा रहे हैं - ऐसे में ये समझना और भी ज्यादा जरूरी हो गया है कि बीजेपी ज्वाइन करने का विचार खुद उनके मन में आया या बीजेपी ने अपने केरल प्रोजेक्ट (Kerala Election) के लिए उनको काफी सोच समझ कर हायर किया है - लेकिन उनकी एक बात बरबस ध्यान खींचती है कि राज्यपाल बनने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं!
कौन किसका फायाद उठाना चाहता है?
मेट्रो मैन की पॉलिटिकल एंट्री भी क्रेन बेदी जैसी ही लगती है - मेट्रो मैन के नाम से मशहूर ई. श्रीधरन को भी केरल बीजेपी की राजनीति में वैसे ही पैराशूट एंट्री मिली है जैसे एक समय क्रेन बेदी के नाम से शोहरत हासिल करने वाली आईपीएस अधिकारी किरन बेदी को मिली थी. 2015 के चुनाव में किरन बेदी को दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार उतारा गया और वो कोई भी करिश्मा नहीं दिखा सकीं, शायद इसलिए भी क्योंकि उनके मुकाबले मैदान में आंदोलन के जरिये राजनीति में पहुंचे चमकते सितारे अरविंद केजरीवाल थे.
किरन बेदी को हाल ही में पुडुचेरी के उप राज्यपाल के पद से हटा दिया गया है, जहां केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के साथ ही विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं. देखा जाये तो किरन बेदी को पुडुचेरी का राज्यपाल बनाया जाना भी दिल्ली में बीजेपी की हार से जुड़ा राजनीतिक मुआवजा रहा - और ई. श्रीधरन का राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री पद को तरजीह देना भी कहीं न कहीं वैसा ही मामला लगता है.
पूर्व प्रधानमंत्रियों अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के साथ साथ दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित की सरकारों के साथ काम कर चुके ई. श्रीधरन खुद को नरेंद्र मोदी का फैन भी तब से बता रहे हैं जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
दैनिक भास्कर के साथ एक इंटरव्यू में कहते हैं, 'जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब भी मैं उनका प्रशंसक रहा, लेकिन अपने प्रोफेशनल करियर में व्यस्त रहने के चलते राजनीति के बारे में नहीं सोच सका - मोदी के करिश्माई नेतृत्व में देश आगे बढ़ रहा है, इसलिए मैं भाजपा में शामिल हो रहा हूं, ताकि राष्ट्र निर्माण में कुछ योगदान दे सकूं.'
ई. श्रीधरन ने अपने भविष्य की राजनीति के साथ साथ केरल और बीजेपी को लेकर बहुत सारी बातें बतायी हैं, लेकिन अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह से हुए संपर्कों के बारे में कुछ नहीं कहा है. किसी राजनीतिक दल से जुड़ कर किसी राज्य में चुनाव लड़ने की बात और है, लेकिन अब ये तो हो नहीं सकता कि कोई खुद को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करे और राज्यपाल जैसे पद में दिलचस्पी न दिखाये - और ये सारी चीजें बगैर नेतृत्व के मंजूरी के बगैर हों.
श्रीधरन बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहले अटल बिहारी वाजपेयी से भी उनके अच्छे रिश्ते रहे - और मानते हैं कि देश के प्रति प्रेम और देश के हितों के लिए सेवा करने का जज्बा बीजेपी में ही है.
मीडिया से बातचीत में ई. श्रीधरन अब किसान आंदोलन से लेकर कांग्रेस की स्थिति हर बात पर टिप्पणी करने लगे हैं. कांग्रेस के पास बाकियों की ही तरह ई. श्रीधरन का मानना है कि कोई नेता नहीं है - और पीवी नरसिम्हा राव के बाद वो कांग्रेस में किसी को भी उनके जितना भरोसेमंद नहीं पाया है.
ई. श्रीधरन की नजर में मोदी विरोध मौजूदा दौर में एक फैशन बन गया है - और किसान आंदोलन के पीछे भी वो यही वजह मानते हैं - और कहते हैं कि किसान आंदोलन को भी उन लोगों का ही समर्थन हासिल है जिनका एक ही काम है - मोदी सरकार का विरोध. ई. श्रीधरन के मुताबिक केंद्र की मोदी सरकार ने जो तीन कृषि कानून बनाये हैं वे सभी किसानों के लिए फायदेमंद हैं, इसलिए उनके विरोध में चल रहा किसान आंदोलन एक सियासी फैशन से ज्यादा कुछ नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में ऐसे लोगों के लिए एक नया शब्द गढ़ा था - आंदोलनजीवी. प्रधानमंत्री मोदी की राय में ये आंदोलनजीवी भी परचीवी की तरह होते हैं - दरअसल, परजीवी उन्हें माना जाता है जो अपने फायदे के लिए दूसरे पक्ष को नुकसान ही पहुंचाता है. वो दूसरे पक्ष को नुकसान पहुंचाने के लिए ही जीता है.
जाहिर है केरल के चुनावी मैदान में भी ई. श्रीधरन को प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के नजरिये से ऐसे ही परजीवियों से मुकाबला करना है - लेकिन इस परिभाषा के दायरे में देखना चाहें तो ई. श्रीधरन और बीजेपी के बीच कैसा रिश्ता रहने वाला है.
परजीवी भले ही किसी के लिए नुकसान देह हों, लेकिन वे भी कुदरत और समाज की ही रचना हैं - और ऐसे ही कुदरत ने सहजीवी और सहभोजियों का भी निर्माण किया है. सहजीवी वे होते हैं जो एक दूसरे के साथ रहते तो हैं लेकिन न तो फायदा पहुंचाते हैं और न ही नुकसान. ऐसी ही एक जमात सहजीवियों की भी होती है और ये दोनों ही एक दूसरे को अपनी तरफ से फायदा पहुंचाते हैं - ई. श्रीधरन और बीजेपी दोनों के ही भविष्य के हिसाब ये चीज समझना भी जरूरी लगता है. फिर ये समझना ज्यादा जरूरी हो जाता है कि दोनों में से किसने पहले किसको अपने लिए खोजा है - ई. श्रीधरन अपने लिए बीजेपी की मदद ले रहे हैं या फिर बीजेपी ने केरल के कोयले की खान से अपने लिए हीरा खोज निकाला है?
श्रीधरन बीजेपी का विधायक क्यों बनना चाहते हैं
फिलहाल बड़ा सवाल ये भी है कि ई. श्रीधरन की राजनीति में दिलचस्पी कैसे पैदा हुई - ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब से पहले वो कभी राजनीति में दिलचस्पी लेते नहीं देखे गये, बल्कि अपने काम के लिए कभी किसी की परवाह तक नहीं की.
ई. श्रीधरन के लिए अब तक समय पर अपना प्रोजेक्ट पूरा करना सबसे बड़ा टास्क रहा है और इसके लिए वो किसी से भी भिड़ जाते थे - ऐसे भी किस्से सुनने को मिलते हैं कि कोई प्रोजेक्ट लेट न हो जाये इसलिए सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क साध लिया करते थे और एक्शन भी वैसे ही हुआ करते थे जैसा वो चाहते थे.
सबसे खास बात ये रही कि ई. श्रीधरन के काम में कभी भी पॉलिटिकल लाइन आड़े नहीं आई - और खुद टेक्नोक्रेट होते हुए भी न तो कभी वो किताबी नियमों में बंध रह कर काम किये न ही कभी नौकरशाही की तरफ से पैदा की जाने वाली झंझटों की परवाह किये.
कड़े अनुशासन में रहने वाला सिद्धांतों का पक्का आदमी अचानक एक राज्य में बीजेपी का विधायक बनने में दिलचस्पी क्यों दिखाने लगा है?
श्रीधरन तो वैसे विधायक भी नहीं हो सकते जो कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान तक में मजाक के पात्र बनते रहे. सोशल मीडिया पर लोग मजे लेकर पोस्ट करते कि आज के दौर में तो सबसे बड़े फायदे का सौदा विधायक बनना है, न कि सांसद - और वो भी अगर वो बीजेपी का ना हो.
श्रीधरन का कद तो इतना ऊंचा रहा है वो पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की तरह राज्य सभा जा सकते थे - और अपने अनुभवों का फायदा पहुंचा सकते थे, या फिर विदेश सेवा में रहे एस. जयशंकर या आर्मी चीफ रहे जनरल वीके सिंह की तरह केंद्र में किसी विभाग के मंत्री बन सकते थे - लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं करके वो केरल से विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.
भले ही श्रीधरन बीजेपी के चाहने पर केरल का मुख्यमंत्री बनने के लिए भी तैयार हों, लेकिन बीजेपी के चाहने न चाहने से क्या होता है - जब तक कि केरल के लोग न ऐसा चाहते हों. ऐसे में जबकि केरल में सरकार बनाने को लेकर खुद बीजेपी नेतृत्व भी अगली बारी का इंतजार कर रहा हो, श्रीधरन ज्यादा से ज्यादा अपनी सीट जीत कर बीजेपी के विधायक बन सकते हैं. ऐसे में जबकि वो केंद्र में कोई भी बड़ी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाने के काबिल हैं - सवाल ये है कि ई. श्रीधरन को बीजेपी का विधायक बनना क्यों पसंद है?
श्रीधरन ने अपनी तरफ से ये मुद्दा भी साफ कर दिया है ये कह कर कि वो केरल के लोगों की सेवा करना चाहते हैं. अच्छी बात है. दुनिया को अपनी सेवाएं देने के बाद भी लोगों के मन में ये ख्वाहिश तो बची ही रहती है कि वे अपने बेहद करीबी लोगों के लिए कुछ करें. उस मिट्टी का कर्ज चुकान की कोशिश करें जिसने ऐसा बनाया और उसकी बदौलत वो सब कुछ हासिल हुआ जिसकी बदौलत दुनिया जानती और मानती है.
जैसे नरेंद्र मोदी ने 2014 में लोगों को बताया था, 'न तो मैं आया हूं न भेजा गया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है' - श्रीधरन के केस में क्या हुआ है?
केरल की राजनीति में श्रीधरन को किसने बुलाया है? श्रीधरन खुद बीजेपी के पास गये या बीजेपी उनके पास पहुंची - फायदा तो दोनों को ही है, लेकिन ज्यादा फायदे में बीजेपी लगती है? क्योंकि बीजेपी के पास केरल में श्रीधरन जैसा कोई क्रेडिबल चेहरा भी तो नहीं था.
श्रीधरन ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा, बीजेपी का भले ही केरल में एक ही विधायक हो, लेकिन मैं पार्टी की छवि बदलने और उसे आगे ले जाने के लिए इससे जुड़ा हूं.
दैनिक भास्कर के साथ इंटरव्यू में श्रीधरन से पूछा गया - आप पॉलिटिक्स ज्वाइन कर रहे हैं - आपने इसके लिए बीजेपी को क्यों चुना?
श्रीधरन बोले, 'आज बीजेपी को गलत तरीके से पेश किया जाता है... इसे प्रो-हिंदू पार्टी बताया जाता है, लेकिन ये सही नहीं है. बीजेपी राष्ट्रवाद, समृद्धि और सभी वर्गों के लोगों की भलाई के लिए काम करती है - मेरी कोशिश होगी कि मैं इसकी सही छवि को लोगों के सामने पेश कर सकूं.'
करीब करीब ऐसा ही सवाल बीबीसी का भी रहा - क्योंकि करीब डेढ़ साल पहले जब श्रीधरन से पूछा गया था कि वो राजनीति में शामिल होने के बारे में क्या सोचते हैं?
श्रीधरन का सीधा, सपाट बगैर लाग लपेट के जवाब था - 'राजनीति मेरे बस की बात नहीं है.'
फिर 18 महीने में ऐसा क्या हो गया कि श्रीधरन का राजनीतिक को लेकर नजरिया बदल गया?
श्रीधरन की राजनीतिक इच्छा जानने के बाद बीबीसी ने फिर वही सवाल दोहराया तो उनका कहना रहा, 'उस समय ये बात सच थी कि मैं राजनीति में दाखिल होना नहीं चाहता था. मैं एक टेक्नोक्रेट हूं, महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट का इंचार्ज रहा हूं इसलिए मैं यह नहीं चाहता था - लेकिन आज मैं अपनी सभी पेशेवर जिम्मेदारियों को पूरा कर चुका हूं, इसलिए मैंने राजनीति में आने की सोची है.'
श्रीधरन की राजनीतिक पारी को देर से शुरू की गयी कहना ठीक नहीं होगा - लेकिन उनके लंबे करियर को देखते हुए आगे भी कुछ दुरूस्त चीजों की उम्मीद तो करनी ही चाहिये.
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