राज्यपाल का पद बेहद सम्मान और गरिमा वाला माना जाता है. अंग्रेज के जमाने से लाट साहेब का कल्चर इस पद के साथ जुड़ा हुआ है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राज्यपालों की गरिमा लगातार घटती जा रही है और राजभवन पहले जैसे पवित्र नहीं रह गए हैं. पहले जो घटनाएं अपवाद के तौर पर होती थीं अब आए दिन होती है. इस बार गणतंत्र दिवस के मौके पर कई राज्यों में सत्तारूढ़ या विपक्षी पार्टियों ने राजभवन का न्योता ठुकरा दिया. राजभवन में होने वाले गणतंत्र दिवस के पारंपरिक आयोजन में पार्टियां नहीं गईं. तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल और तेलंगाना तक ऐसी घटना हुई.
यह भारत के लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. राज्यपालों का विपक्षी दलों की सरकारों के साथ टकराव का सवाल पिछले साल भर मीडिया और सियासत के गलियारों में गूंजता रहा है . देश की राजधानी से लेकर दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना से पश्चिम बंगाल होते हुए पंजाब और झारखंड तक जहां भी विपक्षी पार्टी यानी गैर-भाजपा सरकार है उन सभी जगहों पर निर्वाचित सरकार और राज्यपालों के बीच घमासान है. कई बार तो राज्यपाल चुनी हुई सरकार से अधिक शक्तिशाली नज़र आते है. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. पहले भी राज्य सरकारों और राज्यपाल के बीच मतभेद या विवाद रहे हैं लेकिन वर्तमान समय में ये जिस हद तक आगे बढ़ चुका है वो बेहद चिंताजनक है.
सबसे हैरानी का मामला पश्चिम बंगाल का है, जहां भाजपा ने राज्यपाल के कार्यक्रम का बहिष्कार किया. सोचें, भाजपा की केंद्र सरकार ने ही सीवी आंनदा बोस को राज्यपाल नियुक्त किया है. लेकिन भाजपा उनका बहिष्कार कर रही है. भाजपा के एक नेता ने तो उनको मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जेरोक्स कॉपी बताया. भाजपा के नेता इसलिए नाराज हैं क्योंकि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के प्रति सद्भाव दिखाया है. उन्होंने बच्चों को मातृभाषा की शिक्षा देने की शुरुआत करने का एक कार्यक्रम गणतंत्र दिवस के दिन राजभवन में रखा तो ममता बनर्जी भी उसमें शामिल हुईं. इसी वजह से भाजपा विधायक दल के नेता शुभेंदु अधिकारी और प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने कार्यक्रम का बहिष्कार किया.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का राज्यपाल तमिलिसाई सौंदर्यराजन के साथ काफी समय से टकराव चल रहा है. उन्होंने भी 26 जनवरी को राज्यपाल के कार्यक्रम का बहिष्कार किया. वे राजभवन में होने वाले आधिकारिक कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. उलटे उन्होंने राज्यपाल पर निशाना साधते हुए कहा कि वे तेलंगाना का राज्यपाल बनने से पहले तमिलनाडु में भाजपा की प्रदेश अध्यक्ष थीं और उसी अंदाज में राज्यपाल के तौर पर भी काम कर रही हैं.
पहले भी सक्रिय राजनीति में रहने वाले लोग राज्यपाल बनाए जाते थे और इस तरह की बातें शायद ही कभी सुनने को मिलती थीं.उधर तमिलनाडु में राज्यपाल आरएन रवि से पूरे सत्तारूढ़ गठबंधन का टकराव चल रहा है. इसके बावजूद गठबंध का नेतृत्व कर रही डीएमके के नेता गणतंत्र दिवस पर राजभवन के कार्यक्रम में शामिल हुए लेकिन वीसीके और कुछ अन्य पार्टियों ने राज्यपाल के न्योते को ठुकरा दिया. दिल्ली की कहानी और कमाल की है.
दिल्ली में अभी आम आदमी पार्टी की सरकार है जिसका नेतृत्व अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं. केजरीवाल साल 2013 मे कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 2015 से जनता लगातार उन्हें अपने मुख्यमंत्री के रूप में चुन रही है. इस दौरान कई उप-राज्यपाल बदल चुके हैं लेकिन सरकार के साथ उनका विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. बल्कि ये विवाद लगातार और बढ़ता ही जा रहा है. कई बार न्यायालयों ने भी हस्तक्षेप किया लेकिन कोई समाधान नहीं निकला है.अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि एलजी उनकी सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं की स्वीकृति में रोड़ा अटका रहे हैं तो वहीं एलजी का कहना है कि सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है.
उन्होंने सरकार पर फिजूल खर्ची का भी आरोप लगाया है. इसको लेकर वे कई पत्र भी लिख चुके हैं. यही नहीं अभी वर्तमान में एलजी ने मुख्यमंत्री को एक रिकवरी नोटिस भी भेज दिया है जिसमें उन्होंने दिल्ली सरकार के प्रचार मे खर्च किए गए पैसों को एक पार्टी का प्रचार बताया और अब रिकवरी की मांग की है. अब सवाल उठता है क्या कोई एलजी चुने हुए मुख्यमंत्री से रिकवरी कर सकता है? मामला यहीं नहीं रुका है.
एलजी ने दिल्ली सरकार की कई योजनाओं के लिए जांच समितियों का गठन कर दिया है.अभी हाल ही में दिल्ली नगर निगम चुनाव हुए जिसमें केजरीवाल की पार्टी को बहुमत मिला था लेकिन एलजी और केजरीवाल सरकार के विवाद से ये भी अछूता नहीं रहा. यही वजह है कि आजतक दिल्ली को अपना मेयर नहीं मिला है. एलजी ने चुनी हुई सरकार को बिना पूछे दस कथित भाजपा कार्यकर्ताओं को नगर निगम मे पार्षद के तौर पर नॉमिनेट कर दिया जबकि आमतौर पर इसका अधिकार चुनी हुई राज्य सरकार के पास होता था. और उनके सुझाए नामों पर ही एलजी मुहर लगाते रहे हैं लेकिन इसबार ऐसा लग रहा है जैसे ये लिस्ट भाजपा कार्यालय से आई हो.
इसी तरह जब पीठासीन अधिकारी चुनने का सवाल आया तो दिल्ली सरकार ने सबसे वरिष्ठ पार्षद मुकेश गोयल का नाम दिया जिसे एलजी ने खारिज कर दिया और भाजपा पार्षद सत्या शर्मा को नियुक्त कर दिया. इसके बाद शपथ वाले दिन यानी 6 जनवरी का हंगामा हमने देखा ही है. उस दिन शपथ तक नहीं हो सकी.इसके अलावा टकराव का ताज़ा मामला दिल्ली सरकार के स्कूल में कार्यरत शिक्षकों को विदेशों मे ट्रेनिग को लेकर है. केजरीवाल सरकार कहती है कि वो अपने शिक्षकों को बेहतर गुणवत्ता के लिए विदेश भेजना चाहती है लेकिन एलजी ने इसमे भी अड़ंगा लगा दिया है. इसके खिलाफ पार्टी ने विधानसभा से लेकर एलजी के घर तक विरोध मार्च भी किया था.
छत्तीसगढ़ विधानसभा आरक्षण विधेयक को लेकर अभी राज्य स्तर से मामला अटका है क्योंकि राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किया है. वहीं इस पर अब सामाजिक स्तर पर राजनीति भी शुरू हो गई है. कोई समाज राज्यपाल का तो कोई समाज विधायक, मंत्री, जनप्रतिनिधियों का बहिष्कार कर रहे हैं. कई समाज राजभवन तो कई जिला स्तर पर कलेक्टर को ज्ञापन सौंपकर आरक्षण की मांग कर रहे हैं. प्रदेशभर के किसी भी जिले में आयोजित साहू समाज के कार्यक्रम में राज्यपाल को नहीं बुलाएंगे.
ऐसा फरमान प्रदेशाध्यक्ष टहल साहू ने सभी जिलाध्यक्ष के लिए जारी किया है.प्रदेशाध्यक्ष श्री साहू ने कहा कि हस्ताक्षर नहीं होने से आरक्षण मामला अटक गया है, राज्यपाल को अतिथि के रूप में आमंत्रित न करें और जहां शेड्यूल तय हो चुका है वहां स्थगित करें, बालोद हो या रायपुर, बिलासपुर, सरगुजा, अंबिकापुर, दुर्ग या कोई भी जिला, साहू समाज के कार्यक्रम में राज्यपाल को नहीं बुलाने पत्र जारी कर दिए है.कुछ दिन पहले रायपुर में आयोजित कार्यक्रम में राज्यपाल को आमंत्रित किया गया था. लेकिन बाद में कार्यक्रम को ही स्थगित कर दिया गया.
साहू के अलावा अन्य समाज के पदाधिकारियों की निगाहें आरक्षण पर टिकी हुई है.राज्यपाल का तर्क है कि जब 58 प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था को हाईकोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया है, तो 76 प्रतिशत आरक्षण रोस्टर के लिए सरकार क्या कर सकती है? तकनीकी तौर पर पूरी तरह समझ लूं कि सरकार की क्या तैयारी है. आज मैं साइन कर दूं, और कल कोई व्यक्ति कोर्ट चला गया तो क्या होगा? वहीं कांग्रेस का तर्क है कि सरकार ने सभी संवैधानिक पहलुओं की पड़ताल करने के बाद ही आरक्षण संशोधन विधेयक बनाया है. जिसे विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया है.
केरल की विजयन सरकार का राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ टकराव जारी है. मुख्यमंत्री विजयन ने कहा था कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान आरएसएस के एक टूल के रूप में काम कर रहे हैं और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं. केरल मे निर्वाचित सीपीआई(एम) के नेतृत्व वाली वाम संयुक्त मोर्चे की सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ कई बार टकराव हो चुका है. कुछ समय पहले राज्य में तब संवैधानिक संकट खड़ा हो गया जब राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने नौ विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया था.
जबकि मुख्यमंत्री विजयन ने कहा कि राज्यपाल के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है. उन्होंने उन पर संविधान तथा लोकतंत्र के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया.इससे पहले भी मुख्यमंत्री ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर न करने के लिए राज्यपाल के खिलाफ अपना विरोध जताया. उन्होंने कहा, ‘‘11 अध्यादेशों की मियाद समाप्त हो गई, क्योंकि राज्यपाल ने अपनी मंज़ूरी नहीं दी. सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों पर भी राज्यपाल ने हस्ताक्षर नहीं किए.’’
तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के नेतृत्व वाले धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबंधन (एसपीए) और राज्यपाल के बीच लगातार विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं. हाल ही मे हद तब हो गई जब राज्य के राज्यपाल ने टिप्पणी करी कि राज्य को तमिलनाडु के बजाय 'तमिझगम' के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए जिसने न केवल सत्तारूढ़ डीएमके बल्कि उसके सहयोगियों के साथ जनता मे भी एक भारी रोष पैदा कर दिया है. इसके बाद राज्य मे विरोध-प्रदर्शन के दौरान राज्यपाल का पुतला भी जलाया गया.
हालांकि उन्होंने इसपर सफाई देते हुए कहा कि वो इतिहास के संदर्भ मे ऐसा बोल रहे थे.इससे पहले राज्यपाल ने अपनी मर्यादा को तोड़ते हुए विधानसभा मे अपने अभिभाषण के दौरान सीएन अन्नादुरई और एम करुणानिधि के साथ-साथ द्रविड़ विचारक, पेरियार और भारतीय संविधान के निमार्ता डॉ. बीआर अंबेडकर सहित डीएमके के कई दिग्गजों की प्रशंसा करने वाले कुछ अंशों को छोड़ दिया था. जबकि राज्यपाल हमेशा सरकार का तैयार अभिभाषण पढ़ते हैं.
इसके बाद सत्ताधारी दल के लोगों ने "गवर्नर गो आउट" जैसे नारे भी लगाए.इस घटना के एक दिन बाद, 13 जनवरी को डीएमके सांसदों के एक डेलीगेशन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात की और एक याचिका प्रस्तुत की जिसमें कहा गया कि राज्यपाल संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं.ये कोई नया मामला नहीं है. जब से राज्य मे नई सरकार आई है और आरएन रवि ने तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में पदभार ग्रहण किया तबसे राज्य सरकार के साथ उनके नियमित टकराव होते रहे हैं.
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर सवाल खड़े हुए हैं. भगत सिंह कोश्यारी की वजह से पिछली महा विकास आघाडी सरकार के दौरान एक साल तक महाराष्ट्र में विधानसभा के स्पीकर का चुनाव नहीं हो सका था. इसके अलावा उद्धव ठाकरे कैबिनेट ने 12 लोगों को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफ़ारिश साल 2020 में नवंबर के पहले सप्ताह में की थी. लेकिन राज्यपाल कोश्यारी हमेशा से इस पर आनाकानी करते रहे और मंजूरी नहीं दी.
कृषि कानूनों पर हंगामे के दौरान साल 2020 में राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने राज्यों में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था तो इसके लिए पहले तो वहां के तत्कालीन राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी थी और और कई तरह के सवाल उठाए थे. बाद में विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि क़ानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था.
पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और राज्य की भगवंत मान सरकार के बीच भी टकराव चला था. भगवंत मान सरकार ने जब 22 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने पहले इसे मंजूरी दे दी थी और फिर रद्द कर दिया था. इसके बाद मान सरकार ने 27 सितंबर को विधानसभा का सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने इसका एजेंडा मांगा जिस पर मुख्यमंत्री भगवंत मान ने नाराजगी जताई. काफ़ी दबाव के बाद उन्होंने विशेष सत्र के लिए मंजूरी दी थी.
तेलंगाना भी बाकी राज्यों की तरह राज्यपाल के विवाद से अछूता नहीं रहा है. सत्ताधारी दल ने आरोप लगाएं कि राज्य में विधायकों की खरीद फरोख्त की कोशिशों के पीछे राजभवन का हाथ हो सकता है. किसी भी राज्य में राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद के इर्द-गिर्द इस तरह के विवाद बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं. जबकि वहां की राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन ने तेलंगाना में 'अलोकतांत्रिक' स्थिति का दावा किया था और संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है.
आपको बता दें तेलंगाना की राज्यपाल पड़ोसी राज्य तमिलनाडु से हैं और वहां वो पहले भाजपा का नेतृत्व कर चुकी हैं. टीआरएस नेताओं का कहना है कि वह अब भी भाजपा नेता की तरह ही काम कर रही हैं. तमिलिसाई ने 8 सितंबर, 2019 को तेलंगाना के राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभाला. वह साल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग किए गए इस राज्य में इस पद को संभालने वाली पहली महिला हैं.
गौरतलब है कि हमारे देश मे राज्यपाल को 'महामहिम' शब्द से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन कई बार उनके आचरण महामहिम शब्द की गरिमा को बचाते हुए प्रतीत नही होते हैं. कई जानकारों का कहना है कि ये सब कुछ नया नहीं है. पहले भी राज्यपालों को राजनैतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन वर्तमान स्थति भयावह है. एक शर्म और मर्यादा का पर्दा होता था लेकिन अब वो भी खत्म हो गया. अब वे केंद्र के आदमी के साथ-साथ एक पार्टी के कार्यकर्ताओं की तरह काम कर रहे हैं जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है.
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