जब आपको चुनाव से पहले फ्री गिफ्ट देने के वादे किए जाते हैं, तब आप क्या ये सोचते हैं कि ये फ्री की चीजें सिर्फ कुछ लोगों या खास तबके वालों के लिए हैं... नहीं! नहीं उठाते ना सवाल? चूंकि मैं कोई राजा-महाराजा नहीं हूं तो मुफ्त में कोई चीज कैसे दे सकता हूं? तो वो नेता जो वादे करते हैं, क्या वो राजे-महाराजे हैं? क्योंकि ये तो राजतंत्र की प्रक्रिया हुआ करती थी जब कोई असहाय या गरीब अपनी मजबूरी लेकर राजा के पास पहुंचते थे तो वो उनकी फरियाद सुनकर और मंत्रियों से पता करवाकर उनकी कुछ मदद कर दिया करते थे, मुफ्त में कुछ दे दिया करते थे जिसे अमूमन खैरात भी कहा जाता था...
लेकिन न तो ये राजतंत्र है और ना ही पार्टी प्रमुख कोई राजा.. फिर ये खैरात जनता क्यों ले? यहां तो जनता सर्वोपरि है और लोकतंत्र के चुने हुए लोग हमें हमारे ही टैक्स से सुविधाएं देने वाले प्रतिनिधि.. तो हम मुफ्त की चीजें क्यों लेते चले जा रहे हैं? क्यों ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं? ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं हैं बल्कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी यही सवाल खड़े कर दिए हैं कि ‘मुफ्त का रेवड़ी कल्चर’ आखिर कब तक देश में चलेगा?
जी हां! ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया कि 'फ्री' के कल्चर पर रोक लगाई जानी चाहिए और इस पर मंगलवार 26 जुलाई को सुनवाई भी हुई. हालांकि चुनाव आयोग की ओर से पेश वकील ने अदालत को बताया कि मुफ्त उपहार और चुनावी वादों से संबंधित नियमों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया गया है.. क्या वाकई?
तो फिर पीएम नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के जालौन में बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे के उद्घाटन मौके पर ये क्यों कहा कि देश में ‘मुफ्त की रेवड़ी...
जब आपको चुनाव से पहले फ्री गिफ्ट देने के वादे किए जाते हैं, तब आप क्या ये सोचते हैं कि ये फ्री की चीजें सिर्फ कुछ लोगों या खास तबके वालों के लिए हैं... नहीं! नहीं उठाते ना सवाल? चूंकि मैं कोई राजा-महाराजा नहीं हूं तो मुफ्त में कोई चीज कैसे दे सकता हूं? तो वो नेता जो वादे करते हैं, क्या वो राजे-महाराजे हैं? क्योंकि ये तो राजतंत्र की प्रक्रिया हुआ करती थी जब कोई असहाय या गरीब अपनी मजबूरी लेकर राजा के पास पहुंचते थे तो वो उनकी फरियाद सुनकर और मंत्रियों से पता करवाकर उनकी कुछ मदद कर दिया करते थे, मुफ्त में कुछ दे दिया करते थे जिसे अमूमन खैरात भी कहा जाता था...
लेकिन न तो ये राजतंत्र है और ना ही पार्टी प्रमुख कोई राजा.. फिर ये खैरात जनता क्यों ले? यहां तो जनता सर्वोपरि है और लोकतंत्र के चुने हुए लोग हमें हमारे ही टैक्स से सुविधाएं देने वाले प्रतिनिधि.. तो हम मुफ्त की चीजें क्यों लेते चले जा रहे हैं? क्यों ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं? ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं हैं बल्कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी यही सवाल खड़े कर दिए हैं कि ‘मुफ्त का रेवड़ी कल्चर’ आखिर कब तक देश में चलेगा?
जी हां! ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया कि 'फ्री' के कल्चर पर रोक लगाई जानी चाहिए और इस पर मंगलवार 26 जुलाई को सुनवाई भी हुई. हालांकि चुनाव आयोग की ओर से पेश वकील ने अदालत को बताया कि मुफ्त उपहार और चुनावी वादों से संबंधित नियमों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया गया है.. क्या वाकई?
तो फिर पीएम नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के जालौन में बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे के उद्घाटन मौके पर ये क्यों कहा कि देश में ‘मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर’ लाने की कोशिश हो रही है जो कि देश के लिए बहुत ही घातक है. आपको यकीन न हो तो आप 16 जुलाई का उनका भाषण उनके ही Youtube चैनल पर भी सुन सकते हैं.
देश के युवाओं को पीएम मोदी ने सावधान किया लेकिन शायद ये बात दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को चुभ गई और उन्होंने पीएम पर पलटवार करते हुए कुछ सवाल पूछ लिए कि दिल्ली के बच्चों को मुफ्त शिक्षा या दिल्ली की जनता को मुफ्त बिजली देना क्या ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटना है? अरविंद केजरीवाल का जवाब आप आम आदमी पार्टी के Youtube चैनल पर 16 जुलाई की शाम को ही पोस्ट किए गए वीडियो में सुन सकते हैं?
दिल्ली के सीएम बातें तो बहुत ठोक-बजाकर करने की कोशिश करते हैं और दिल्ली के बाद पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की प्रचंड जीत के पहले उन्होंने वहाँ भी 300 यूनिट बिजली हर घर को फ्री देने का का वादा किया था लेकिन क्या करें पंजाब हो या दिल्ली, conditions apply तो लग ही जाता है. खैर, फिर भी काफी लोगों को तो फायदा हो ही रहा है.
लेकिन हमारे लोकतंत्र में तो न्यायपालिका ही सर्वोपरि है और अगर वहां किसी ने याचिका लगाई है कि चुनाव से पहले मुफ्त की चीजें बांटना बंद होना चाहिए तो उसकी चर्चा भी लाजिमी है और उसके अलावा ये भी जानना जरूरी है कि 1947 में भारत की आजादी और राजतंत्र के बाद ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद लोकतंत्र में कब-कब और किसने या किस पार्टी ने क्या-क्या मुफ्त बांटा या वादे किए और उन्हें पूरी तरह पूरा भी नहीं किया लेकिन मुफ्त के वादों को चुनाव जीतने का हथियार जरूर बनाया..
इसी पर करेंगे विस्तार से चर्चा iChowk पर Real News Analysis के इस लेख में.
चुनाव के दौरान फ्री की चीजें या सुविधाएं देने का मामला अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है. वोट लुभावन वादे और मतदाताओं को, जनता को मुफ्त सर्विस या चीजें देना ‘रेवड़ी बांटना’ कहलाता है और इस ‘रेवड़ी कल्चर’ के मुद्दे को उच्चतम न्यायालय में उठाया है याचिकाकर्ता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने. चुनाव से पहले फ्री देने के वादों पर रोक लगाने की याचिका पर 26 जुलाई को बहस हुई, सुप्रीम कोर्ट के वकीलों से कुछ सवाल-जवाब भी हुए. आइये उनपर भी डिटेल में बात कर ली जाए फिर बढ़ेंगे हम ‘मुफ्त के रेवड़ी कल्चर’ पर आगे.
भारत के मुख्य न्यायाधीश CJI एनवी रमना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने कहा कि ये 'एक बहुत ही गंभीर मुद्दा' है. सीजेआई ने केंद्र सरकार से ऐसी बातों को कंट्रोल करने के लिए कदम उठाने को कहा. चुनाव आयोग के वकील ने अदालत को बताया कि मुफ्त उपहार और चुनावी वादों से संबंधित नियमों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया गया है, लेकिन अगर ऐसी प्रथा को रोकना है या इसपर दंड का प्रावधान करना है तो मुफ्त चीजों के चुनावी वादों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कोई भी कानून तो सरकार को बनाना होगा.
चुनाव आयोग के वकील ने ये भी कहा कि पहले सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले हैं जो कहते हैं कि चुनावी घोषणा पत्र कोई वादा नहीं है. ऐसे में सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने भी कहा कि इस मुद्दे पर ECI यानी इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया को विचार करना होगा. मुख्य न्यायाधीश ने उल्टे अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल को घेरते हुए कहा कि आप इसे लिखित में क्यों नहीं देते कि आपके पास कोई अधिकार नहीं है, चुनाव आयोग को एक कॉल लेने दें.
CJI ने जानना चाहा कि क्या भारत सरकार का मानना है कि ये एक गंभीर मुद्दा है? सरकार अगर स्टैंड लेती है तो हम तय करेंगे कि इसे जारी रखा जा सकता है या नहीं! दूसरी तरफ याचिकाकर्ता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि भारत का नागरिक होने के नाते मुझे ये जानने का अधिकार है कि हम पर कितना कर्ज है? ECI को एक शर्त तय करने दें.
उस समय कोर्ट में एक अलग मामले के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल भी बैठे थे तो CJI एनवी रमना ने उनकी राय जाननी चाही. CJI ने सिब्बल से पूछा कि एक वरिष्ठ अधिवक्ता होने के साथ-साथ आप एक वरिष्ठ सांसद भी हैं. आप इस फ्री वाले चुनावी वादों के मुद्दे को किस तरह देखते हैं? इसके जवाब में कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट की बात को दोहराते हुए कहा कि ये बहुत गंभीर मामला है.
राजनीतिक मुद्दों के कारण भारत सरकार से इसपर फैसला लेने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. हालांकि इस पर विचार करने के लिए वित्त आयोग को आमंत्रित किया जा सकता है. बजट आवंटन और राज्य की स्थिरता बनाते समय प्रत्येक राज्य के कर्ज को देखने के लिए वित्त आयोग को शामिल किया जा सकता है.
इस पर सीजेआई ने सरकार की वकालत कर रहे एएसजी की ओर मुखातिब होकर कहा – ‘मिस्टर अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल कृपया इस बात पर गौर करें, अगर वित्त आयोग इस मामले पर मध्यस्थता कर सकता है या विचार करे तो अच्छा होगा.’ CJI ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल से एक और सवाल किया – ‘क्या वित्त आयोग राज्यों के कर्ज और वादा किए गए फ्रीबीज के संबंध में किसी भी कदम पर विचार कर सकता है?’
कुल मिलाकर यही हुआ कि CJI एनवी रमना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने सरकारी पक्ष के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल से कहा कि इस मामले पर केंद्र सरकार से निर्देश लिया जाए कि क्या वित्त आयोग इस मामले पर कोई कदम सुझा सकता है? याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि,‘ये एक गंभीर मुद्दा है और हमने सुझाव दिये हैं.’
इस पर CJI एनवी रमना ने वकील अश्विनी उपाध्याय पूछा कि, ‘आपने क्या सुझाव दिए हैं? कैसे मुफ्तखोरी को नियंत्रित किया जाए? क्या कोई सुझाव है आपके पास? उपाध्याय ने अदालत से कहा कि, ‘लॉ कमीशन की तकरीबन तीस रिपोर्ट्स जमा कराई गई हैं. चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह आदेश जारी किया है. पार्टियों की मान्यता के लिए शर्तें हैं. चुनाव आयोग अतिरिक्त शर्त लगा सकता है कि राजनीतिक दल ऐसे वादे ना करें.
जब मैंने ये याचिका दायर की थी तो पंजाब पर 3 लाख करोड़ का कर्ज था. पंजाब की पूरी आबादी ही करीब 3 करोड़ है. इसका मतलब हुआ कि हर नागरिक पर करोड़ों का कर्ज है. कर्नाटक पर 6 लाख करोड़ से भी ज्यादा का कर्ज है. सभी भारतीय राज्यों पर संयुक्त रूप से 70 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है.’अश्विनी उपाध्याय यहीं नहीं रुके.
चूंकि उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है इसीलिए वो पूरी तैयारी के साथ थे. अश्विनी उपाध्याय ने तर्क दिया कि – ‘हम श्रीलंका होने के रास्ते पर हैं. उसी तरह के मुफ्त वादे करते चले गए तो हमारी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी.’ हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस लाइन पर सावधानी बरती. सीजेआई ने कहा कि, ‘ये एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है इसलिए हम इसे सुन रहे हैं. अगर कर्ज है तो केंद्र सरकार इसे नियंत्रित करेगी. आरबीआई वहां है. राज्य एक सीमा से अधिक ऋण कैसे ले सकते हैं?’
उम्मीद है कि इस मामले की सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी जिसमें केंद्र कानूनी बाधाओं को लाने के सुझाव पर प्रतिक्रिया देगा. वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने जो याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की है उसका सार भी आपको बता देते हैं. अश्विनी उपाध्याय ने याचिका में लिखा है कि,
चुनावों में मुफ्तखोरी के वादे मतदाताओं को प्रभावित करते हैं.
राजनीतिक दलों की ये आदत लोकतांत्रिक मूल्यों के के लिए खतरा है.
इससे संविधान की भावना को भी चोट पहुंचती है.
सत्ता हासिल करने की राजनीतिक दलों की ये प्रथा रिश्वतखोरी की तरह है.
लोकतंत्र के सिद्धांतों को बचाने के लिए मुफ्त चीजें देने के वादों पर रोक लगनी चाहिए.
मुफ्तखोरी के वादे करने वाले राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करके चुनाव चिह्न जब्त कर लेना चाहिए.
अब अगर 3 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर आगे बहस या सुनवाई होती है तो देखना होगा कि केंद्र सरकार इस पर क्या सुझाव पेश करती है. क्योंकि ये मुद्दा फिर से जो हॉट टॉपिक बना है उसके पीछे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं जब उन्होंने 16 जुलाई को मुफ्त की रेवड़ियों की चर्चा छेड़ी तो किसी पार्टी या व्यक्ति का नाम नहीं लिया, उन्होंने तो आम आदमी यानी आम जनता और युवाओं को इससे बचकर रहने की सलाह दी लेकिन राजधानी दिल्ली से पंजाब और फिर हिमाचल की ओर देखने वाले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इसे आम आदमी पार्टी पर ही निशाना समझा और तुरंत 16 जुलाई की शाम ही जवाबी कार्रवाई भी कर दी.
वो यहीं नहीं रुके उन्होंने पंजाब के सीएम भगवंत मान के साथ कांफ्रेंस करके, ट्वीट करके हिमाचल प्रदेश में भी दिल्ली-पंजाब मॉडल को लागू करने की बात की. सोमवार, 25 जुलाई को केजरीवाल पहुँच गए गुजरात, वहां वो बहुत से कार्यक्रम तो कर ही रहे हैं साथ में जनता से फ्री-फ्री-फ्री के वादे भी कर रहे हैं.. मेरे तीन बार फ्री लिखने के पीछे भी कारण है.. उन्होंने ट्वीट करके भी गुजरात की जनता को चुनाव जीतने पर 3 सुविधाएं देने की बात की.. और मुद्दा गरमा गया.
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका पर बहस में कई पक्षों को शामिल कर लिया और मुद्दा बिल्कुल हॉट टॉपिक हो गया. लेकिन इसके आगे कहानी अभी और भी है या यूँ कहूं कि इस टॉपिक के पीछे कहानी अभी और भी है. भारत की राजनीति हर दौर में बदलती रही है. हर दौर में जनता ने अलग-अलग नेताओं को देखा है. नेहरु, इंदिरा, राजीव और अटल बिहारी वाजपेयी को भी जनता देखा है.
ये दौर प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी का है. एक तरफ भारत 75वां अमृत महोत्सव मना रहा है और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों को मुफ्त में उपहार देने से रोकने के लिए समाधान खोजने का निर्देश दिया है. लोकतंत्र में जनता जितनी ताकतवर होती है उतनी ही असहाय भी. 7 दशक बाद भी क्यों हुक्मरानों को 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है.. इतने सालों बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर कोई बात नहीं करता. बस सभी राजनीतिक दल चुनाव से पहले मुफ्त घोषणाएं बांटने में व्यस्त हैं.
पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि राजनीतिक दल वोट पाने के लिएमुफ्त बिजली/पानी की आपूर्त्ति, बेरोजगारों, दैनिक वेतनभोगी श्रमिकों और महिलाओं को भत्ता, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट जैसे लैपटॉप, स्मार्टफोन आदि की पेशकश करने का वादा करते हैं. जो राजनीतिक पार्टियां इस तरह की घोषणांए करती हैं वो बचाव में ये कहती हैं कि मतदाताओं के लिये ये जानना जरूरी है कि पार्टी सत्ता में आने पर क्या करेगी वहीं इसके विरोध में कहा जाता है कि इससे राज्य के साथ-साथ केंद्र के खजाने पर भारी आर्थिक बोझ पड़ेगा.
हालांकि इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर आरोप तो लगाती हैं लेकिन ऐसी शायद ही कोई पार्टी हो जो इसमें शामिल नहीं है. सब वोट पाने के लिए बड़े-बड़े वादे करते हैं और जब बात वादा पूरा करने की आती है तो उसे जुमला बता कर आगे निकल जाते हैं. भारत की सियासत में फिलहाल रेवड़ी कल्चर को लेकर जो घमासान मचा है वो पीएम मोदी के बयान के बाद शुरु हुआ.. दिल्ली में फ्री बिजली और फ्री पानी देने वाले केजरीवाल को लगा कि मोदी जी उन्हें ही टारगेट कर रहे हैं. फिर क्या था केजरीवाल आ गए कैमरे पर अपने चिरपरचित अंदाज में..
केजरीवाल ने कहा- ‘मुझ पर आरोप लगाए जा रहे हैं, मुझे गालियां दी जा रही हैं. लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या गलतियां कर रहा हूं. दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 18 लाख बच्चे पढ़ते हैं, इनका भविष्य पहले अंधकार में था. इन्हें फ्री और अच्छी शिक्षा देकर क्या मैं गुनाह कर रहा हूं. 4 लाख बच्चे प्राइवेट स्कूलों से नाम कटाकर सरकारी स्कूल में भर्ती हुए हैं. गरीबों के बच्चे NEET क्वालीफाई कर रहे हैं. ये काम 1947-1950 में हो जाना चाहिए था. हम देश की नींव रख रहे हैं, ये रेवड़ी नहीं है.’
केजरीवाल ने और भी बातें कीं.. उन्होंने मुफ्त इलाज की भी बात की, बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा कराने की बात की और हजारों लोगों को फ्री में योगा सिखाने की बात भी की.. दरअसल पीएम मोदी ने किसी पार्टी का नाम लिए बिना कहा था कि, ‘हमारे देश में रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है. मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है. ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है. इस रेवड़ी कल्चर से देश के लोगों को बहुत सावधान रहना है.’
ऐसा नहीं है कि पहली बार राजनीति में रेवड़ी कल्चर की चर्चा हो रही है. साल 2013 में, एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वोटरों को लुभाने वाले चुनावी वादे और मुफ्त उपहार एक गंभीर मुद्दा है जो चुनाव में समान अवसर प्रदान करने की भावना का उल्लंघन करता है.
न्यायालय ने ये भी माना कि चुनावी घोषणापत्र में वादों को जनप्रतिनिधित्व कानून या किसी अन्य प्रचलित कानून के तहत 'भ्रष्ट आचरण' के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है इसलिये जब सत्ताधारी पार्टी राज्य विधानसभा में विनियोग अधिनियम पारित करके इस उद्देश्य हेतु सार्वजनिक धन का उपयोग करती है तो मुफ्त वितरण को रोकना संभव नहीं है.
इसी साल अप्रैल में बीजेपी नेता और एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में चुनाव से पहले या चुनाव के बाद मुफ्त में चीजें या सुविधाएं देने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द किए जाने की याचिका दाखिल की थी. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने हलफनामा दाखिल करते हुए कहा- ‘इस तरह फ्री में चीजें देने का वादा करना राजनीतिक दलों का नीतिगत निर्णय है.
इन वादों पर राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति चुनाव आयोग के पास नहीं है. खुद जनता को सोचना चाहिए कि ऐसे वादों से देश की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा. राज्य की जनता को इस पर फैसला लेना चहिए कि क्या ऐसे फैसले आर्थिक रूप से सही हैं या इनसे अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.’
मतलब, सबकुछ जनता ही करेगी.. वोट भी देगी.. टैक्स भी भरेगी.. और वही राजनीतिक पार्टियों को भी समझाएगी कि देखिए, हमको अपनी योजनाओं से लुभाईए नहीं, इससे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा और हमारी राजनीतिक पार्टियां इतनी मासूम हैं कि वो ये बात आसानी से मान भी जाएंगी!!!आपने भाजपा का 2017 का यूपी विधानसभा का घोषणा पत्र तो देखा ही होगा.. चलिए कुछ बातें हम आपको याद दिलाते हैं.
सभी गरीब परिवारों को पहली 100 यूनिट बिजली तीन रुपए की दर से दी जाएगी
गरीब परिवारों को गरीब कल्याण कार्ड दिया जाएगा
लड़कियों को ग्रेजुएशन तक नि:शुल्क शिक्षा देने का प्रावधान
संवैधानिक तरीके से राम मंदिर जल्द से जल्द बनाने का प्रयास
सभी छात्रों को लैपटाप के साथ एक जीबी डाटा
यूपी में 10 नए अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनेंगे
10 नए अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करना तो सच में बड़ी बात है.. लेकिन केन्द्र के 8 साल पूरे होने पर गरीब कल्याण सम्मेलन में पीएम मोदी ने सरकार की कई कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया जो निश्तित तौर पर मुफ्त की रेवड़ी की श्रेणी में आती हैं.
आपको याद होगा कि एक बार पीएम मोदी ने मनरेगा पर निशाना साधते हुए कहा था कि भारत के नागरिक गड्ढा खोदने में अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं. बाद में हर राज्य में विधानसभा चुनावों और 2019 में आम चुनावों से पहले उन्होंने एलपीजी में सब्सिडी और किसानों के लिए नगद भुगतान के लिए योजना की घोषणा कर दी.
महामारी के दौरान उन्होंने मुफ्त राशन की योजना लागू की और कोविड-19 के टीकाकरण को मुख्य कल्याणकारी कदम बताया और इसे विश्व के सबसे बड़े मुफ्त टीकाकरण अभियान की संज्ञा दी. इन कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए धन्यवाद देने के लिए केंद्र सरकार ने कई कार्यक्रम भी चलाए.. अब आप सोचिये पैसा तो इन कार्यक्रमों में भी लगा ही होगा!!!
वास्तविकता ये है कि हर दल वोटरों को लुभाने के लिए वादे कर रहा है और फ्री में रेवड़ी बांट रहा है. 2019 लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी ने भी यही काम किया था, जब उन्होंने देश के हर गरीब परिवार को सालाना 72 हजार रुपये देने का ऐलान किया था. तब राहुल गांधी ने कहा था कि ऐसी योजना दुनिया में कहीं नहीं है.
पीएम मोदी पर निशाने साधते हुए राहुल गांधी ने ये भी कहा- 'हम 12000 रुपये महीने की आय वाले परिवारों को न्यूनतम आय गारंटी देंगे. कांग्रेस गारंटी देती है कि वो देश में 20% सबसे गरीब परिवारों में से प्रत्येक को हर साल 72000 रुपये देगी. ये पैसा उनके बैंक खाते में सीधा डाल दिया जाएगा. अगर मोदी जी सबसे अमीर लोगों को पैसा दे सकते हैं तो कांग्रेस भी सबसे गरीब लोगों को पैसा देगी.’
अभी हाल ही में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी लड़कियों को फ्री स्कूटी देने के वादे के सहारे चुनावी वैतरणी को पार करने का प्रयास कर रही थी. यानि सभी दल इसी कोशिश में लगे हैं कि क्या फ्री दिया जाए कि जनता हमें वोट कर दे. पीएम मोदी के रेवड़ी वाले बयान के बाद अखिलेश यादव ने भी उनपर तंज कसा है. अखिलेश यादव ने कहा कि रेवड़ी शब्द असंसदीय तो नहीं?
सोशल मीडिया पर रेवड़ी को लेकर बहस चल पड़ी है. सभी दलों के लोग एक-दूसरी की रेवड़ी योजनाओं के मीम्स बना रहे हैं. भारत जैसे देश में जहाँ राज्यों में विकास का एक निश्चित स्तर है, वहां चुनाव आने पर लोगों को लगने लगता है कि हमारी सारी उम्मीदें राजनीतिक पार्टियों के मुफ्त के वादों से ही पूरी होंगी. और ये तब और बढ़ जाता है जब आस-पास के राज्यों में मुफ्त रेवड़ी बंटने का ऐलान होता है. इससे लोगों की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और राजनीतिक दल भी काफी दबाव में होते हैं.
ऐसे राज्य जो कम विकसित हैं एवं जिनकी जनसंख्या काफी ज्यादा है, वहां इस तरह की सुविधाएँ आवश्यकता या मांग आधारित होती हैं तथा राज्य के उत्थान के लिये ऐसी सब्सिडी की पेशकश ज़रूरी हो जाती है. लेकिन किसी राज्य में किसी राजनीतिक दल के द्वारा जब भी इस तरह का ऐलान होता है तब दूसरे दल इसे प्रतिस्पर्धा समझ लेते हैं.. वो सोचते हैं कि हम क्यों पीछे रहें.
यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि सब्सिडी और मुफ्त की रेवड़ी में काफी अंतर है. सब्सिडी सरकारें इसलिए देती हैं कि सदियों से वंचित और शोषित वर्ग जो कि आर्थिक रूप से पिछड़ा है वो समाज की मुख्यधारा में आर्थिक रूप से भी शामिल हो, सशक्त हो.. सरकार का यही काम है. सब्सिडी और मुफ्त में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी उचित और विशेष रूप से लक्षित लाभ हैं जो मांगों से उत्पन्न होते हैं. जबकि मुफ्तखोरी काफी अलग है.
अब जान लेते हैं कि भारत की राजनीति में कब से बंटनी शुरु हुई रेवड़ी?
भारत में चुनावों के दौरान ऐसे वादे करना एवं चुनाव जीतने पर भूल जाने की संस्कृति कोई नई नहीं है. ये 2014 से पहले से चल रही है. सबसे पहले ऐसे वादे तत्कालीन आंध्रप्रदेश में एन टी रामाराव द्वारा किए गए जब उन्होंने 2 रुपये किलो चावल देने की घोषणा की थी. उसके बाद तमिलनाडु की राजनीति में इसका व्यापक विस्तार देखा गया. वहां दोनों ही क्षेत्रीय दलों द्वारा जनता को अपने पक्ष में करने के लिए एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन घोषणाएं की जाती रही हैं.100 यूनिट फ्री बिजली, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, कामकाजी महिलाओं को स्कूटी खरीदने में सब्सिडी से लेकर प्रेशर कुकर, मिक्सर-ग्राइन्डर, मंगलसूत्र तक देने की भी घोषणा की गई हैं.
राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही मुफ्त घोषणाओं को ध्यान से देखें तो इसमें भी समय के साथ काफी बदलाव आया है. पहले मुफ्त बिजली, पानी, शिक्षा इत्यादि की घोषणाएं होती थी लेकिन अब तमिलनाडु के पैटर्न पर उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों में भी टी० वी०, मोबाइल, स्मार्टफोन, टेबलेट, लैपटॉप, लोन माफी की बातें हो रही हैं जिन्हें अगर पूरी तरह वास्तविक धरातल पर उतारा जाये तो पूरे प्रदेश की शायद अर्थव्यवस्था ही चौपट हो जाये.
अब वक्त आ गया है कि जनता और नेता दोनों इस बात को समझें की ये मुप्त की रेवड़ी कहीं देश में श्रीलंका जैसे हालात न पैदा कर दे. लोकलुभावन घोषणाओं को जिस जनता के लिए किया जाता है वो पैसा करदाताओं का है. लोकलुभावन घोषणाओं का जो बजट होता है अंत में वो जनता को ही चुकाना होता है. भारत में आश्चर्यजनक रुप से उन राज्यों में भी चुनावों के दौरान ऐसी घोषणाएं की जा रही हैं जिनकी आर्थिक स्थिति पहले से ही बेहद खराब है.
उदाहरण के तौर पर दिल्ली की तर्ज पर आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश में घरेलू उपभोक्ताओं को 300 यूनिट बिजली फ्री दिए जाने का चुनावी वादा किया था जबकि राज्य का बिजली विभाग 90 हजार करोड़ रुपये के घाटे में है.
राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के समय मतदाताओं के लुभाने वाली घोषणाओं के बजाय गरीबी दूर करने और वंचित तबकों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए योजना बनानी चाहिए और इसके लिए मुफ्त रेवड़ी की जरूरत नहीं पड़ेगी, बस इरादा होना चाहिए. इस आधार पर नेता जनता को अपने पक्ष में मतदान करने को कह सकते हैं. हार और जीत बाद की बात है.. इतना तो होगा ही कि लोकतंत्र में एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत होगी.
जब बात देश की हो रही है, लोकलुभावन योजनाओं की हो रही है और ये जिनके लिए हो रही है वो है जनता लेकिन 2015 के बाद से 5 सालों में भूख से 100 लोगों की मौत भी हो चुकी है. पिछले साल ही 'हंगर-वॉच' की एक रिपोर्ट आई थी. देश के 11 राज्यों में सर्वेक्षण के बाद 'राइड टू फूड' कैंपेन ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें दावा किया गया कि 2015 से 2020 तक भूख से कम से कम 100 लोगों की मौत हुई है.
कोरोना महामारी की वजह से देश में लगे लॉकडाउन के समय में कई परिवारों को कई रात भूखे रह कर गुजारनी पड़ी थी. ऐसे लोगों की संख्या लगभग 27% थी. इस दौरान 45% लोगों को अपने खाने के इंतजाम के लिए कर्ज लेना पड़ा. कर्ज लेने वाले लोगों में दलितों की संख्या सामान्य जातियों से 23% ज्यादा थी.
बेदिल हैदरी का एक शेर सुनिए..
भूख चेहरों पे लिए चांद से प्यारे बच्चे
बेचते फिरते हैं गलियों में गुब्बारे बच्चे
भूख से लोग मर रहे हैं और ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं है.. हम और आप ऐसा भारत देखना तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे.. इसलिए मोदी जी के कहे अनुसार छोड़िए मुफ्त रेवड़ी को और मुद्दों के लिए वोट करिए.. विकास के लिए वोट करिए.. अपने चांद जैसे बच्चों के भविष्य के लिए वोट करिए...
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