गरजेंगे कि 'मोदी है तो मुमकिन हुआ' एक समावेशी निर्णय जिसके फलस्वरूप एक रिटायर्ड मुस्लिम जज राज्यपाल बन रहे हैं और विपक्ष है कि उसे मंजूर नहीं है. जनवरी 2024 में आम चुनाव के पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर का उद्घाटन होना है सो जोरशोर से माहौल बनाया जाएगा कि विपक्ष का निशाना नियुक्ति नहीं बल्कि राम मंदिर फैसला है जो उन्हें मंजूर था ही नहीं. चूंकि राम मंदिर का फैसला पांच जजों की पीठ ने एकमत से दिया था जिसमें वर्तमान मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ भी थे, परोक्षतः विपक्ष को उनकी अवमानना के लिए भी आरोपित किया जाएगा. सो राजनीतिक रूप से सेवानिवृत्त माननीय न्यायाधीश अब्दुल नजीर, जिनके विभिन्न फैसले न्याय की कसौटी पर खरे हैं और बहुमुखी भी हैं, की नियुक्ति बीजेपी का दूरदर्शिता भरा दांव है 2024 आम चुनाव के लिए.
राम मंदिर और नोटबंदी पर उनके फैसले सरकार के अनुरूप थे तो ट्रिपल तलाक और प्राइवेसी के मुद्दे पर उनके फैसले सरकार को शर्मसार करने वाले भी थे. लेकिन विपक्ष जानते बूझते कि 'बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, पर जाना मत; वरना पकडे जाओगे, जाल में प्रवेश कर रहा है. कोई आश्चर्य नहीं होगा चुनाव आते आते माहौल ऐसा बन जाएगा कि विपक्ष के पास हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा. फर्ज कीजिए जस्टिस नजीर की नियुक्ति को चुनौती दी जाती है, शीर्ष न्यायालय सुनवाई के लिए तैयार भी हो जाता है. केस अगेंस्ट अपॉइंटमेंट के लिए कितने भी तर्क रख दिए जाएं, सभी धराशायी होंगे चूंकि फॉर अपॉइंटमेंट अनेकों नजीरें हैं और नियुक्ति संविधान सम्मत भी है. फिर चूंकि ये पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट के किसी रिटायर्ड जज को राज्यपाल बनाया गया है.
ये तो दलगत राजनीति और स्वार्थवश निरी कल्पना ही है कि जनता के मन में सवाल आ सकता है कि जज रिटायरमेंट के बाद पद के ऑफर से प्रभावित हो सकता है. सिद्ध करने...
गरजेंगे कि 'मोदी है तो मुमकिन हुआ' एक समावेशी निर्णय जिसके फलस्वरूप एक रिटायर्ड मुस्लिम जज राज्यपाल बन रहे हैं और विपक्ष है कि उसे मंजूर नहीं है. जनवरी 2024 में आम चुनाव के पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर का उद्घाटन होना है सो जोरशोर से माहौल बनाया जाएगा कि विपक्ष का निशाना नियुक्ति नहीं बल्कि राम मंदिर फैसला है जो उन्हें मंजूर था ही नहीं. चूंकि राम मंदिर का फैसला पांच जजों की पीठ ने एकमत से दिया था जिसमें वर्तमान मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ भी थे, परोक्षतः विपक्ष को उनकी अवमानना के लिए भी आरोपित किया जाएगा. सो राजनीतिक रूप से सेवानिवृत्त माननीय न्यायाधीश अब्दुल नजीर, जिनके विभिन्न फैसले न्याय की कसौटी पर खरे हैं और बहुमुखी भी हैं, की नियुक्ति बीजेपी का दूरदर्शिता भरा दांव है 2024 आम चुनाव के लिए.
राम मंदिर और नोटबंदी पर उनके फैसले सरकार के अनुरूप थे तो ट्रिपल तलाक और प्राइवेसी के मुद्दे पर उनके फैसले सरकार को शर्मसार करने वाले भी थे. लेकिन विपक्ष जानते बूझते कि 'बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, पर जाना मत; वरना पकडे जाओगे, जाल में प्रवेश कर रहा है. कोई आश्चर्य नहीं होगा चुनाव आते आते माहौल ऐसा बन जाएगा कि विपक्ष के पास हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा. फर्ज कीजिए जस्टिस नजीर की नियुक्ति को चुनौती दी जाती है, शीर्ष न्यायालय सुनवाई के लिए तैयार भी हो जाता है. केस अगेंस्ट अपॉइंटमेंट के लिए कितने भी तर्क रख दिए जाएं, सभी धराशायी होंगे चूंकि फॉर अपॉइंटमेंट अनेकों नजीरें हैं और नियुक्ति संविधान सम्मत भी है. फिर चूंकि ये पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट के किसी रिटायर्ड जज को राज्यपाल बनाया गया है.
ये तो दलगत राजनीति और स्वार्थवश निरी कल्पना ही है कि जनता के मन में सवाल आ सकता है कि जज रिटायरमेंट के बाद पद के ऑफर से प्रभावित हो सकता है. सिद्ध करने की बात तो छोड़ें, क्या कोई बगैर किसी किंतु परंतु के कह सकता है कि जस्टिस नजीर ने अपने कार्यकाल में एक भी फैसला रिटायरमेंट के बाद किसी पद की लालसा में दिया था? स्पष्ट है नियुक्ति पर विवाद खड़ा करना सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही है तभी तो दिवंगत अरुण जेटली के पुराने बयान का हवाला देते हुए कांग्रेस हमलावर है. जेटली जी का बयान विधिक कदापि नहीं था; चूंकि तब बीजेपी विपक्ष में थी, विपक्षी नेता की हैसियत से राजनीति के लिए उनका यही बयान हो सकता था, 'Pre retirement Judgements are nfluenced by the desire of a post retirement job.'
राजनीति वही है, तौर तरीके वही हैं, तो आज कुछ अलग कैसे हो सकता है? जेटली जी की तरह अभिषेक मनु सिंघवी भी जाने माने वकील हैं, लेकिन चूंकि वे उनकी तरह राजनेता भी हैं और संयोग से आज विपक्ष में भी हैं तो इतर बोल ही नहीं सकते थे. परंतु जब उन्होंने जेटली जी के कहे का सम्मान एक 'भावना' के रूप में साझा करते हुए कैविएट के मानिंद कहा कि "यह किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं है क्योंकि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूं लेकिन सिद्धांत रूप में हम सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति के खिलाफ हैं", उनका अंतर सामने आ गया कि वे भी जस्टिस नजीर की नियुक्ति को खारिज नहीं कर सकते. बातें और भी उठ रही हैं, उठायी जा रही हैं, मसलन कूलिंग पीरियड की बात हो रही है, बहुत पहले किसी विधि आयोग के सुझावों का हवाला दिया जा रहा है आदि आदि. क्या औचित्य है? जबकि जहां के नजीर राजयपाल बनाये गए हैं यानी आंध्र के मुख्यमंत्री जगमोहन रेड्डी ने उनकी नियुक्ति का स्वागत किया है.
उन्हें भली भांति पता है कि अब्दुल नजीर सरीखे विशिष्ट प्रतिभा के धनी और निर्विवाद व्यक्ति, जो किसी भी राजनीतिक सोच से वास्ता नहीं रखते, से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता. जस्टिस नजीर 39 दिन पूर्व ही रिटायर हुए हैं. जैसा जिक्र किया गया, सत्ता में चाहे कोई भी पार्टी रहे, ऐसी नियुक्तियां पहले भी होती रही है.और ऐसा भी नहीं है कि ये पहला मौका है जब सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को राज्यपाल या विधायिका का हिस्सा बनाये जाने पर विवाद हुआ हो. कहा तो यही जाता है कि राज्यपाल के पद पर सेवानिवृत्त जजों, पूर्व सैन्य अफसरों और रिटायर्ड नौकरशाहों की नियुक्तियां इसलिए की जाती है ताकि उनकी हर क्षमता का जहाँ जरूरत हो वहां इस्तेमाल किया जा सके. ऐसा होता भी है.
ज्वलंत उदाहरण है विदेश मंत्री एस जयशंकर जो 2015 से 2018 तक चार सालों तक भारत के फॉरेन सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत थे. हाँ, इतना जरूर है कि अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश मामलों में राजनेताओं को गवर्नर का पद मिलना उनकी सक्रिय राजनीति से विदाई का संकेत ही रहता आया है. वैसे राजनीतिक दलों से सम्बद्ध रहे नेताओं ने भी राज्यपाल बनने के बाद अपनी प्रशासनिक क्षमता व संवैधानिक समझ के उदाहरण भी खूब पेश किये हैं. राज्यपाल के लिए किसी जज की नियुक्ति तो हर हाल में किसी राजनेता के बनाये जाने से बेहतर ऑप्शन है क्योंकि प्रथम वे किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध नहीं होते और द्वितीय संविधान और कानून की जानकारी भी उन्हें कहीं ज्यादा होती है. केंद्र की सत्ताधारी पार्टी अपने ही नेता को गवर्नर के पद से उपकृत करती हैं, क्यों करती हैं, सभी जानते हैं, समझते हैं.
कह सकते हैं पक्ष विपक्ष के मध्य एक प्रकार की मौन सहमति होती है. तदनुसार अहम मसलों पर पृष्ठभूमि की छाया नजर आ ही जाती है. सतपाल मलिक सरीखे तो इक्के दुक्के ही होते हैं, लेकिन एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के लिए कैसे कह सकते हैं कि महज नियुक्ति के लिए वे सत्ता का पक्ष लेंगे ? और ये कहना कि सेवाकाल में उन्होंने फैसले पोस्ट रिटायरमेंट किसी पद के एवज में दिए थे, बोलचाल की भाषा में कहें तो सत्ता ने उन्हें सेट कर लिया था, सरासर प्रजातांत्रिक मूल्यों की अवमानना है, पंच परमेश्वर की अवधारणा के विपरीत है. इन्हीं जस्टिस नजीर के लिए चीफ जस्टिस के उदगार हैं कि "जस्टिस नजीर वह नहीं थे जो सही और गलत के बीच तटस्थ रहते थे, लेकिन वह सही के लिए खड़े रहे. यह सभी ने अयोध्या मामले में देखा था."
माननीय चंद्रचूड़ ने ये भी बताया कि कितनी कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए जस्टिस नजीर इस मुकाम पर पहुंचे थे. विदाई के समय नजीर ने स्वयं के लिए जो कहा वह उनके चारित्रिक गुणों का भान कराता है, "उनका सफर एक बत्तख की तरह था जो पानी पर आसानी से तैरता हुआ दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में खुद को बचाए रखने के लिए पानी के नीचे गुस्से से तैर रहा है." आज यदि सरकार ने, मान भी लें मंशा कुछ और है, न्यायमूर्ति नजीर की नियुक्ति राज्यपाल के पद पर कर ही दी है तो यकीन रखिये प्रदेश में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा सौ फीसदी होगी. परंतु यदि उन्होंने, जैसा दवाब चहुं और बनाया जा रहा है, इंकार कर दिया पद लेने से तो यक़ीनन दुर्भाग्य ही होगा.
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