चुनाव आयोग (Election Commission) शुरू से ही स्वतंत्र निकाय के तौर पर काम करता आया है. ये बात अलग है कि मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन ने चुनाव आयोग को विशेष पहचान दिलायी - और कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक सुनवाई के दौरान शेषन को पूरे सम्मान के साथ याद किया गया था.
काफी दिनों से चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवाल भी उठते रहे हैं, खासकर ईवीएम को लेकर. ये सवाल जितना बिकाऊ होता है, कभी टिकाऊ नहीं दिखा. क्योंकि सवाल भी नफे-नुकसान के हिसाब से उठाये गये.
चुनाव आयुक्तों को लेकर भी विपक्ष केंद्र सरकार को कठघरे में वैसे ही खड़ा करता रहा है, जैसे सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसियों को लेकर - और अब तो सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश आ गया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियां भी वैसे ही होंगी जैसे सीबीआई निदेशक की होती है.
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में मांग तो न्यायपालिका में नियुक्तियों जैसा ही कोई कॉलेजियम सिस्टम बनाने की रही, लेकिन अदालत को वो शायद ठीक नहीं लगा. सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजिय सिस्टम जैसी तो नहीं दी है, लेकिन केंद्र सरकार की भूमिका सीमित जरूर कर दी है.
अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी वैसे ही होगी जैसे भारत के मुख्य न्यायधीश और सीबीआई निदेशक की होती है - यानी नियुक्ति के लिए एक कमेटी होगी जिसमें प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के अलावा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया भी होंगे.
देखा जाये तो ये उस नैरेटिव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का प्रहार है जिसमें देश की तात्कालिक सरकार पर विपक्ष की तरफ से सबसे बड़ी अदालत को प्रभावित करने की तोहमत जड़ी जाती रही है - और ये फैसला ऐसे दौर में आया है जब सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं को एक खास विचारधारा थोप कर बर्बाद करने का इल्जाम लगाया जा रहा है.
जजों की नियुक्ति के मामलें हाल फिलहाल न्यायपालिका और विधायिका के बीच एक टकराव जैसी स्थिति को भी महसूस किया जाने लगा था, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखायी तो सरकार ने कदम पीछे खींचते हुए कॉलेजियम की सिफारिशें मान...
चुनाव आयोग (Election Commission) शुरू से ही स्वतंत्र निकाय के तौर पर काम करता आया है. ये बात अलग है कि मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन ने चुनाव आयोग को विशेष पहचान दिलायी - और कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक सुनवाई के दौरान शेषन को पूरे सम्मान के साथ याद किया गया था.
काफी दिनों से चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवाल भी उठते रहे हैं, खासकर ईवीएम को लेकर. ये सवाल जितना बिकाऊ होता है, कभी टिकाऊ नहीं दिखा. क्योंकि सवाल भी नफे-नुकसान के हिसाब से उठाये गये.
चुनाव आयुक्तों को लेकर भी विपक्ष केंद्र सरकार को कठघरे में वैसे ही खड़ा करता रहा है, जैसे सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसियों को लेकर - और अब तो सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश आ गया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियां भी वैसे ही होंगी जैसे सीबीआई निदेशक की होती है.
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में मांग तो न्यायपालिका में नियुक्तियों जैसा ही कोई कॉलेजियम सिस्टम बनाने की रही, लेकिन अदालत को वो शायद ठीक नहीं लगा. सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजिय सिस्टम जैसी तो नहीं दी है, लेकिन केंद्र सरकार की भूमिका सीमित जरूर कर दी है.
अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी वैसे ही होगी जैसे भारत के मुख्य न्यायधीश और सीबीआई निदेशक की होती है - यानी नियुक्ति के लिए एक कमेटी होगी जिसमें प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के अलावा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया भी होंगे.
देखा जाये तो ये उस नैरेटिव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का प्रहार है जिसमें देश की तात्कालिक सरकार पर विपक्ष की तरफ से सबसे बड़ी अदालत को प्रभावित करने की तोहमत जड़ी जाती रही है - और ये फैसला ऐसे दौर में आया है जब सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं को एक खास विचारधारा थोप कर बर्बाद करने का इल्जाम लगाया जा रहा है.
जजों की नियुक्ति के मामलें हाल फिलहाल न्यायपालिका और विधायिका के बीच एक टकराव जैसी स्थिति को भी महसूस किया जाने लगा था, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखायी तो सरकार ने कदम पीछे खींचते हुए कॉलेजियम की सिफारिशें मान भी ली.
नियुक्तियों से पहले कुछ राजनीतिक हलचलों पर ध्यान दें तो सब कुछ साफ साफ समझ में आता है. इसके लिए उपराष्ट्रपति और राज्य सभा में सभापति जगदीप धनखड़ की टिप्पणी, कानून मंत्री किरण रिजिजु के तब के बयानों के अलावा, सोनिया गांधी का बयान और बीजेपी सांसद वरुण गांधी का इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख भी देख सकते हैं.
और उसी क्रम में देखें तो सुप्रीम कोर्ट ने अदानी-हिंडनबर्ग केस (Adani-Hindenburg Case) में भी जांच के लिए कमेटी बनाने का आदेश दिया है. जिस तरीके से मोदी सरकार अदानी-हिंडनबर्ग केस में विपक्ष के जांच की मांग को खारिज करती रही है, विपक्षी खेमे में तो खुशी की लहर ही होनी चाहिये - देश की सबसे पुरानी और बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को तो कम से कम इस बात के लिए खुश तो होना ही चाहिये कि जो काम वो संसद में लगातार हंगामे के बावजूद नहीं करा सकी, एक याचिका पर सुनवाई कर सुप्रीम कोर्ट ने वो काम कर दिया है.
और केंद्र में सरकार की अगुवाई कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र की टीम को तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा होगा. बल्कि तीन चुनावी राज्यों से आ रही अच्छी खबर की खुशी भी थोड़ी फीकी लग रही होगी.
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि चुनाव आयोग को लेकर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से वास्तव में कोई फर्क पड़ेगा भी क्या? क्योंकि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में नयी व्यवस्था देने वाले सुप्रीम कोर्ट ने ही एक बार सीबीआई को 'पिंजरे के तोता' भी तो बताया था!
अदानी-हिंडनबर्ग केस में जांच कमेटी बनी
लोक सभा में राहुल गांधी और राज्य सभा में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में हंगामे और शोर शराबे के बावजूद जो हासिल न हो सका था, सुप्रीम कोर्ट की तरफ से उन सभी को सौगात में मिल गया है.
अदानी-हिंडनबर्ग केस में सुप्रीम कोर्ट ने जांच कमेटी बनाने का आदेश जारी किया है - और SEBI को हिदायत दी है कि वो दो महीने के भीतर जांच रिपोर्ट सौंप दे.
सुप्रीम कोर्ट ने एक्सपर्ट कमेटी के सदस्यों के नाम भी तय कर दिया है. ये कमेटी सुप्रीम कोर्ट के ही रिटायर्ड जस्टिस एएम सप्रे की अध्यक्षता में जांच का काम करेगी. कमेटी में बैंकर और रिटायर्ड जजों के अलावा एक वकील और एक बड़े टेक-उद्यमी नंदन नीलेकणि को भी शामिल किया गया है. इंफोसिस के सह संस्थापक रहे नंदन नीलेकणि की आधार को मौजूदा स्वरूप में भी बड़ी भूमिका रही है.
नंदन नीलेकणि के अलावा कमेटी में जस्टिस जेपी देवधर, केवी कामत, ओपी भट्ट और सोमशेखर सुंदरसन को शामिल किया गया है. ओपी भट्ट और केवी कामत जहां जाने माने बैंकर हैं, वहीं बॉम्बे हाई कोर्ट से अवकाश ग्रहण करने वाले जस्टिस जेपी देवधन सिक्योरिटीज ऐपेलेट ट्राइब्यूनल के चेयरपर्सन भी रह चुके हैं.
अदानी ग्रुप ने किया स्वागत: जांच कमेटी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद अदानी ग्रुप की तरफ से भी रिएक्शन आया है. अदानी ग्रुप ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए उम्मीद जतायी है कि अब इस केस में एक समय सीमा के भीतर अंतिम फैसला आ जाएगा - और ट्विटर पर अंग्रेजी में लिखा है, '... सत्यमेव जयते!'
विपक्ष को क्या मिला: 24 जनवरी को हिंडनबर्ग रिसर्च एजेंसी की रिपोर्ट आने के बाद अदानी ग्रुप के कारोबार के खिलाफ कांग्रेस नेतृत्व को मुंहमांगा मुद्दा मिल गया था - और संसद में राहुल गांधी ने जबरदस्त भाषण भी दिया.
राहुल गांधी ने अदानी ग्रुप के प्रमुख गौतम अदानी से रिश्तों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कई सवाल भी पूछे थे, और संसद में मोदी के भाषण के बाद ये भी कहा था कि उनके एक भी सवाल का जवाब प्रधानमंत्री ने नहीं दिया. तभी से कांग्रेस की तरफ से अदानी ग्रुप को लेकर ट्विटर पर लगातार सवाल पूछे जा रहे हैं.
हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अदानी ग्रुप के कारोबार की जांच को लेकर विपक्षी दलों के नेताओं को काफी एकजुट भी देखा गया था. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बुलावे पर 16 विपक्षी दलों के नेता मीटिंग में पहुंचे भी थे, लेकिन फिर जांच के तौर तरीके को लेकर सहमति नहीं बन पायी और विपक्ष में फूट पड़ गयी.
ऐसा लगा कि कांग्रेस नेतृत्व अपनी एक जिद के कारण जेपीसी की मांग को लेकर अलग थलग ही पड़ गया. आम आदमी पार्टी जरूर जेपीसी के गठन की मांग दोहराती रही, लेकिन ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट अलग हो गये.
असल में कांग्रेस चाहती थी कि जेपीसी से जांच की मांग कर सरकार पर दबाव बनाया जाये, जबकि टीएमसी और लेफ्ट चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट की कोई कमेटी केस की जांच करे. जेपीसी बनने पर गौतम अदानी को पेशी के लिए बुलाया भी जा सकता था, कांग्रेस को ऐसी उम्मीद रही होगी.
दिल्ली की शराब नीति में गड़बड़ियों को लेकर मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के खिलाफ लड़ाई लड़ रही आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने ट्विटर पर लिखा है - 'आज साबित हो गया मोदी सरकार महाभ्रष्ट भी है और नकारा भी... मोदी जी ने अडानी को बचाने की पूरी कोशिश की संपूर्ण विपक्ष ने JPC की मांग की सरकार नहीं मानी... अब सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा इससे साफ है... मोदी का हाथ भ्रष्ट अडानी के साथ.'
चुनाव आयोग की नियुक्तियों से हटा सरकार का कब्जा
देश में मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी दो आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक पैनल बनाने का आदेश दिया है. ये फैसला सुनाने वाली पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस केएम जोसेफ, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार शामिल हैं.
असल में आईएएस अफसर रहे अरुण गोयल की चुनाव आयुक्त के रूप में हुई नियुक्ति के बाद जब विवाद शुरू हुआ तो सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गयी. 19 नवंबर, 2022 में केंद्र सरकार ने पंजाब कैडर के आईएएस अफसर अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्त किया था. अरुण गोयल 31 दिसंबर, 2022 को रिटायर होने वाले थे, लेकिन वो पहले ही वीआरएस ले लिये - और अगले ही दिन चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिये गये.
अरुण गोयल की नियुक्ति को आधार बना कर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर मांग की गयी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को भी निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से सुनिश्चित किया जा सके, इसलिए कॉलेजियम की ही तरह कोई नया सिस्टम बनाया जाये.
कॉलेजियम सिस्टम जजों की नियुक्ति के लिए बना है. कॉलेजियम में सुप्रीम कोर्ट के ही जज होते हैं, जो जजों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को नाम भेजते हैं. केंद्र की मंजूरी के बाद जजों की नियुक्ति होती है. कॉलेजियम सिस्टम को लेकर लंबे समय से न्यायपालिका और सरकार के बीच बार बार टकराव भी देखा गया है.
अभी तक ये व्यवस्था रही है कि जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सचिव स्तर के सेवारत और रिटायर अफसरों की लिस्ट तैयार होती है. फिर एक पैनल बना कर कुछ नाम तय किये जाते हैं जिसे प्रधानमंत्री के पास भेजा जाता है. पैनल से प्रधानमंत्री किसी एक नाम की सिफारिश करते हैं - और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद नियुक्तु हो जाती है.
चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के अलावा दो चुनाव आयुक्त भी होते हैं. और मुख्य चुनाव आयुक्त के रिटायर होने पर दोनों में से जो सीनियर आयुक्त होते हैं, उनकी जगह ले लेते हैं - आगे से ये व्यवस्था बदलने जा रही है.
अब मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए जो पैनल बनेगा उसमें प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ साथ देश के मुख्य न्यायाधीश भी होंगे - ठीक वैसे ही ही जैसे चीफ जस्टिस और सीबीआई निदेश की नियुक्ति होती है.
नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेम कम हुआ: सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि कार्यपालिका हस्तक्षेप से चुनाव आयोग के कामकाज को अलग करने की जरूरत है. साथ ही, चुनाव आयुक्तों को भी मुख्य चुनाव आयुक्त के बराबर ही सुरक्षा दी जानी चाहिये - और सरकार की तरफ से उनको हटाया भी नहीं जा सकता.
चुनाव आयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका पर भी टिप्पणी की है -
1. संविधान निर्माताओं ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए कानून बनाने का काम संसद के जिम्मे छोड़ दिया था, लेकिन जो भी राजनीतिक व्यवस्था रही, पिछले सात दशक में ऐसा कानून नहीं बनाया गया.
2. चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना चाहिये. अगर वो स्वतंत्र होने का दावा नहीं कर सकता, तो उचित नहीं होगा.
3. एक ईमानदार व्यक्ति आमतौर पर बड़े और शक्तिशाली लोगों से बेधड़क टक्कर लेता है - और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आम आदमी उनकी ओर देखता है.
सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों की तीन खास बातें
1. अदानी-हिंडनबर्ग केस में में सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो विपक्ष के लिए खुशी की बात है - जेपीसी के अलावा जांच के लिए विपक्ष की एक मांग तो यही थी ही.
2. अदानी केस में इस फैसले को एक तरीके से सरकार के खिलाफ भी मान सकते हैं - और उसी नजरिये से देखें तो चुनाव आयोग पर आया फैसला भी सरकार के खिलाफ ही है.
3. चुनाव आयोग पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उसमें एक तरीके से सरकार को जवाब भी दिया है - और ये भी संकेत मिलता है कि कुछ चीजें सभी के लिए नहीं हो सकतीं.
आखिर में एक सहज सवाल भी उठ रहा है. आखिर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसा कोई सिस्टम बनाने का आदेश क्यों नहीं दिया? क्या ब्यूरोक्रेसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट को जजों जैसा भरोसा नहीं है?
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चुनाव आयोग के कामकाज पर संदेह होने लगे तो ढेरों सवाल खड़े हो जाएंगे!
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