अखिलेश यादव ने सीधे-सीधे तो नहीं मगर स्वामी प्रसाद मौर्य के जरिए इस बार यूपी के विधानसभा चुनाव को 85-15 की शक्ल देने की भरपूर कोशिश की है. 'स्वामी स्टंट' से समाजवादी पार्टी के तमाम उमीदवारों की आंखों में उम्मीद की रोशनी है. और उस पत्रकार लॉबी में भी अचानक से उत्साह दिखा जिसे वैचारिक प्रतिबद्धता साबित करने के लिए भाजपा के सामने हमेशा एक 'सॉफ्ट समाजवादी मॉडल' की तलाश रहती है. एक ख़ास जाति वाला ओबीसी चिंतकवर्ग तो कुछ ज्यादा ही उत्साहित है. जबकि दिल्ली से नीचे जमीन पर इस वक्त रोजाना राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं. 'वे' चाहते हैं कि पिछले चुनाव में सपा के सामने बसपा को भले ही भाजपा के बाद सबसे ज्यादा 22.23 प्रतिशत वोट मिले- मगर सभी को मान ही लेना चाहिए कि विधानसभा चुनाव में कुमारी मायावती की बसपा लड़ाई में कहीं भी नहीं है. सपा को 21.82 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था.
उनकी नजर में बसपा कहीं नहीं है, मतलब कहीं नहीं है. सीधी लड़ाई की बात तक तो पहुंचते ही नहीं और इस वक्त देश की चौथी, सबसे बड़ी राष्ट्रीय दल बसपा को महज 'वोट कटुआ' साबित करने पर तुले हैं. जाति जनगणना नहीं होने की वजह से यूपी की आबादी में किसका कितना हिस्सा है, अभी साफ़-साफ़ और पूरे दावे से नहीं बताया जा सकता. जब मैं यह लिख रहा हूं उससे पहले कुछ दलित कार्यकर्ताओं से बातचीत में सामने आया कि जो लोग ओबीसी के बड़े हिस्से 10-12 प्रतिशत यादव मतदाताओं की वजह से मान रहे कि 15-20 प्रतिशत मुलमान सिर्फ भाजपा को हराने और मतों के बिखराव को रोकने के लिए अखिलेश के पीछे ही खड़ा होगा. ठीक उसी तर्क पर उन्हें यह मानने से परहेज हो रहा कि करीब 18-20 प्रतिशत एकमुश्त दलित मतों की वजह से भाजपा को हराने के लिए मुसलमान भी मायावती के पीछे खड़ा हो सकता है.
अखिलेश यादव ने सीधे-सीधे तो नहीं मगर स्वामी प्रसाद मौर्य के जरिए इस बार यूपी के विधानसभा चुनाव को 85-15 की शक्ल देने की भरपूर कोशिश की है. 'स्वामी स्टंट' से समाजवादी पार्टी के तमाम उमीदवारों की आंखों में उम्मीद की रोशनी है. और उस पत्रकार लॉबी में भी अचानक से उत्साह दिखा जिसे वैचारिक प्रतिबद्धता साबित करने के लिए भाजपा के सामने हमेशा एक 'सॉफ्ट समाजवादी मॉडल' की तलाश रहती है. एक ख़ास जाति वाला ओबीसी चिंतकवर्ग तो कुछ ज्यादा ही उत्साहित है. जबकि दिल्ली से नीचे जमीन पर इस वक्त रोजाना राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं. 'वे' चाहते हैं कि पिछले चुनाव में सपा के सामने बसपा को भले ही भाजपा के बाद सबसे ज्यादा 22.23 प्रतिशत वोट मिले- मगर सभी को मान ही लेना चाहिए कि विधानसभा चुनाव में कुमारी मायावती की बसपा लड़ाई में कहीं भी नहीं है. सपा को 21.82 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था.
उनकी नजर में बसपा कहीं नहीं है, मतलब कहीं नहीं है. सीधी लड़ाई की बात तक तो पहुंचते ही नहीं और इस वक्त देश की चौथी, सबसे बड़ी राष्ट्रीय दल बसपा को महज 'वोट कटुआ' साबित करने पर तुले हैं. जाति जनगणना नहीं होने की वजह से यूपी की आबादी में किसका कितना हिस्सा है, अभी साफ़-साफ़ और पूरे दावे से नहीं बताया जा सकता. जब मैं यह लिख रहा हूं उससे पहले कुछ दलित कार्यकर्ताओं से बातचीत में सामने आया कि जो लोग ओबीसी के बड़े हिस्से 10-12 प्रतिशत यादव मतदाताओं की वजह से मान रहे कि 15-20 प्रतिशत मुलमान सिर्फ भाजपा को हराने और मतों के बिखराव को रोकने के लिए अखिलेश के पीछे ही खड़ा होगा. ठीक उसी तर्क पर उन्हें यह मानने से परहेज हो रहा कि करीब 18-20 प्रतिशत एकमुश्त दलित मतों की वजह से भाजपा को हराने के लिए मुसलमान भी मायावती के पीछे खड़ा हो सकता है.
किसके पास कितने ओबीसी?
जबकि तमाम अध्ययनों में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि बसपा के दलित मतों की तुलना में भाजपा ने ओबीसी मतों में कहीं ज्यादा बड़ी सेंध लगाई. और यह भी कि सपा के जन्म के पहले कल्याण सिंह-विनय कटियार-संतोष गंगवार जैसे नेताओं की वजह से भाजपा के पास मंडल के दौर में भी ओबीसी मतों का एक बड़ा हिस्सा हमेशा बना रहा है. तमाम सर्वे का कहना है कि भाजपा के पास ओबीसी का करीब 15 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा लगभग रहा ही है. इसमें वो जातियां भी हैं जिन्हें ओबीसी का दर्जा दे दिया गया मगर अपने सामजिक चरित्र की वजह से वो आज भी खुद को भाजपा के ज्यादा करीब पाती हैं.
क्या इस तथ्य को खारिज किया जा सकता है कि ओबीसी के हिस्से में फिलहाल ऐसी कुछ जातियां हैं (जैसे- जायसवाल-कलवार, गिरी/गोस्वामी आदि) जो सामजिक स्वीकार्यता में ठीक सवर्णों जैसी हैं, लेकिन उन्हें ओबीसी का ओहदा हासिल है. जाट भी लंबे वक्त से ओबीसी आरक्षण में हिस्सा मांग रहे. जातियों की अपनी सामजिक आर्थिक जरूरतों को लेकर यह एक अलग बहस का विषय है.
फैलाया जा रहा डोमिनेंट ओबीसी प्रोपगेंडा, निशाने पर मायावती
दलित कार्यकर्ता कहते हैं- "यूपी की असल हकीकत यह है कि मुसलमान और ब्राह्मणों के अलावा दलित ही एक ऐसा मतदाता वर्ग है जो सबसे ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में सबसे ज्यादा प्रभावशाली है. राजनीतिक रूप से इस वक्त बाकी की जो जातियां अहम बताई जा रही वो महज 'इलाकाई' भर हैं. यहां तक कि यादवों को भी प्रदेश की सभी सीटों पर निर्णायक नहीं माना जा सकता. मुसलमानों की सबसे ज्यादा आबादी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है. यहां सैद्धांतिक रूप से मुस्लिम-यादव समीकरण की तुलना में मुस्लिम-दलित समीकरण कहीं ज्यादा ठोस और निर्णायक दिखता है.
दलित कार्यकर्ता कुश अंबेडकरवादी कहते हैं- "कम से कम कागज़ पर तो ऐसा ही है, लेकिन यह लोगों को क्यों नहीं दिख रहा." बामसेफ के जमाने के दलित एक्टिविस्ट लाल बहादुर कहते है- "इस बार मुस्लिम यादव का विस्तार कर मुस्लिम-ओबीसी गठजोड़ की हवा बनाई जा रही जो असल में दलितों की राजनीति को कमजोर करने के लिए मायवती के खिलाफ बड़ा दुष्प्रचार है."
इलाकाई ओबीसी जातियां बसपा का भी आधार
दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि यहां 'इलाकाई ओबीसी' जातियां कई दलों में हमेशा से बंटी रही हैं. बावजूद बसपा के पास पहले से ही इनका बहुत बड़ा हिस्सा रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव तक भाजपा से मुकाबले में यह गठजोड़ दिखा भले ही वो व्यापक नहीं बन पाया. ब्राह्मण-मुस्लिम समेत मायावती को 'सर्वसमाज' के साथ इसी गठजोड़ पर भरोसा है और इस बार पहले चरण के लिए 53 उम्मीदवारों की बसपा की लिस्ट में समीकरण साफ़ झलक रहा.
क्या इसे खारिज किया जा सकता कि दलित विधानसभा चुनावों में बसपा के साथ नहीं रहे. जातीय आधार के टिकट समीकरण को छोड़ दिया जाए तो दलित मतदाताओं ने हमेशा सपा से राजनीतिक दूरी बनाकर ही रखी. दलित कार्यकर्ता कुश अंबेडकरवादी कहते हैं- "बागपत, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर जैसे पश्चिम के इलाकों में जब दलितों की आबादी यादवों से ज्यादा और बसपा का भरोसेमंद रहा है. लेकिन यहां भी दलितों के साथ मुस्लिमों की बजाय यादव प्लस-मुस्लिम गठजोड़ का भ्रम बनाने की कोशिश जारी है. साधन संपन्न पार्टियां प्रोपगेंडा कर रही हैं."
सपा और दलितों के बीच अब तक नहीं टूट पाई ऐतिहासिक दीवार
कुश अंबेडकरवादी कहते हैं- "मध्य यूपी से पूर्वांचल तक जिन इलाकों में यादव जातियों का प्रभुत्व है- वहां दलितों के साथ-साथ कई पिछड़ी जातियों के साथ उनका टकराव वैसे ही बदतर है जैसे प्रदेश के दूसरे सवर्ण बहुल इलाकों में. बल्कि कुछ मायनों में उससे भी कहीं ज्यादा. दलितों के साथ कई पिछड़ी जातियां इसी वजह से सपा की तुलना में बसपा के साथ रहीं." वैसे यह तथ्य है कि मंडल के बाद सपा-बसपा ऐतिहासिक रूप से करीब आए और मुलायम ने सत्ता भी हथियाई. लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकाता कि 'गेस्ट हाउस कांड' ने 'यादव और दलितों' के बीच जो दीवार खड़ी की वह बहुत साल बाद अखिलेश-मायावती की कोशिशों के बावजूद 'सामजिक वजहों' से जमीन पर कामयाब नहीं हो पाई.
अब सवाल है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के 85 प्रतिशत में कितने दलित हैं और कितनी इलाकाई ओबीसी जातियां. ऐसा मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि उनका नारा व्यावहारिक रूप से सटीक नहीं है. वह भी तब जब ओबीसी का एक हिस्सा भाजपा के साथ है, एक हिस्सा बसपा के साथ है और अभी भी एक बड़ा हिस्सा ऐसे छोटे-छोटे दलों के साथ है जिनपर शायद बड़ी पार्टियों की नजर ही नहीं गई है. इसमें भी एक बड़ा हिस्सा उनका है जो सपा और भाजपा के साथ उनके गठबंधन सहयोगी के रूप में हैं. आज के संदर्भ में 85 प्रतिशत हिस्सेदारी का नारा सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से सही नजर नहीं आता.
उत्तर प्रदेश में करीब-करीब एक दर्जन राजनीतिक दल हैं जो अलग-अलग जातियों को अधिकार दिलाने के नाम पर बनाए गए. ज्यादातर पिछड़ी जातियों की पार्टियां हैं और इनके नेताओं का आरोप है कि उन्हें ओबीसी तबके में ही उतना हिस्सा नहीं मिला जितने के वे हकदार थे. सैद्धांतिक रूप से पिछड़ी जातियों के आधार पर बने ये तमाम दल किसके सामने राजनीतिक चुनौती पेश कर रहे हैं? क्या वह अखिलेश यादव ही तो नहीं हैं? भाजपा ने 'गैर यादव ओबीसी' का नारा और मायावती ने 'गैर ठाकुर सवर्ण' का नारा देकर यूं ही सत्ता नहीं हथियाई थी. 85:15 व्यावहारिक होता तो स्वामी की बजाय ऐलान अखिलेश करते और वह मायावती की नक़ल में 'डोमिनेंट फारवर्ड' ब्राह्मण को पुचकारते नहीं दिखते.
85 में बहुत सारी पिछड़ी जातियां अखिलेश के पीछे नहीं दिखतीं. बसपा समर्थकों की मानें तो दलित हैं ही नहीं. और आज की तारीख में व्यावहारिक रूप से संभव भी नहीं है. ये दूसरी बात है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक सनसनी जरूर पैदा कर दी है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.