बिहार का चुनाव (Bihar Assembly Election) हो गया. जनता का आदेश अब हर दल और गठबंधन के सर माथे है. प्रथम चरण के चुनाव से लेकर और एक्जिट पोल (Bihar Exit Polls) के नतीजों तक जो सत्ता विरोधी लहर का अनुमान लगाया जा रहा था उसने अपना असर तो दिखाया तो लेकिन उसके बावजूद नीतीश (Nitish Kumar) रिकॉर्ड 7 वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे है. लेकिन जिस तरह की बातें चुनावी विश्लेषक और मीडिया संस्थानों में हो रही थी और कयास लगाए जा रहे उसके अनुसार राजद की अगुवाई वाली गठबंधन की हार ने सब को चौंकाया जरूर. हालांकि इस तरह की नज़दीकी लड़ाई में जहां दोनों गठबंधन में अंतर महज 15 सीटों का हो और कई सीटों में जीत कुछ वोटों के अंतर से हो तो इसे भाग्य की विडंबना ही कहकर या विपक्षी दल द्वारा ईवीएम को दोष देकर संतोष कर लिया जाता है. लेकिन जिस बात पर इस लेख में मैं बात करना चाह रहा हूं वह सिर्फ राजद और तेजस्वी यादव की हार की ही नहीं बल्कि उस बदले वोटिंग पैटर्न की है जो अब किसी भी राज्य में कोई भी दल भांप नहीं पा रहा है.
वैसे बिहार चुनाव के अन्तिम परिणाम में तेजस्वी यादव का राजद 75 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल है लेकिन महागठबंधन की हार हो चुकी है. दूसरे स्थान पर भाजपा 74 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी है लेकिन एनडीए की पूर्व घोषणा के अनुरूप 43 सीट वाली उनकी सहयोगी पार्टी जदयू के नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे. यही जनादेश कुलमिलाकर बिहार की व्यथा भी है और अंतर्कथा भी है. यानि सबसे बड़ा दल विपक्ष में बैठेगा, दूसरा सबसे बड़ा दल सहयोगी की भूमिका में और तीसरे दल का व्यक्ति मुख्यमंत्री बनेगा.
तो यह जनादेश क्या बिहार ने जानबूझकर दिया? लोगों में वर्तमान सत्ता के प्रति...
बिहार का चुनाव (Bihar Assembly Election) हो गया. जनता का आदेश अब हर दल और गठबंधन के सर माथे है. प्रथम चरण के चुनाव से लेकर और एक्जिट पोल (Bihar Exit Polls) के नतीजों तक जो सत्ता विरोधी लहर का अनुमान लगाया जा रहा था उसने अपना असर तो दिखाया तो लेकिन उसके बावजूद नीतीश (Nitish Kumar) रिकॉर्ड 7 वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे है. लेकिन जिस तरह की बातें चुनावी विश्लेषक और मीडिया संस्थानों में हो रही थी और कयास लगाए जा रहे उसके अनुसार राजद की अगुवाई वाली गठबंधन की हार ने सब को चौंकाया जरूर. हालांकि इस तरह की नज़दीकी लड़ाई में जहां दोनों गठबंधन में अंतर महज 15 सीटों का हो और कई सीटों में जीत कुछ वोटों के अंतर से हो तो इसे भाग्य की विडंबना ही कहकर या विपक्षी दल द्वारा ईवीएम को दोष देकर संतोष कर लिया जाता है. लेकिन जिस बात पर इस लेख में मैं बात करना चाह रहा हूं वह सिर्फ राजद और तेजस्वी यादव की हार की ही नहीं बल्कि उस बदले वोटिंग पैटर्न की है जो अब किसी भी राज्य में कोई भी दल भांप नहीं पा रहा है.
वैसे बिहार चुनाव के अन्तिम परिणाम में तेजस्वी यादव का राजद 75 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल है लेकिन महागठबंधन की हार हो चुकी है. दूसरे स्थान पर भाजपा 74 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी है लेकिन एनडीए की पूर्व घोषणा के अनुरूप 43 सीट वाली उनकी सहयोगी पार्टी जदयू के नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे. यही जनादेश कुलमिलाकर बिहार की व्यथा भी है और अंतर्कथा भी है. यानि सबसे बड़ा दल विपक्ष में बैठेगा, दूसरा सबसे बड़ा दल सहयोगी की भूमिका में और तीसरे दल का व्यक्ति मुख्यमंत्री बनेगा.
तो यह जनादेश क्या बिहार ने जानबूझकर दिया? लोगों में वर्तमान सत्ता के प्रति यदि आक्रोश और असंतोष था तो जनता ने समूचे एनडीए को क्यों नहीं हराया. क्यों और कैसे भाजपा जदयू से ज्यादा सीटें जीती ? तेजस्वी की अगुवाई में विपक्ष का महागठबंधन क्यों इस आक्रोश और असंतोष को भुनाने में असफल रहा? इन प्रश्नों के जवाब में कल से अब तक कई तथ्य और दृष्टिकोण विद्वानों ने रखे है. इसमें सबसे ज्यादा चर्चा महागठबंधन में 70 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस का निराशाजनक प्रदर्शन पर सब विश्लेषण पर आकर रुक जा रहा है.
यकीनन अगर कांग्रेस ने 20 सीटों पर विजय प्राप्त की होती तो आज तेजस्वी सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने जा रहे होते. ख़ैर इस कारण के अतिरिक्त वोटिंग के जिस बदले पैटर्न की बात कर रहा था उसके पीछे एक संभावित करना यह भी है कि एनडीए कहीं न कहीं इस मामले में जनता का भरोसा पाने में सफल रही कि लालू के शासन को भी जनता ने देखा था.
भले ही तेजस्वी उस समय बच्चे रहे हो पर जनता के एक वर्ग में लालू राबड़ी के कथित कुशासन की छवि अभी भी बनी थी. साथ ही वंशवाद के जिस जिन्न से राहुल गांधी जूझ रहे है वहीं संभवतः वही जिन्न तेजस्वी की राजनीति के पीछे पड़ गया है. एक अल्पकाल के उप मुख्यमंत्री के कार्यकाल और लालू पुत्र होने के अलावा तेजस्वी की कौन सी पहचान है. जबकि उनके पिता के पास इमरजेंसी से लेकर सामाजिक आंदोलन की एक व्यापक पहचान और अनुभव था.
यह अलग बात है कि बाद ने समाजवादी आंदोलन की जिस धारा को लालू ने आगे बढ़ाया वह जाति विशेष के तुष्टिकरण और भ्रष्ट शासन के आरोपों से घिर गया. कहने का मतलब यही है कि तेजस्वी के लिए पिता लालू और मां राबड़ी का पिछला शासनकाल ही ले दे कर एकमात्र पहचान है. शायद यह भी कारण रहा हो जिसके कारण बिहार की जनता अंत तक हिचकते हुए विकल्प के अभाव में फिर से एनडीए में अपना भरोसा जताया हो.
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