पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जो नतीजे सामने आए वो चौंकाने वाले थे. इन नतीजों में अगर सबसे ज्यादा किसी नतीजे ने आश्चर्य में डाला तो वो तेलंगाना का नतीजा था. चुनाव से पहले जिस जिसने भी केसीआर को हल्के में लिया इन परिणामों के बाद मत भिन्न हुए होंगे. तेलंगाना की 119 सीटों में दो तिहाई बहुमत लाना और 85 सीटों पर अपनी दावेदारी ठोंककर टीआरएस सुप्रीमो के चन्द्रशेखर राव ने इस बात का एहसास करा दिया है कि 2019 में जहां एक तरफ वो महागठबंधन के मजबूत स्तम्भ होंगे. तो वहीं कहीं न कहीं पीएम मोदी भी उनकी इस जीत के बाद ये मान गए होंगे कि भविष्य में केसीआर उनके लिए मुसीबत खड़ी करने की पूरी सामर्थ्य रखते हैं.
ध्यान रहे कि 2014 में नया राज्य बनने के बाद तेलंगाना का यह पहला चुनाव था. जहां 70 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. बात अगर तेलंगाना की राजनीति पर हो तो मिलता है कि कांग्रेस, टीडीपी, टीजेएस और सीपीआई ने केसीआर को हराने के लिए एक गठबंधन किया जिसका नाम महाकुतामी रखा गया. वहीं बीजेपी ने अकेले चुनाव तो लड़ा मगर कुछ विशेष न कर पाई. चूंकि एक बार फिर केसीआर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले हैं. तो हमारे लिए भी उन कारणों पर प्रकाश डालना बहुत जरूरी है, जो यदि न होते तो शायद हम के चंद्रशेखर राव की ये ऐतिहासिक जीत न देख पाते.
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महाकुतामी गठबंधन को चुनाव से पहले इस बात का पूरा एहसास था कि 2014 के विधानसभा चुनावों की तरह ये चुनाव उन्हें एक बार फिर फायदा देगा. बात अगर 2014 में हुए उस चुनाव की हो तो तब महाकुतामी गठबंधन को कुल मतों का 40.1 प्रतिशत मत पड़ा था. वहीं के चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस को...
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जो नतीजे सामने आए वो चौंकाने वाले थे. इन नतीजों में अगर सबसे ज्यादा किसी नतीजे ने आश्चर्य में डाला तो वो तेलंगाना का नतीजा था. चुनाव से पहले जिस जिसने भी केसीआर को हल्के में लिया इन परिणामों के बाद मत भिन्न हुए होंगे. तेलंगाना की 119 सीटों में दो तिहाई बहुमत लाना और 85 सीटों पर अपनी दावेदारी ठोंककर टीआरएस सुप्रीमो के चन्द्रशेखर राव ने इस बात का एहसास करा दिया है कि 2019 में जहां एक तरफ वो महागठबंधन के मजबूत स्तम्भ होंगे. तो वहीं कहीं न कहीं पीएम मोदी भी उनकी इस जीत के बाद ये मान गए होंगे कि भविष्य में केसीआर उनके लिए मुसीबत खड़ी करने की पूरी सामर्थ्य रखते हैं.
ध्यान रहे कि 2014 में नया राज्य बनने के बाद तेलंगाना का यह पहला चुनाव था. जहां 70 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. बात अगर तेलंगाना की राजनीति पर हो तो मिलता है कि कांग्रेस, टीडीपी, टीजेएस और सीपीआई ने केसीआर को हराने के लिए एक गठबंधन किया जिसका नाम महाकुतामी रखा गया. वहीं बीजेपी ने अकेले चुनाव तो लड़ा मगर कुछ विशेष न कर पाई. चूंकि एक बार फिर केसीआर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले हैं. तो हमारे लिए भी उन कारणों पर प्रकाश डालना बहुत जरूरी है, जो यदि न होते तो शायद हम के चंद्रशेखर राव की ये ऐतिहासिक जीत न देख पाते.
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महाकुतामी गठबंधन को चुनाव से पहले इस बात का पूरा एहसास था कि 2014 के विधानसभा चुनावों की तरह ये चुनाव उन्हें एक बार फिर फायदा देगा. बात अगर 2014 में हुए उस चुनाव की हो तो तब महाकुतामी गठबंधन को कुल मतों का 40.1 प्रतिशत मत पड़ा था. वहीं के चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस को 34 प्रतिशत वोट शेयर के साथ संतोष करना पड़ा था. उस चुनाव की देखादेखी इस बार भी गठबंधन को महसूस हुआ कि वो केसीआर की आंधी को रोकने में नाकाम होंगे मगर हुआ इसका ठीक विपरीत.
केसीआर की पार्टी का राज्य की 85 सीटों पर जीत दर्ज करना ये बता देता है कि राज्य की जनता को महाकुतामी गठबंधन का खेल समझ आ गया और उन्होंने सही समय पर केसीआर का साथ दिया. के चंद्रशेखर राव की सफलता देखकर कहा जा सकता है कि न सिर्फ उन्होंने अन्य दलों के वोट अपने पाले में किये बल्कि वो अपने ट्रेडिशनल वोट बैंक को भी खुश करने में कामयाब हुए.
केसीआर ने नजरिये का युद्ध जीता
महाकुतामी गठबंधन की अगुवाही कांग्रेस ने की थी. चुनाव से पहले केसीआर के खिलाफ कुछ इस तरह का महाल तैयार किया गया था कि आलोचकों को लगा कि केसीआर का सारा फोकस कांग्रेस पर रहेगा. यही पर केसीआर ने बड़ा दाव खेला और उन्होंने अपने आलोचकों को ये बताने का प्रयास किया कि उनका मुकाबला कांग्रेस से नहीं बल्कि टीडीपी से है. जिस तरह उन्होंने कांग्रेस को खारिज किया साफ बता चल गया था कि तेलंगाना में मुकाबला केसीआर बनाम चंद्रबाबू नायडू है.
कांग्रेस ने इस चीज का पूरा फायदा उठाया और महाकुतामी गठबंधन की कमान चंद्रबाबू के हाथों में सौंप दी. दिलचस्प बात ये है कि ये खुद केसीआर के द्वारा बिछाया गया एक जाल था जिसका अंदाजा न तो कांग्रेस को था और न ही चंद्रबाबू नायडू को. चूंकि कांग्रेस और चंद्रबाबू दोनों ही केसीआर के चक्र में उलझ गए थे केसीआर ने इसका भरपूर फायदा उठाया और लोगों को बताया कि चंद्रबाबू आंध्र प्रदेश के नहीं बल्कि कांग्रेस के साथ हैं. नतीजा हमारे सामने हैं.
कांग्रेस की चूक
बात 2014 की है. नए नए राज्य तेलंगाना का गठन हुआ था. और साथ ही नए राज्य के साथ राजनीति की भी शुरुआत हो गई थी. तेलंगाना दो दलों के लिए फायदेमंद रहा. एक टीआरएस जो इस राज्य के बनने के लिए लगातार संघर्ष कर रही थी. तो दूसरी कांग्रेस क्योंकि राज्य के निर्माण की स्वीकृति कांग्रेस ने ही दी थी. उसके बाद जब चुनाव हुए तो टीआरएस 63 सीटें जीतने में कामयाब हुई.
वो 2014 था, ये 2018 है. तब के हालात कुछ और थे वर्तमान स्थिति कुछ और है. 2018 में तेलंगाना में टीआरएस की हैसियत एक विजेता की है. तेलंगाना में कांग्रेस क्यों कामयाब है इसकी एक बड़ी वजह वो विश्वास है जो कांग्रेस यहां खो चुकी है. कांग्रेस का टीडीपी के साथ मिलना लोगों को नागवार गुजरा साथ ही सवाल भी हुए कि आखिर कांग्रेस कैसे एक दुश्मन को गले लगा सकती है.
दलित, ओबीसी वोट बैंक का साथ
के चंद्रशेखर राव की लाख आलोचना हो मगर इस बात को नकारना एक बड़ी भूल होगी कि तेलंगाना में उनकी भूमिका एक जननायक की है. केसीआर के बारे में एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि उन्होंने शहरी वोटरों के मुकाबले उन वोटरों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो तंगहाली का जीवन जी रहे थे. केसीआर ने राज्य के दलित और ओबीसी वोटर का भरपूर ख्याल रखा.
किसानों की समस्याएं सुनी और उनका निवारण किया. नतीजा ये निकला कि जो वोट उन्हें मिले उनका एक बड़ा प्रतिशत इन तबको से था.
अब चूंकि केसीआर एक ऐतिहासिक जीत दर्ज कर चुके हैं तो हमारे लिए भी ये देखना खासा दिलचस्प रहेगा कि तेलंगाना के लिए उनकी डिलीवरी कैसी रहती है? क्या वो अपना वादा पूरा करेंगे या उनकी बात भी एक चुनावी जुमला रहेगी ? साथ ही 2019 में उनकी भूमिका क्या रहेगी, वो कितनी महत्वपूर्ण होगी ये भी एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब अभी वक़्त की तह में छुपा है.
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