दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी कैबिनेट के सहयोगियों द्वारा उपराज्यपाल के कार्यालय में धरना देने के एक हफ्ते से ज्यादा हो गए. पिछले सोमवार को विधानसभा में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया. इसके बाद केजरीवाल और उनके सहयोगी आईएएस अधिकारियों द्वारा कथित हड़ताल के मामले में हस्तक्षेप की मांग लेकर एलजी अनिल बैजल के ऑफिस गए. लेकिन उपराज्यपाल उनसे मिलने को तैयार नहीं है. इसलिए तब से वो सभी उपराज्यपाल के ऑफिस में ही धरने पर बैठ गए हैं.
वैसे तो ऐसे धरने और आंदोलन केजरीवाल के लिए नए नहीं हैं. लेकिन ताजा विवाद दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर आम आदमी पार्टी के विधायकों द्वारा हमले के कारण शुरु हुआ. हालांकि यह मामला अभी न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है और धारा 364 (मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान) के तहत मुख्यमंत्री के सलाहकार का बयान भी मुख्य सचिव के आरोप की तस्दीक करते हैं. इस लिहाज से कोर्ट के लिए इस पर फैसला लेना सिर्फ एक औपचारिकता है. उसके बाद केजरीवाल द्वारा अपने विधायक की गलती पर मुख्य सचिव से माफी न मांगने के कारण मामला और भी खराब हो गया. बल्कि आम आदमी पार्टी तो ये दावा कर रही थी कि ये पूरा मामला ही झूठा है.
इसके बाद तीन आईएएस अधिकारियों के संघों ने एक लिखित प्रस्ताव पारित कर घोषणा की कि जब तक केजरीवाल माफ़ी नहीं मांगते तब तक सरकार से वो लोग लिखित संवाद ही करेंगे. इसके साथ ही वो लोग हर रोज लंच के पहले पांच मिनट की चुप्पी साधकर अपना विरोध दर्ज कराते हैं. और साथ ही ये भी कहा गया कि किसी भी राजनीतिक अधिकारी के न ही वो घर पर जाएंगे और न ही कैंप ऑफिस में जाएंगे.
रविवार (17 जून) को, आईएएस एसोसिएशन ने एक अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस...
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी कैबिनेट के सहयोगियों द्वारा उपराज्यपाल के कार्यालय में धरना देने के एक हफ्ते से ज्यादा हो गए. पिछले सोमवार को विधानसभा में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया. इसके बाद केजरीवाल और उनके सहयोगी आईएएस अधिकारियों द्वारा कथित हड़ताल के मामले में हस्तक्षेप की मांग लेकर एलजी अनिल बैजल के ऑफिस गए. लेकिन उपराज्यपाल उनसे मिलने को तैयार नहीं है. इसलिए तब से वो सभी उपराज्यपाल के ऑफिस में ही धरने पर बैठ गए हैं.
वैसे तो ऐसे धरने और आंदोलन केजरीवाल के लिए नए नहीं हैं. लेकिन ताजा विवाद दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर आम आदमी पार्टी के विधायकों द्वारा हमले के कारण शुरु हुआ. हालांकि यह मामला अभी न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है और धारा 364 (मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान) के तहत मुख्यमंत्री के सलाहकार का बयान भी मुख्य सचिव के आरोप की तस्दीक करते हैं. इस लिहाज से कोर्ट के लिए इस पर फैसला लेना सिर्फ एक औपचारिकता है. उसके बाद केजरीवाल द्वारा अपने विधायक की गलती पर मुख्य सचिव से माफी न मांगने के कारण मामला और भी खराब हो गया. बल्कि आम आदमी पार्टी तो ये दावा कर रही थी कि ये पूरा मामला ही झूठा है.
इसके बाद तीन आईएएस अधिकारियों के संघों ने एक लिखित प्रस्ताव पारित कर घोषणा की कि जब तक केजरीवाल माफ़ी नहीं मांगते तब तक सरकार से वो लोग लिखित संवाद ही करेंगे. इसके साथ ही वो लोग हर रोज लंच के पहले पांच मिनट की चुप्पी साधकर अपना विरोध दर्ज कराते हैं. और साथ ही ये भी कहा गया कि किसी भी राजनीतिक अधिकारी के न ही वो घर पर जाएंगे और न ही कैंप ऑफिस में जाएंगे.
रविवार (17 जून) को, आईएएस एसोसिएशन ने एक अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित किया जिसमें उन्होंने दिल्ली सरकार द्वारा उनके अप्रत्यक्ष हड़ताल के आरोपों को खारिज किया और कहा कि सारे ब्योरोक्रेट सामान्य रूप से काम कर रह हैं. इसके बाद मुख्यमंत्री ने रविवार शाम को सभी आईएएस अधिकारियों से काम पर वापस आने की अपील की और उन्हें पूरी सुरक्षा का भरोसा भी दिलाया.
केजरीवाल ने इस पोस्ट में लिखा-
मुझे कहा गया कि आईएएस ऑफिसर एसोशियसन ने आज प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी सुरक्षा के लिए चिंता जाहिर की है.
मैं उनको इस बात का भरोसा देना चाहता हूं कि मेरे पास जितनी भी शक्ति है और जितने भी संसाधन हैं उनके जरिए आपकी सुरक्षा मैं सुनिश्चित करुंगा. ये मेरी ड्यूटी है. ये भरोसा आपके पहले जो भी अधिकारी मुझसे अकेले में मिलने आए मैंने उन्हें दिया है. मैं फिर से इसे दोहरा रहा हूं.
अधिकारी मेरे परिवार का अंग हैं. मैं उनसे एक चुनी हुई सरकार का बायकॉट बंद करने की गुजारिश करता हूं. वो तुरंत काम पर वापस आएं और मंत्रियों की मीटिंग में शामिल हों, उनके फोन और मैसेज का जवाब दें. फील्ड इंस्पेक्शन पर उनके साथ जाएं. उन्हें बिना किसी डर और दबाव के काम करना चाहिए. उन्हें राज्य सरकार, केंद्र सरकार या किसी भी राजनीतिक पार्टी के भी दबाव में नहीं आना चाहिए.
इसका सीधा मतलब ये निकाला जा सकता है कि मुख्य सचिव के साथ कथित तौर पर हाथापाई की घटना के बाद मुख्यमंत्री ने अपने ब्योरोक्रेट्स के साथ लेकर चलने और उनके साथ तन्मयता बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की. ये एक ऐसी घटना थी जिसे टाला जा सकता है. जब केजरीवाल ने ये दावा किया कि नौकरशाहों को अपनी प्रतीकात्मक हड़ताल जारी रखने के केंद्र सरकार द्वारा प्रेरित किया जा रहा है, तो उन्होंने इसे एक राजनीतिक लड़ाई बनाने का ठान लिया था. हालांकि आम आदमी पार्टी के विरोध को लोगों खासकर मध्यम वर्ग से कोई खास समर्थन नहीं मिल रहा है. लेकिन फिर भी वो अपने इस विरोध पर टिके हैं. अरुण जेटली और दूसरे नेताओं द्वारा मानहानि के दावों के बाद उनसे माफी मांगने के कारण केजरीवाल की छवि को बहुत धक्का लगा था. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस विरोध प्रदर्शन के जरिए केजरीवाल आम जनता के बीच अपनी वो विश्वसनीयता वापस लाना चाहते हैं.
आगे क्या-
हालांकि यह सच है कि केंद्र की बीजेपी सरकार ने दिल्ली में आप सरकार के नाक में दम कर रखा है. और अदालत द्वारा दिल्ली सरकार के आरोपों को खारिज करने से भी आम आदमी पार्टी के लिए भी संकट की स्थिति खड़ी हो गई. 21 मई, 2015 को केजरीवाल सरकार के बनने के तीन महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की जिसने एलजी को नौकरशाहों के स्थानान्तरण और पोस्टिंग का विशेष अधिकार दे दिया. इसके बाद उच्च न्यायालय में आम आदमी पार्टी द्वारा कई याचिकाएं और आदेश के खिलाफ हो हल्ले का दौर चला.
हालांकि, अगस्त 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया जिसने एक बार फिर केजरीवाल को झटका दिया. दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य केवल एक संघ शासित प्रदेश है और मुख्यमंत्री और कैबिनेट कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते हैं. यहां तक कि उन मामलों पर भी एलजी की सहमति के बिना कोई फैसला नहीं ले सकते जहां विधानसभा के पास कानून बनाने की शक्ति है. इसके बाद आम आदमी पार्टी के पास कानून बनाने का तो अधिकार था पर उसे लागू कराने का कोई अधिकार नहीं था.
हाईकोर्ट के आदेश में यह भी कहा गया कि केजरीवाल द्वारा स्थापित किए गए कई पूछताछ आयोग भी अवैध थे. ये भी एक बड़ा झटका था लेकिन गोपाल सुब्रमनीयन की अध्यक्षता में केजरीवाल सरकार ने अरुण जेटली से जुड़े डीडीसीए घोटाले की जांच के लिए एक सदस्यिय कमिटि गठित की थी. इस आदेश के बाद ये कमिटि भी स्थगित हो गई. इसी इंक्वायरी कमीशन के बल पर केजरीवाल ने अरुण जेटली के मानहानि के आरोपों का सामना किया था. लेकिन जब उन्हें लगा कि इस कमीशन के स्थगित होने के बाद अब उन्हें जेल पड़ सकता है तो उन्होंने चुपचाप विनम्रता पूर्वक माफी मांग ली.
ये विरोध एक ऐसे समय में हो रहा है जब संवैधानिक पीठ के फैसले का इंतजार है. ये केजरीवाल सरकार की अधीरता या फिर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश को दर्शाता है. अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है. और एलजी के कार्यालय में उनके इस धरना प्रदर्शन से केंद्र सरकार या फिर अदालत को कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला.
विपक्षी एकता और कांग्रेस की प्रतिक्रिया
आप के विरोध का समर्थन करने वाले के लिए बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सामने आया. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल एंड टीम से अपनी एकजुटता व्यक्त की. दिल्ली में मुख्यमंत्रियों द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस ने केजरीवाल के विरोध को जनता के बीच स्थापित कर दिया और लोगों की नजरों में ला दिया.
हर कोई यही सवाल पूछ रहा है कि आखिर क्यों कांग्रेस ने केजरीवाल का समर्थन नहीं किया है. कुछ लोगों ने दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अजय माकन को इसके लिए दोषी ठहराया. भले ही उन्होंने माकन को दोषी ठहराने के चक्कर में राहुल गांधी द्वारा इस विरोध पर ध्यान न देने को अनदेखा कर दिया. सवाल यह है कि विपक्षी एकता को हमेशा कांग्रेस की सुविधा के अनुसार ही को देखा जाता है? वैसे, लोगों को जल्दी भूलने की आदत है. नहीं तो क्या किसी को भी याद है कि 2013 में जब कांग्रेस बहुमत से चूक गई थी तो कैसे तुरंत उसने आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया था? क्या कोई अन्य इस तरह अपमानित करने वाली पार्टी को बिना शर्त समर्थन देगी?
अभी के लिए बात बस ये है कि केजरीवाल द्वारा माफी मांगने से ही काम बन सकते हैं. आखिर आप के इस खुद खड़े किए गए संकट के लिए कोई दूसरा उनके समर्थन में क्यों खड़ा हो? कांग्रेस में कई गलतियां हैं. लेकिन फिर भी इसे क्षेत्रीय दलों के कहने में आकर भाजपा के साथ सीधी टक्कर नहीं लेनी चाहिए.
जो भी उदार बुद्धिजिवी आम आदमी का समर्थन कर रहे हैं उनके लिए आगे एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा है. और जिसका जवाब आम आदमी पार्टी को देना होगा. केजरीवाल द्वारा विधानसभा में ये कहने का मतलब क्या था कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाता है तो वो 2019 के चुनावों में भाजपा के लिए प्रचार करेंगे? निश्चित रूप से ये बिना सोचे नहीं बोला गया था. और तब विपक्षी एकता कहां गई थी?
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