भारत एक बहुरंगी मुल्क है और आज उसकी यही सबसे बड़ी ताकत निशाने पर है. पिछले कुछ सालों से इस देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समूह के वजूद को नकारने और उनकी वैधता पर सवाल खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. इसी संदर्भ में इस साल के शुरुआत में वरिष्ठ पत्रकार सईद नकवी की एक किताब आई है 'द मुस्लिम वैनिशेस'. यह किताब मूलतः एक काल्पनिक व्यंग्य नाटक है. सईद नकवी इस व्यंग्य नाटक के माध्यम से भारत की मौजूदा राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कई महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं जो काल्पनिक नहीं बल्कि असली हैं. सवाल यह है कि क्या 'मुस्लिम मुक्त' भारत एक मज़बूत भारत साबित होगा? और क्या दो समुदायों के बीच सदियों के दौरान पली-बढ़ी साझी विरासत और धरोहर को इतनी आसानी से मिटाया जा सकता है? 'द मुस्लिम वैनिशेस' एक सरल लेकिन प्रभावशाली कहानी है जो देश के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में आगे बढ़ती है. किताब की शुरुआत इस खबर के साथ होती है कि एक रोज अचानक भारत की पूरी मुस्लिम आबादी देश से गायब हो जाती है और अब यहाँ उनका कोई नामो-निशान नहीं बचा है सिवाय उनके द्वारा छोड़ी गई संपत्तियों और व्यवसायों के. यहां तक की वे अपने साथ कुतुब मीनार, बिरयानी, उर्दू भाषा भी लेकर चले गये हैं. इसके बाद पूरे देश में अराजकता का माहौल है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है.
अचानक हुई इस घटना से उबरने के बाद लोगों का ध्यान मुसलमानों द्वारा छोड़ी गयी जमीन, संपत्तियों और उनके कारोबार की तरफ जाता है. लोग आपस में मिलकर योजना बनाते है कि कैसे इस अरबों की संपत्ति को बांट कर मुस्लिम-मुक्त भारत का लाभ उठाया जाये. लेकिन यह मसला इतना आसान भी नहीं है,...
भारत एक बहुरंगी मुल्क है और आज उसकी यही सबसे बड़ी ताकत निशाने पर है. पिछले कुछ सालों से इस देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समूह के वजूद को नकारने और उनकी वैधता पर सवाल खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. इसी संदर्भ में इस साल के शुरुआत में वरिष्ठ पत्रकार सईद नकवी की एक किताब आई है 'द मुस्लिम वैनिशेस'. यह किताब मूलतः एक काल्पनिक व्यंग्य नाटक है. सईद नकवी इस व्यंग्य नाटक के माध्यम से भारत की मौजूदा राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कई महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं जो काल्पनिक नहीं बल्कि असली हैं. सवाल यह है कि क्या 'मुस्लिम मुक्त' भारत एक मज़बूत भारत साबित होगा? और क्या दो समुदायों के बीच सदियों के दौरान पली-बढ़ी साझी विरासत और धरोहर को इतनी आसानी से मिटाया जा सकता है? 'द मुस्लिम वैनिशेस' एक सरल लेकिन प्रभावशाली कहानी है जो देश के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में आगे बढ़ती है. किताब की शुरुआत इस खबर के साथ होती है कि एक रोज अचानक भारत की पूरी मुस्लिम आबादी देश से गायब हो जाती है और अब यहाँ उनका कोई नामो-निशान नहीं बचा है सिवाय उनके द्वारा छोड़ी गई संपत्तियों और व्यवसायों के. यहां तक की वे अपने साथ कुतुब मीनार, बिरयानी, उर्दू भाषा भी लेकर चले गये हैं. इसके बाद पूरे देश में अराजकता का माहौल है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है.
अचानक हुई इस घटना से उबरने के बाद लोगों का ध्यान मुसलमानों द्वारा छोड़ी गयी जमीन, संपत्तियों और उनके कारोबार की तरफ जाता है. लोग आपस में मिलकर योजना बनाते है कि कैसे इस अरबों की संपत्ति को बांट कर मुस्लिम-मुक्त भारत का लाभ उठाया जाये. लेकिन यह मसला इतना आसान भी नहीं है, मुस्लिमों द्वारा छोड़ी गयी सम्पति पर कब्जे को लेकर सवर्ण और दलित-पिछड़े वर्ग के जातियों के बीच विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है जो आगे चलकर वर्चस्व के लड़ाई का शक्ल अख्तियार कर लेती है.
संख्या में अधिक होने के कारण दलित-पिछड़े वर्ग के जातियों के लोग मुसलामानों द्वारा अपने पीछे छोड़े गये अधिकांश संपत्तियों और व्यापार पर कब्जा कर लेते हैं लेकिन इसी के साथ ही अब उनका दावा राजनीति और बड़े पदों पर बढ़ता जाता है. यह उन लोगों के लिए एक झटके की तरह है जो 'मुस्लिम मुक्त' भारत के तलबगार थे और मुसलामानों को हिंदू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में एक रूकावट के रूप में देख रहे थे. लेकिन मुस्लिम मुक्त भारत की अपनी अलग तरह की दिक्कतें सामने आने लगती है, हिंदुओं के बीच मतभेद उभरने लगते हैं और सवर्णों और दलित व पिछड़ी जातियों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है.
अपनी संख्या बल के कारण दलित व पिछड़ी जातियों का वर्चस्व बढ़ने लगता है. दलित व पिछड़ी जातियों के राजनीतिक रूप से मजबूत और उनके शक्तिशाली पदों पर आसीन होने की संभावना से सवर्ण चिंतित हैं. धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगता है कि मुसलामानों के जाने से उनके वर्चस्व का सबसे बड़ा हथियार भी चला गया है. उन्हें एहसास होता है कि दरअसल ये मुसलमान ही थे जिनका इस्तेमाल वे हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने के लिए कर रहे थे और संख्या में कम होने के बावजूद इसी से उनका वर्चस्व कायम था.
इसका मुकाबला करने के लिए वे चाहते है चुनाव स्थगित कर दिया जाये. इस बीच वे गायब हो गए मुसलमानों की वापसी चाहते हैं जिससे चुनावों के दौरान हिन्दुओं के ध्रुवीकरण के लिए फिर से एक दुश्मन को खड़ा किया जा सके और उनका वर्चस्व बना रह सके. किताब के अंत में सवर्णों और अवर्णों के बीच की यह लड़ाई अदालत पहुंचती है. अदालत द्वारा इस मामले में सुनवाई के लिए एक विशेष जूरी की नियुक्त की जाती है. इस जूरी में अमीर खुसरो, ज्योतिराव फुले, मौलाना हसरत मोहानी, मुंशी चन्नूलाल दिलगीर, तुलसीदास और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना जैसे नाम शामिल हैं.
अंत में अपने इन्हीं किरदारों के सहारे यह किताब भारत के मिली-जुली संस्कृति और साझी विरासत की वकालत करती है और उसके ताकत पर भरोसा जताती है. वर्तमान में हमारा मुल्क जिस पागलपन के दौर से गुजर रहा है यह किताब उसी के परिणति का एक काल्पनिक चित्रण है. पिछले कुछ वर्षों से इस देश में एक अजीब सी हवा चल रही है जिसके तहत मुस्लिमों के खिलाफ नफरत, उनपर हमले और सबसे बढ़कर इस देश के सार्वजनिक और आर्थिक जीवन से उनके बहिष्कार की घटनाएं बहुत आम हो चली हैं.
ऐसा लगता है कि इस देश में मुस्लिमों के जीवन के हर पहलू को समाप्त करने का अभियान चल रहा है. इस काम में “हिंदू खतरे में हैं” सबसे बड़ा नारा है और यह खतरा मुसलामानों से है. दूसरी तरफ मुख्तार अब्बास नकवी का राज्यसभा में कार्यकाल पूरा होने के बाद 395 सांसदों वाली भारत की सत्ताधारी पार्टी में अब कोई मुस्लिम सांसद नहीं बचा है. पिछले दिनों उनके अल्पसंख्यक कार्यमंत्री के पद से इस्तीफे के बाद अब मोदी सरकार का मंत्रिमंडल भी 'मुस्लिम मुक्त' हो चुका है.
इस प्रकार से इस समय भारत सरकार के मंत्रिमंडल और सत्ताधारी पार्टी के सांसदों में भारत के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समूह का प्रतिनिधित्व 'शून्य' है. क्या यह स्थिति भारत के केन्द्रीय सत्ता से 'मुस्लिम वैनिशेस' (मुसलामानों के गायब हो जाने की स्थिति) नहीं है. सईद नकवी पिछले कुछ वर्षों से हिन्दुस्तान में मुसलमानों के वजूद जैसे पेचीदा मसले पर अपने कलम चलाते आ रहे हैं.
इससे पहले 2016 में उनकी किताब 'बीइंग द अदर-द मुस्लिम इन इंडिया' आई थी जो 1947 के बंटवारे के बाद भारतीय मुसलामानों की स्थिति पर आधारित है. 'मुस्लिम वैनिशेस' उसी की अगली कड़ी है जो नाटक होने और अपने गंभीर विषयवस्तु के बावजूद मनोरंजक और पठनीय है. हालांकि एक नाटक होने के बावजूद इसका मंचन मुश्किल लगता है. इसका कारण एक तो इसमें किरदारों की भरमार है और दूसरा विषय की जटिलता, इसके चलते इसका मंचन मुश्किल होगा.लेकिन इस सीमा के बावजूद यह हमारे समय का एक जरूरी नाटक है जो काल्पनिक होते हुये भी सच्चाई के बहुत करीब है.
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