यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा 'फिनिश लाइन' से कहीं आगे खड़ी दिखाई दी. सीएम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 273 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी भाजपा के लिए आसान नहीं रही. क्योंकि, पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के मुकाबले भाजपा की सीटें कम हुई हैं. इन कम हुई सीटों की संख्या को देखते हुए ही समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट किया कि 'उत्तर प्रदेश की जनता को हमारी सीटें ढाई गुनी व मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद. हमने दिखा दिया है कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है. भाजपा का ये घटाव निरंतर जारी रहेगा. आधे से ज्यादा भ्रम और छलावा दूर हो गया है, बाकी कुछ दिनों में हो जाएगा. जनहित का संघर्ष जीतेगा.'
अखिलेश यादव का ये दावा काफी हद तक सच भी नजर आता है. क्योंकि, आंकड़े बताते हैं कि 7 विधानसभा सीटों पर भाजपा और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के बीच हार-जीत का अंतर 203 से लेकर 782 वोट ही रहा था. वहीं, 77 सीटें ऐसी भी रहीं, जहां समाजवादी पार्टी 13006 या इससे कम वोटों से हार गई. आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए, तो समाजवादी पार्टी इन 84 सीटों पर बेहतर प्रदर्शन कर अपनी हार को बड़ी जीत में बदल सकती थी. लेकिन, क्या ये सचमुच इतना आसान लगता है? समाजवादी नेता अखिलेश यादव भले ही दावा करें कि उनकी सीटें ढाई गुना बढ़ गईं और मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ गया. लेकिन, इसके पीछे की असली वजह यूपी विधानसभा चुनाव 2022 का पूरी तरह से दो ध्रुवीय हो जाना था. नाकि, अखिलेश यादव का करिश्माई चेहरा.
यह सीधे तौर पर अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी की उस सोशल इंजीनियरिंग की हार है. जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी के अध्यक्ष और जाट नेता जयंत चौधरी से लेकर पूर्वांचल में राजभर वोटों के लिए सुभासपा नेता ओमप्रकाश राजभर समेत भाजपा के तमाम बागी ओबीसी नेताओं को समाजवादी पार्टी में शामिल कराने...
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा 'फिनिश लाइन' से कहीं आगे खड़ी दिखाई दी. सीएम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 273 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी भाजपा के लिए आसान नहीं रही. क्योंकि, पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के मुकाबले भाजपा की सीटें कम हुई हैं. इन कम हुई सीटों की संख्या को देखते हुए ही समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट किया कि 'उत्तर प्रदेश की जनता को हमारी सीटें ढाई गुनी व मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद. हमने दिखा दिया है कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है. भाजपा का ये घटाव निरंतर जारी रहेगा. आधे से ज्यादा भ्रम और छलावा दूर हो गया है, बाकी कुछ दिनों में हो जाएगा. जनहित का संघर्ष जीतेगा.'
अखिलेश यादव का ये दावा काफी हद तक सच भी नजर आता है. क्योंकि, आंकड़े बताते हैं कि 7 विधानसभा सीटों पर भाजपा और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के बीच हार-जीत का अंतर 203 से लेकर 782 वोट ही रहा था. वहीं, 77 सीटें ऐसी भी रहीं, जहां समाजवादी पार्टी 13006 या इससे कम वोटों से हार गई. आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए, तो समाजवादी पार्टी इन 84 सीटों पर बेहतर प्रदर्शन कर अपनी हार को बड़ी जीत में बदल सकती थी. लेकिन, क्या ये सचमुच इतना आसान लगता है? समाजवादी नेता अखिलेश यादव भले ही दावा करें कि उनकी सीटें ढाई गुना बढ़ गईं और मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ गया. लेकिन, इसके पीछे की असली वजह यूपी विधानसभा चुनाव 2022 का पूरी तरह से दो ध्रुवीय हो जाना था. नाकि, अखिलेश यादव का करिश्माई चेहरा.
यह सीधे तौर पर अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी की उस सोशल इंजीनियरिंग की हार है. जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी के अध्यक्ष और जाट नेता जयंत चौधरी से लेकर पूर्वांचल में राजभर वोटों के लिए सुभासपा नेता ओमप्रकाश राजभर समेत भाजपा के तमाम बागी ओबीसी नेताओं को समाजवादी पार्टी में शामिल कराने के बावजूद सत्ता में नहीं आ पाए. लेकिन, अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग क्या सच में इतनी मजबूत थी कि वह भाजपा और मोदी-योगी के चेहरे के खिलाफ लोगों के गुस्से को समाजवादी पार्टी के साथ ला सकती थी. खैर, यूपी चुनाव नतीजे इस पर मुहर लगाते नजर नहीं आते हैं. लेकिन, एक बात तय है कि तमाम जातीय समीकरणों के बाद सत्ता से दूर रहने वाले अखिलेश यादव के लिए आगे की राह कांटों से भर गई है. आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों है...
मुस्लिम समुदाय सिर्फ एक 'वोट बैंक'
उत्तर प्रदेश के करीब 20 फीसदी मुस्लिम मतदाता वर्ग ने इस बार अपने मतों का विभाजन नहीं होने दिया. मुस्लिम समाज ने पुरजोर तरीके से भाजपा का विरोध करते हुए बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी को वोट दिया. लेकिन, इसका हांसिल क्या रहा? यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के पहले चरण से लेकर आखिरी चरण तक एकतरफा वोट देने के वोटिंग पैटर्न के जरिये मुस्लिम समाज ने खुद ब खुद ही ध्रुवीकरण का माहौल भाजपा के पक्ष में बनाया. समाजवादी पार्टी को इसका फायदा मिलता नजर आ रहा था. लेकिन, चुनाव नतीजों में ये दांव पूरी तरह से उलटा पलटा नजर आया. अगर 2027 की बात की जाए, तो तब भी मुस्लिम मतदाताओं का कमोबेश यही हाल रहने वाला है. और, उत्तर प्रदेश के करीब 15 करोड़ मतदाताओं को ये एकतरफा झुकाव नजर नहीं आएगा. ये समाजवादी पार्टी की केवल एक परिकल्पना है. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार हो या उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार, इन दोनों ही सरकारों की लाभार्थी योजनाओं का लाभ बिना किसी भेदभाव के मुस्लिम समाज को मिलता रहा है. और, आगे भी मिलता ही रहेगा.
लेकिन, अपनी राजनीतिक चेतना खो चुका मुस्लिम समुदाय आजीवन एक वोट बैंक बनकर रहना चाहता है. कहीं से भी नहीं लगता है कि मुख्य धारा में आना मुस्लिम समाज का मकसद है. भाजपा से मुस्लिम समाज की ये नाराजगी अगले चुनाव में भी इसी तरह से काम करेगी. जिस तरह से 2022 के यूपी चुनाव नतीजे में दिखी है. मुस्लिम समुदाय समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा नजर आया. लेकिन, इसके बावजूद भाजपा ने मुस्लिम बहुल 146 सीटों में से 90 सीटें जीतीं. जो साफतौर पर दिखाता है कि ध्रुवीकरण हुआ और इसमें भाजपा की मदद खुद मुस्लिम समाज ने की. आसान शब्दों में कहा जाए, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएम योगी आदित्यनाथ की जोड़ी ने उत्तर प्रदेश में जातिवाद और संप्रदायवाद को खत्म करने की कोशिश में लगे रहे. वहीं, अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी ने एमवाई समीकरण यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ पर ही भरोसा बनाए रखा. जिसका असर अन्य जातियों पर उलटा हुआ. और, वो भाजपा के पक्ष में लामबंद हो गईं. जो आगे भी जारी रहेगा.
क्योंकि, मुस्लिम-यादव वोटों के साथ समाजवादी पार्टी ने भाजपा को डेंट जरूर लगाया हो. लेकिन, उसकी मुस्लिम-यादव की पार्टी वाली छवि नहीं टूटी है. बल्कि, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के बाद समाजवादी पार्टी की ये छवि और पुख्ता हुई है. वहीं, इस मामले में भाजपा का एजेंडा बिल्कुल साफ नजर आता है. भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में स्पष्ट रूप से कहा था कि 'भाजपा चुनाव जीतने वाले प्रत्याशियों को टिकट देती है. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माहौल की वजह से अगर भाजपा मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देती भी है, तो वह जीत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाएंगे.' और, भाजपा ने इस बार भी किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया था. हालांकि, गठबंधन सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) ने स्वार विधानसभा सीट से हैदर अली खान को टिकट दिया था. लेकिन, वो भी जीत हासिल नहीं कर सके. 80 बनाम 20 का नारा उछाल कर भाजपा ने एक सियासी प्रयोग किया था, जो यूपी चुनाव नतीजे में सफल साबित होता दिखा.
सोशल इंजीनियरिंग में कितनी मजबूत रहेगी समाजवादी पार्टी?
अखिलेश यादव ने आरएलडी, सुभासपा, महान दल, एनसीपी, जनवादी सोशलिस्ट पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) जैसे छोटे दलों के सहारे समाजवादी पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग को आगे बढ़ाया. लेकिन, यूपी चुनाव नतीजे आने के बाद अखिलेश यादव भले ने भले ही चुप्पी साध रखी हो. लेकिन, समाजवादी पार्टी गठबंधन के दूसरे घटक दलों ने एक-दूसरे पर आरोप मढ़ना शुरू कर दिया है. महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने यहां तक कह दिया कि 'गठबंधन के कुछ साथी अति आत्मविश्वास में थे और उन्होंने अखिलेश यादव को भी ओवर कॉन्फिडेंस में रखा.' वहीं, एक बातचीत में सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर ने इस बात को कबूल किया कि 'उन्हें पहले चरण के बाद ही समाजवादी पार्टी की हार का अंदाजा हो गया था.' कमोबेश ऐसा ही बयान शिवपाल सिंह यादव का भी है. शिवपाल यादव ने संगठन में खामियों का जिक्र किया. वैसे, इस हार के बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने गठबंधन सहयोगियों को साथ बनाए रखने की चुनौती होगी.
समाजवादी पार्टी के गठबंधन इतिहास पर नजर डालें, तो यह पूरी तरह से नामुमकिन ही नजर आता है. 2017 में कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी का गठबंधन चुनाव के बाद टूट गया. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ हुआ गठबंधन भी नतीजे आने के साथ ही खत्म हो गया. और, इस गठबंधन से अखिलेश यादव और बसपा के बीच इस कदर अदावत बढ़ी कि मायावती ने समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भाजपा को वोट देने तक की बात कह डाली थी. वैसे, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में हार के बाद जब अखिलेश यादव की ओर से मंथन का दौर शुरू होगा. तो, समाजवादी पार्टी के गठबंधन सहयोगी एक-दूसरे पर ही दोषारोपण करेंगे. जिससे सहयोगी दलों के छिटकने की संभावना बढ़ेगी. वैसे, यहां सूबे की 86 आरक्षित सीटों की बात करना जरूरी है. जिनमें से 65 पर भाजपा गठबंधन ने जीत हासिल की है. वहीं, समाजवादी पार्टी के गठबंधन को सिर्फ 20 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. भाजपा जातिवार टिकट देने के मामले में समाजवादी पार्टी से कहीं आगे थी. और, उसने तकरीबन हर जाति को प्रतिनिधित्व दिया था.
कानून-व्यवस्था पर 'वोट' की काट अखिलेश के पास नहीं है
उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न को देखें, तो साफ हो जाता है कि वोटर्स की अधिकांश संख्या कानून-व्यवस्था को ही अपने वोट का आधार बनाती है. 2007 में बसपा सुप्रीमो मायावती को मिला बहुमत का आंकड़ा 'चढ़ गुंडन की छाती पर' के चुनावी नारे से मिला था. 2012 में अखिलेश यादव के हाथ सत्ता तभी आई थी, जब उन्होंने मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और डीपी यादव जैसे बाहुबली माफियाओं से दूरी बनाई थी. 2017 में भाजपा ने 'दंगा मुक्त और गुंडा मुक्त' का नारा दिया. और, सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुई. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में माफियाओं के खिलाफ सीएम योगी आदित्यनाथ की 'बुलडोजर नीति' के नाम पर वोट मांगे गए. और, भाजपा ने सत्ता में कई मिथकों को तोड़ते हुए वापसी की.
लेकिन, अखिलेश यादव ने इस चुनाव में अपने ही बनाए नियमों को दरकिनार करते हुए मुख्तार अंसारी के परिवार की गठबंधन सहयोगी दल सुभासपा के जरिये राजनीति में बैकडोर से एंट्री कराई. कैराना पलायन के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले नाहिद हसन को फिर से विधायक बनाकर समाजवादी पार्टी ने अगले चुनाव तक अपनी छवि को माफियाओं व अपराधियों की समर्थक पार्टी के तौर पर ही बना लिया है. अगर सीएम योगी आदित्यनाथ द्वारा आगामी 5 सालों में कोई बहुत 'बड़ी गलती' नहीं की जाती है. तो, कानून-व्यवस्था को लेकर वोट करने वाला मतदाता वर्ग भाजपा से छिटकता दिखाई नहीं पड़ रहा है. कानून-व्यवस्था भाजपा की एक बड़ी ताकत बनकर उभरी है. और, अखिलेश यादव के लिए इसकी काट खोज पाना आसान नहीं है. क्योंकि, अगले विधानसभा चुनाव में वो ऐसा करते भी हैं, तो सवाल ये खड़ा होगा कि जनता उन पर भरोसा क्यों करे?
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