नुपुर शर्मा विवाद में खाड़ी देशों ने जिस तरह भारत पर दबाव बनाया वह उस तरह से बिल्कुल नहीं है जैसे सोशल मीडिया पर एक तबका बड़े उत्साह में प्रचार करता दिख रहा है. यह धार्मिक मामलों की वजह से खाड़ी देशों की प्रतिक्रिया के रूप में तो बिल्कुल नहीं है. बल्कि राजनीतिक और डिप्लोमैटिक ज्यादा है. राम मंदिर, ट्रिपल तलाक, नागरिकता क़ानून, धारा 370 को हटाने, कोरोना महामारी या किसान आंदोलन के दौरान चीजों को देखें तो समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होती. कोरोना महामारी के बाद से पाकिस्तान में भारी आर्थिक-राजनीतिक उथल-पुथल है. धारा 370 हटने के बाद तो पाकिस्तान की रणनीतिक मदद के लिए ही चीन ने लद्दाख में मोर्चा खोला और दो साल से भारत की सेनाएं लगभग युद्ध के मूड से डंटी हैं.
पाकिस्तान में आपात हालात देखते हुए जैसे ही शहबाज शरीफ राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं- उसके ठीक अगले दिन भारत में दारूल उलूम देवबंद में जमीयत की बैठक होती है. इसमें देशभर के इस्लामिक स्कॉलर और मौलाना जुटते हैं. मदनी भारत पर नाना प्रकार के धार्मिक भेदभाव करने का आरोप लगाते हैं. पश्चिम बंगाल से केरल तक PFI की गतिविधियां अचानक बढ़ जाती हैं और यह जानते हुए भी कि महाराष्ट्र समेत समूचे देश में औरंगजेब को आक्रांता और हत्यारे के रूप में देखा जाता है- ओवैसी उस हत्यारे की कब्र पर फूल चढ़ाने पहुंच जाता है. उधर, कश्मीर में महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला कश्मीरी युवाओं के बंदूक उठा लेने की आशंका जताते रहते हैं. इसके बाद होता यह है कि टारगेट किलिंग का दौर शुरू हो जाता है.
इधर, रूस की वजह से भारत पर अमेरिका और उसके मित्र देशों ने लगातार दबाव बनाया. भारत ने अपना पक्ष साफ़ किया. भारत के गेहूं पर सवाल उठाना या नुपुर शर्मा मामले में...
नुपुर शर्मा विवाद में खाड़ी देशों ने जिस तरह भारत पर दबाव बनाया वह उस तरह से बिल्कुल नहीं है जैसे सोशल मीडिया पर एक तबका बड़े उत्साह में प्रचार करता दिख रहा है. यह धार्मिक मामलों की वजह से खाड़ी देशों की प्रतिक्रिया के रूप में तो बिल्कुल नहीं है. बल्कि राजनीतिक और डिप्लोमैटिक ज्यादा है. राम मंदिर, ट्रिपल तलाक, नागरिकता क़ानून, धारा 370 को हटाने, कोरोना महामारी या किसान आंदोलन के दौरान चीजों को देखें तो समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होती. कोरोना महामारी के बाद से पाकिस्तान में भारी आर्थिक-राजनीतिक उथल-पुथल है. धारा 370 हटने के बाद तो पाकिस्तान की रणनीतिक मदद के लिए ही चीन ने लद्दाख में मोर्चा खोला और दो साल से भारत की सेनाएं लगभग युद्ध के मूड से डंटी हैं.
पाकिस्तान में आपात हालात देखते हुए जैसे ही शहबाज शरीफ राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं- उसके ठीक अगले दिन भारत में दारूल उलूम देवबंद में जमीयत की बैठक होती है. इसमें देशभर के इस्लामिक स्कॉलर और मौलाना जुटते हैं. मदनी भारत पर नाना प्रकार के धार्मिक भेदभाव करने का आरोप लगाते हैं. पश्चिम बंगाल से केरल तक PFI की गतिविधियां अचानक बढ़ जाती हैं और यह जानते हुए भी कि महाराष्ट्र समेत समूचे देश में औरंगजेब को आक्रांता और हत्यारे के रूप में देखा जाता है- ओवैसी उस हत्यारे की कब्र पर फूल चढ़ाने पहुंच जाता है. उधर, कश्मीर में महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला कश्मीरी युवाओं के बंदूक उठा लेने की आशंका जताते रहते हैं. इसके बाद होता यह है कि टारगेट किलिंग का दौर शुरू हो जाता है.
इधर, रूस की वजह से भारत पर अमेरिका और उसके मित्र देशों ने लगातार दबाव बनाया. भारत ने अपना पक्ष साफ़ किया. भारत के गेहूं पर सवाल उठाना या नुपुर शर्मा मामले में स्टैंड लेना- नई बात नहीं है जब एर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की ने भारत का विरोध किया हो. तुर्की का भारतीय मुसलमानों के साथ खिलाफत के जमाने से ही प्रेमपूर्ण संबंध है. सऊदी अरब तो पाकिस्तान समेत तमाम एशियाई देशों को अपना धार्मिक उपनिवेश मानता रहा है. तुर्की भी लगभग यही मानता है. बीबीसी ने अभी हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट "सऊदी अरब को पाकिस्तान की मदद के बदले क्या मिलता है" में बताया कि सऊदी पाकिस्तान के मस्जिदों और मदरसों को जो मदद देता है वह दरअसल रूढ़िवादी इस्लाम को बढ़ावा देने के लिए है. इसी रूढ़िवादी इस्लाम से निकली नकारात्मकता का पाकिस्तान सबसे ज्यादा इस्तेमाल कश्मीर में करता है. वैसे सऊदी अरब से भारतीय मस्जिदों और मदरसों को भी कुछ कम चैरिटी नहीं मिलती है. इन मदरसों में मजहब के लिए क्या किया जाता है- कानपुर में क्या हुआ था अभी?
सऊदी अरब और कुवैत जैसे देश अमेरिका से पूछे बिना कोई काम नहीं करते. अफगानिस्तान छोड़ने के बाद जिस तरह अमेरिका ने इस्लामोफोबिया पर नया कैम्पेन शुरू किया है- वह भारत जैसे देशों में उसके कूटनीतिक हथियार के रूप में काम करता है. दुनिया इस कोशिश में है कि भारत को कैसे अपनी शर्तों पर नचाया जाए. और इसके पीछे कहीं ना कहीं अमेरिका भी होगा. अब इस बात पर शक बिल्कुल नहीं करना चाहिए कि भारत को घुन की तरह अंदर ही अंदर खाने वाली ताकतें देश के अंदर हैं. आइए नुपुर शर्मा केस के बहाने जानते हैं कि भारत कहां- सही गलत है और उसे आगे क्या करना चाहिए.
#भारतीय आर्थिक एजेंडा में फिट नहीं बैठते ऐसे विवाद
1) जिस तरह कुछ अरब देशों ने भारत के आतंरिक मामले में इस्लाम के नाम पर दबाव बनाने की कोशिश की उसका मजहब से कोई लेना देना नहीं. अगर मजहब मुख्य विषय होता तो भला चीन और म्यांमार के मामलों में ये देश चुप क्यों रहते. असल में भारत में पिछले दो दशक से लगातार राजनीतिक स्थिरता है. अटल बिहारी वाजपेयी के समय से ही अब तक सभी सरकारों ने बहुमत के साथ जीता और अपना कार्यकाल पूरा किया. और स्थिरता के मायने इसलिए भी बढ़ जाते हैं क्योंकि सभी सरकारें मिली जुली विचारधार की सरकारें भी थीं. निश्चित ही स्थिरता का असर भारत के आर्थिक विकास पर भी पड़ा. खासकर मोदी के दौर में आर्थिक विकास एक स्तर को लांघकर और आगे जाता नजर आया. लेकिन खाड़ी देशों के साथ भारत के आर्थिक एजेंडा की अपनी दिक्कतें हैं. और ये दिक्कतें ऊर्जा की वजह से हैं.
2) ऊर्जा जरूरतों की वजह से भारत खाड़ी देशों के आगे लगभग मजबूर है. दूसरा- अरब भारत को स्किल्ड और नॉन स्किल्ड दोनों तरह की नौकरियां और दूसरे व्यापार का अवसर देता है. हिंदू मुस्लिम दोनों तरह भारतीयों को. बदले में भारत खाने-पीने के सामान, दवाइयां, कपड़ा और मनोरंजन आदि की सप्लाई करता है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद खाड़ी के कई देश बहुत हद तक अपनी खाद्य जरूरत के लिए भारत की तरफ टाक रहे हैं. आर्थिक हित दोतरफा हैं, बावजूद भारत का सप्लाई चेन या आर्थिक हैसियत चीन की तरह नहीं हैं. भारत चीन की तरह अंतरराष्ट्रीय दबाव को भी हैंडल नहीं कर पाता.
3) उदाहरण के लिए चीन दुनिया का इकलौता गैरमुस्लिम देश है- जहां अल्पसंख्यकों का जबरदस्त तरीके से दमन किया जाता है. दर्जनों डिटेंशन कैम्प चलाए जाते हैं और यहां मुस्लिम महिलाओं पर अमानवीय बलात्कार तक होते हैं. उइगर के साथ इस्लाम के नाम पर चीन ने जो कुछ किया वैसे गंदे उदाहरण शायद ही कहीं देखने सुनने को मिलें. अमेरिका के नेतृत्व में यूरोप की पूरी लॉबी चाहकर भी कभी बड़ा मुद्दा नहीं बना पाई. याद भी नहीं आता कि उइगर मामलों में किसी मुस्लिम देश ने मानवीय सवाल भी उठाए हों.
नुपुर शर्मा मामले में भारत की तीखी निंदा कर खलीफा बनने की कोशिश में दिख रहा पाकिस्तान तो चीन के साथ व्यापार करता है. जबकि पाकिस्तान के नागरिक उइगर वजहों से ही चीन का तीखा और हिंसक विरोध करते हैं. लेकिन पाकिस्तान के साथ चीन खड़ा है तो मुसलमान उइगर उत्पीड़न की तरफ आंख मूंद लेते हैं.
4) ठीक ऐसे ही म्यांमार में जब रोहिंग्या मुसलमानों ने सांस्कृतिक समस्या खड़ी कर दी, वहां सरकार की प्रतिक्रिया सख्ती से दमन के रूप में सामने आई. आरोप हैं कि बड़े पैमाने पर नरसंहार तक हुए. हिंसक कार्रवाइयां दोतरफा भी बताई जाते एहेन. कथित रूप से नरसंहारों के बाद ही रोहिंग्या म्यांमार छोड़ बांग्लादेश और कुछ भारत में शरणार्थी के रूप में पहुंचने को विवश हुए. म्यांमार पर किसी तरह के अंतर्राष्ट्रीय दबाव का असर नहीं पड़ा. यह भी याद नहीं आता कि किसी खाड़ी देश ने कभी कोई बड़ी पहल की हो. जबकि म्यांमार अपने राजनीतिक ढाँचे की वजह से पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध का सामना करता रहा है.
5) फ्रांस ने भी कुछ मामूली विवादों की वजह से धार्मिक आजादी के नाम पर मुसलमानों के ऊपर कई तरह के प्रतिबंध लगाए हैं. वहां पैगम्बर पर भी हुई टिप्पणियों की वजह से तुर्की-पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों ने फ्रांस को घेरने की कोशिश की. इसके तहत बहिष्कार जैसे कैम्पेन चलाए गए. लेकिन फ्रांस ताकतवर देश है और उसके ऊपर इन चीजों का कोई असर नहीं पड़ा.
6) म्यांमार पर पहले से प्रतिबंध, आर्थिक रूप से एक साधारण देश है. हो सकता है शायद इसी वजह से रोहिंग्या के उत्पीड़न पर मुस्लिम देशों का ध्यान ना गया हो. लेकिन चीन के मामले में चुप्पी क्यों रही? चीन, अमेरिका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. अरब जगत में शायद ही कोई देश हो जिसके दोतरफा आर्थिक हित चीन के साथ ना जुड़े हों. ज्यादातर मुस्लिम देश मौजूदा हालात में चीन को नाराज करें तो उन्हें खुद ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है. पाकिस्तान का उदाहरण देखा जा सकता है. वह चीन के कर्ज में फंसा है और कभी भी दिवालिया हो सकता है.
7) अगर धार्मिक आधार पर उत्पीडन का सवाल मुस्लिम देशों के लिए अहम होता तो भारत के खिलाफ जो प्रतीकात्मक स्टैंड लिया गया वह चीन-म्यांमार के मामले में भी दिखता. यह स्पष्ट सबूत है कि राजनीतिक और कूटनीतिक वजहों से मुस्लिमों का सवाल उठाकर भारत को धमकाने की कोशिश की गई. तुर्की ईरान समेत कई मुस्लिम देश सालों से कश्मीर के मामले में ऐसा ही करते आए हैं. अभी तुर्की ने थर्ड पार्टी से खरीदे गए भारतीय गेहूं को लेकर भी बदनाम करने की पूरी कोशिश करता दिखा.
#खाड़ी देशों का इलाज कैसे हो?
अब सवाल है कि भारत के पास खाड़ी देशों के इलाज का कोई फ़ॉर्मूला है क्या? इलाज है. और इलाज तेल के साथ धार्मिक उपनिवेश को रोकना है. भारत को वैकल्पिक ऊर्जा की तरफ मजबूत इरादों से और पूरा जोर लगाकर बढ़ना होगा. चीन ने तो 2050 तक वैकल्पिक और ग्रीन ऊर्जा का लक्ष्य बनाया है और उस दिशा में काफी आगे भी निकल चुका है. भारत ने भी इथेनोल और दूसरे बायोफ्यूल का उत्पादन शुरू किया है. इलेक्ट्रिक व्हीकल में उत्साहजनक वृद्धि नजर आ रही है. सरकार एक लक्ष्य की तरफ बढ़ रही है. यह खाड़ी देशों के तेल के मुकाबले सस्ता भी है. इथेनोल और दूसरे बायोफ्यूल के उत्पादन और आधुनिक मोटर्स के विकास की तरफ ज्यादा तेजी से निकलना होगा. तेल के मामले में भारत खाड़ी देशों पर आधी निर्भरता का भी लक्ष्य अगले 20 साल में हासिल कर ले तो तस्वीर उलट नजर आएगी. भारत को यह करना ही पड़ेगा.
दूसरा भारत को अरब और तुर्की का धार्मिक उपनिवेश भी ख़त्म करना होगा. उन सेलिब्रिटी चेहरों की पहचान करनी पड़ेगी जिनके जरिए खाड़ी देशों या फिर तुर्की से धार्मिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए गैरकानूनी काम किए जाते हैं.
#इस्लामी कट्टरपंथियों की लामबंदी से आतंकवादियों को शह मिलने की आशंका
1) नुपुर शर्मा के मामले में जो कुछ अचानक से हुआ उसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं. एक तो यह इस्लामिक कट्टरपंथियों के मनोबल को बढ़ा सकता है. आतंकी भी उत्साहित माहौल में और ज्यादा सक्रिय हो सकते हैं. खाड़ी देशों के नाम पर सोशल मीडिया में धार्मिक आक्रामकता दिख भी रही है. कश्मीर में तो आतंकियों का एक नया मॉडल नजर आ रहा है. बताया जा रहा है कि यहां जो हत्याएं हो रही हैं- उनमें ज्यादातर आरोपियों को इस वजह से भी दबोचने में परेशानी हो रही क्योंकि उनका पुराना आपराधिक रिकॉर्ड नहीं मिल रहा है.
2) आतंकी संगठनों ने टारगेट किलिंग के लिए नए-नए रंगरूट को रीक्रूट किया है. आशंका है कि वो कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले लड़के भी हो सकते हैं. सरकार को इस तरह के मॉड्यूल को प्रैक्टिस बनने से पहले ही ख़त्म करना होगा. मानवाधिकार के सवाल अपनी जगह हैं, लेकिन आम नागरिकों का क़ानून संविधान में भरोसा बना रहे- अगर जरूरत पड़े तो पर्याप्त सख्ती का इस्तेमाल किया जा सकता है. राजनीतिक मजबूरी में कई सरकारों की नाक के नीचे इस्लामिक सिंडिकेट काम करता दिख रहा है. ना तो राज्य सरकार और ना ही केंद्र सरकार उनके खिलाफ कुछ करने के लिए ईमानदार नजर आ रही हैं.
3) भारत की सुरक्षा एजेंसियों को गड़बड़ी फैलाने वालों के खिलाफ सख्ती से निपटने का मनोबल पैदा करना होगा. अब यह जरूरी लग रहा है. भाजपा के प्रवक्ता टीवी डिबेट में तो PFI के खिलाफ गला फाड़कर चिल्लाते हैं, लेकिन मोदी सरकार अब तक उसे बैन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है. पहले पश्चिम बंगाल में PFI की सक्रियता और फिर केरल में खुलेआम धमकियां डराने वाली हैं. कानपुर मामले में भी PFI कनेक्शन निकलकर आया है. लेकिन अभी तक सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. यह चिंताजनक है.
#खाड़ी देशों में भारतीय डिप्लोमेसी की फतेह को झटका लगने का डर
1) नुपुर शर्मा के मामले ने साबित कर दिया कि कम से कम खाड़ी देशों में भारत की डिप्लोमेसी बेहतर तो नहीं है. यह भविष्य की आशंकाओं को भी जन्म देती है. भारत की अपनी चिंताएं हैं और दुनिया का इकलौता गैरमुस्लिम देश है जहां इस्लामिक आतंकवाद ने अनगिनत मौकों पर देश की संप्रभुता और शांति को बुरी तरह से प्रभावित किया है. मजहब के नाम पर इस्लाम इकलौता देश है जिसे हर सेकेंड भारत में ;परेशानी होती है. अरब देशों का रुख एकतरफा और भारत विरोध भावना से ग्रस्त नजर आ रहा है.
2) नुपुर शर्मा ने बयान दिया गलत था, लेकिन सवाल है कि उनका बयान किस तरह की चीजों की प्रतिक्रिया में आया? क्या खाड़ी देश उन चीजों को जायज ठहराते हुए किसी देश के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर हैं. कुछ सौ साल पहले अरब की धरती पर जन्म लेने वाले पैगम्बर पूजनीय हैं और दूसरे जो हजारों साल से अपने आराध्य को पूजते आए हैं वो खराब और किसी कमतर कैसे हैं? कम से कम क़तर जैसे देशों को तो शर्म आनी चाहिए. जिसने देवी देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाने वाले एमएफ हुसैन को भी पनाह दी. सऊदी क्या कुछ कम है जिसने इस्लामिक उपनिवेश के प्रचारक और भगोड़े जाकिर नाइक को पनाह दी.
3) भारतीय विदेश मंत्रालय को नुपुर शर्मा केस को नजीर मानते हुए खाड़ी देशों के मामले में फिर से रणनीतियों पर विचार करना चाइए. एक साधारण मामले में जिस तरह एकतरफा दृष्टि दिखी वह भविष्य के लिए खतरनाक है. ठीक है अरब के पास तेल का खजाना है- लेकिन वह पीने का पानी तक खरीदता है और भारत उसके लिए कम महत्वपूर्ण देश नहीं है.
#सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बहस के पटरी से उतरने का खतरा
1) अभी हाल ही में दारूल उलूम देवबंद में मौलाना मदनी ने जो सवाल उठाए थे उसमें मुस्लिमों के एक जैसे खानपान और पहनावा का भी सवाल आया. हालांकि उर्दू के साथ स्थानीय भाषाओं को लेकर वे सहज नजर आए. लेकिन खानपान और पहनावे पर उनकी धमकी परेशान करने वाली है. भारत विविधताओं वाला देश है. गैर मुस्लिम समाज में यह एक बड़ा मुद्दा बन चुका है. भला खानपान और पहनावा तो भूगोल और संस्कृति का विषय है. इसमें मजहब की क्या भूमिका?
2) भारत में ही हिंदुओं के अलग-अलग क्षेत्रों में सांस्कृतिक विभिन्नता दिखती है. धर्मगुरु का पहनावा पूरे समाज का पहनावा नहीं हो सकता. ईसाई देशों में पादरियों की ड्रेस पहनकर आमलोग सड़कों पर नहीं घूमते. हर सिख निहंग की तरह नहीं घूमता नजर आता. किस धर्म में महिलाओं के पहनावे के बारे में कहा गया है. वह किसी भूगोल का हिस्सा हो सकता है. मजहब को घर के अंदर और मंदिर मस्जिद तक रखा जाए तो ठीक है. उसका प्रदर्शन हर जगह नहीं होना चाहिए.
3) यूरोपीय और एशियाई मुस्लिम देशों में भी स्थानीय संस्कृति नजर आती है. तुर्की को ही ले लीजिए. भारत में इसे क्यों थोपा जा रहा है? अभी एक मौलाना ने मुलमानों को बारात निकालने, रतजगा करने और हल्दी की रस्मों को ना करने की अपील की है. यह दबाव क्यों डाला जा तरह है. मुसलमानों को एक रंग में रंगने की कोशिश क्यों हो रही है? इससे इस्लामिक मजहब पर भला कैसे असर पड़ सकता है. थोपना- धार्मिक उपनिवेशवाद है और सिविल सोसायटी को भी इस तरफ ध्यान देना चाहिए.
4) क्या धर्म के नाम पर पोशाक और खानपान जैसे सवाल उठाए जाएंगे तब भी मुस्लिम देशों की भावनाएं आहत होंगी? फ्रांस का विरोध तो इसी वजह से किया गया था. यह किसी देश के आतंरिक मामले में सीधा हस्तक्षेप है. यह बेहतर मौका है कि भारत कॉमन सिविल कोड की दिशा में आगे बढ़े. विपक्षी पार्टियों का भी कर्तव्य है कि वे इसके पक्ष में खड़े हों और किसी आंदोलन/धमकी की बजाए चुनावी प्रक्रिया के तहत इसे कानूनी जामा पहनाया जाए. धर्म, मजहब और समाज तीनों अलग चीजें हैं. इन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.