नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर शुरू हुआ किसान आंदोलन (Farmers Protest) अक्सर अन्ना आंदोलन (Anna Hazare Movement) की याद दिला रहा था. कोई भूल न जाये, शायद इसलिए भी, अन्ना हजारे खुद भी याद दिलाते रहे हैं - कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी चिट्ठियों के जवाब न मिलने को लेकर तो कभी स्वयं भी आंदोलन में कूद पड़ने को लेकर.
देश के गणतंत्र दिवस के मौके पर ट्रैक्टर परेड (Tractor Parade Violance) के नाम पर दिल्ली में जो-जो हुआ, सारी घटनाओं ने अन्ना आंदोलन के साथ साथ योग गुरु रामदेव के आंदोलन की तरफ भी ध्यान खींचा किया है - अंत भला तभी सब भला होता है. किसान आंदोलन और अन्ना आंदोलन में बुनियादी फर्क यही समझ में आता है.
अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि आंदोलन की दशा क्या होगी - और दिशा किस तरफ जाएगी?
किसानों और किसान नेताओं की जो भी रणनीति बन रही हो, लेकिन एक बात साफ हो ही गया है कि सरकार को ये कहने का मौका तो मिल रही गया है - कानून अपना काम करेगा. होना भी यही चाहिये. अगर देश का संविधान अपनी आवाज उठाने और आंदोलन करने का अधिकार देता है तो वही किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देता - और वही संविधान सत्ता व्यवस्था को कानून तोड़नेवालों के खिलाफ एक्शन लेकर कानून-व्यवस्था की हिफाजत को सरकार की ड्यूटी बताता है.
अब तो ये भी लगता है कि किसानों की तरफ से जो भी एक्शन प्लान बन रहा हो, अन्ना हजारे तो निश्चित तौर पर 30 जनवरी से घोषित अपने अनशन पर नये सिरे से विचार करेंगे ही.
हिंसक आंदोलन बिकाऊ हो सकते हैं, टिकाऊ नहीं
जनांदोलनों में कभी हिंसा की हिस्सेदारी नहीं होती. हिंसा की घुसपैठ होते ही आंदोलन खत्म हो जाते हैं. कुछेक अपवाद हो सकते हैं और ऐसा भी हो सकता हो कि छिटपुट हिंसा ने किसी आंदोलन की स्पीड थोड़ी बढ़ा भी दी हो, लेकिन आखिरकार हिंसा ही स्पीडब्रेकर भी बनती है और हादसे के साथ आंदोलन का अंत भी. दिल्ली में पंजाब और दूसरे राज्यों से पहुंचे किसानों के आंदोलन के साथ भी ऐसा ही हुआ है.
माओवादियों...
नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर शुरू हुआ किसान आंदोलन (Farmers Protest) अक्सर अन्ना आंदोलन (Anna Hazare Movement) की याद दिला रहा था. कोई भूल न जाये, शायद इसलिए भी, अन्ना हजारे खुद भी याद दिलाते रहे हैं - कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी चिट्ठियों के जवाब न मिलने को लेकर तो कभी स्वयं भी आंदोलन में कूद पड़ने को लेकर.
देश के गणतंत्र दिवस के मौके पर ट्रैक्टर परेड (Tractor Parade Violance) के नाम पर दिल्ली में जो-जो हुआ, सारी घटनाओं ने अन्ना आंदोलन के साथ साथ योग गुरु रामदेव के आंदोलन की तरफ भी ध्यान खींचा किया है - अंत भला तभी सब भला होता है. किसान आंदोलन और अन्ना आंदोलन में बुनियादी फर्क यही समझ में आता है.
अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि आंदोलन की दशा क्या होगी - और दिशा किस तरफ जाएगी?
किसानों और किसान नेताओं की जो भी रणनीति बन रही हो, लेकिन एक बात साफ हो ही गया है कि सरकार को ये कहने का मौका तो मिल रही गया है - कानून अपना काम करेगा. होना भी यही चाहिये. अगर देश का संविधान अपनी आवाज उठाने और आंदोलन करने का अधिकार देता है तो वही किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देता - और वही संविधान सत्ता व्यवस्था को कानून तोड़नेवालों के खिलाफ एक्शन लेकर कानून-व्यवस्था की हिफाजत को सरकार की ड्यूटी बताता है.
अब तो ये भी लगता है कि किसानों की तरफ से जो भी एक्शन प्लान बन रहा हो, अन्ना हजारे तो निश्चित तौर पर 30 जनवरी से घोषित अपने अनशन पर नये सिरे से विचार करेंगे ही.
हिंसक आंदोलन बिकाऊ हो सकते हैं, टिकाऊ नहीं
जनांदोलनों में कभी हिंसा की हिस्सेदारी नहीं होती. हिंसा की घुसपैठ होते ही आंदोलन खत्म हो जाते हैं. कुछेक अपवाद हो सकते हैं और ऐसा भी हो सकता हो कि छिटपुट हिंसा ने किसी आंदोलन की स्पीड थोड़ी बढ़ा भी दी हो, लेकिन आखिरकार हिंसा ही स्पीडब्रेकर भी बनती है और हादसे के साथ आंदोलन का अंत भी. दिल्ली में पंजाब और दूसरे राज्यों से पहुंचे किसानों के आंदोलन के साथ भी ऐसा ही हुआ है.
माओवादियों और नक्सल आंदोलन का भी यही हाल रहा है, ये अलग बात है कि एक वर्ग ऐसे आंदोलनों में यकीन रखता है, लेकिन नतीजा क्या निकलता है - जान और माल के नुकसान के सिवा. जमाने के साथ सारी चीजें अपग्रेड और अपडेट होती जा रही हैं, लेकिन सशस्त्र संघर्ष के पैरोकार ना मालूम कौन से ख्वाब बुन रखे हैं कि हकीकत से रूबरू होने का मन में कभी ख्याल तक नहीं आता है.
किसान और अन्ना आंदोलन के एक कॉमन किरदार हैं - योगेंद्र यादव. चुनाव विश्लेषक के तौर पर अपने लंबे कॅरियर के बाद योगेंद्र यादव शिद्दत से अन्ना आंदोलन से जुड़े थे - और जब जन आंदोलन को राजनीतिक कलेवर देने की बात हुई तो योगेंद्र यादव ने अन्ना हजारे का साथ छोड़ कर अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक रास्ता अख्तियार कर लिया था. फिलहाल योगेंद्र यादव स्वराज अभियान के बैनर तले राजनीति करते हैं और किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरों में नजर आये हैं.
किसान आंदोलन की अन्ना आंदोलन से तुलना करने पर तो यही समझ आता है कि अन्ना हजारे फ्रंट पर खड़े होकर, शुरू से आखिर तक जिस चीज को कंट्रोल करते रहे, किसान आंदोलन वहीं पर चूक गया. ऐसा भी नहीं कि योगेंद्र यादव ने किसान आंदोलन के हिंसक स्वरूप लेने से बचाने की कोई कोशिश नहीं की थी, लेकिन आधी अधूरी कोशिशें कामयाब होती ही कब हैं?
दिल्ली की सड़कों, आइटीओ चौराहे से लेकर लाल किला तक किसान आंदोलन का जो स्वरूप देखने को मिला, उसके बाद योगेंद्र यादव के पास भी अफसोस जाहिर करने के सिवा बचा ही क्या है?
योगेंद्र यादव ने आंदोलन के नाम पर हुई हिंसा को बदनाम करने वाला कृत्य बताया है. योगेंद्र यादव ने यहां तक कहा है, इससे मेरा सिर झुक गया है. ये भी कह रहे हैं कि वो जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते - लेकिन एहतियाती उपाय तो पहले ही करने चाहिये थे.
ट्रैक्टर परेड को लेकर योगेंद्र यादव बार बार दावा करते रहे कि सब कुछ शांतिपूर्वक ही होगा, शायद ट्रैक्टर के जरिये तांडव का उनको अंदाजा नहीं लगा होगा. अन्ना आंदोलन का प्रमुख हिस्सा रहने के साथ साथ योगेंद्र यादव आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में भी रहे हैं - और ऐसा लगता है किसान आंदोलन की ये राह भी योगेंद्र यादव ने स्वराज आंदोलन को आम आदमी पार्टी जैसी कामयाबी दिलाने के मकसद से किया होगा - जैसे अरविंद केजरीवाल की शुरू से दिल्ली में सत्ता की राजनीति पर रही, वैसे ही योगेंद्र यादव की निगाहें लंबे अरसे हरियाणा पर टिकी हुई हैं. आम आदमी पार्टी के बैनर तले भी वो एक बार हरियाणा में अपने राजनीतिक प्रयोग कर चुके हैं, लेकिन असफल रहे.
किसान आंदोलन और अन्ना आंदोलन का फर्क समझने के लिए योगेंद्र यादव और अरविंद केजरीवाल की रणनीति की तुलना भी की जा सकती है - कैसे वो सफल रहा और कैसे ये आंदोलन दागदार हो गया? बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, अरविंद केजरीवाल पूरे अन्ना आंदोलन के आर्किटेक्ट रहे और योगेंद्र यादव किसान आंदोलन का एक हिस्सा भर रहे हैं - एक बड़ा फर्क ये भी है.
अन्ना आंदोलन ने भी तत्कालीन सत्ता को हिला कर रख दिया था - और किसान आंदोलन भी 26 जनवरी से पहले तक वैसा ही धारदार और असरदार नजर आ रहा था.
किसान नेता बेबस रहे या रणनीति ही यही रही?
हो सकता है किसान आंदोलन ने मोदी सरकार को वैसे डैमेज नहीं किया हो जैसे अन्ना आंदोलन ने कांग्रेस की अगुवाई वाली तब की यूपीए 2 सरकार को किया था, लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उनके साथी हर कदम फूंक फूंक कर ही चल रहे थे.
बातचीत के जरिये भी किसान आंदोलन का रास्ता निकालने की कोशिशें हुईं ही. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 11वें दौर की बातचीत में किसानों के सामने तीन कृषि कानूनों को 18 महीने तक होल्ड करने और मामला सुलझाने के लिए बनी कमेटी के किसी नतीजे तक पहुंचने तक इंतजार करने की भी बात कही थी. सरकार की तरफ से इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करने को भी कहा गया था. बातचीत के दौरान किसान नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव पर विचार करने की भी हामी भरी थी, लेकिन बाद में नामंजूर कर दिया. हालांकि, मौके पर ही नरेंद्र सिंह तोमर ने साफ कर दिया था कि सरकार के पास अब उससे बेहतर कोई भी प्रस्ताव नहीं है.
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक और खास बात कही थी, मालूम नहीं अब अगले दौर की बातचीत कब संभव हो पाएगी. ये एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बयान था. इसे सिर्फ शब्दों के जरिये नहीं, बल्कि राजनीति की भाषा के हिसाब से समझने की जरूरत थी. असल बात तो ये रही कि सरकार की तरफ से ये बड़ा संकेत था कि आखिरी प्रस्ताव नामंजूर किये जाने की स्थिति में सरकार अन्य विकल्पों के बारे में भी सोच सकती है.
किसान आंदोलन सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था और सुप्रीम कोर्ट ने भी कानूनों को होल्ड पर रख ही दिया था, लेकिन ट्रैक्टर रैली के मामले में दखल देने से साफ इंकार कर दिया था. अदालत का कहना रहा कि सरकार इस बारे में फैसला लेने में सक्षम है और दिल्ली पुलिस अपने हिसाब से हैंडल कर सकती है. कुछ मीडिया रिपोर्ट तो ऐसे ही इशारे कर रही हैं कि दिल्ली पुलिस अपनी तरफ से ट्रैक्टर रैली, या परेड जो भी समझें, को इजाजत देने के पक्ष में नहीं थी, लेकिन जिस स्तर पर भी फैसला हुआ हो, ट्रैक्टर रैली हुई भी और वैसा ही हुआ जैसी दिल्ली पुलिस को भी आशंका रही होगी.
किसान आंदोलन की आड़ में उपद्रव करने वालों के सामने भी दिल्ली पुलिस के जवान वैसे ही जूझ रहे थे जैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद हुए दंगों के दौरान. तब वायरल हुए वीडियो अगर सही थे तो 26 जनवरी, 2021 को हुई दिल्ली हिंसा की तरह देख कर समझा भी जा सकता है. जाहिर है, आगे दिल्ली पुलिस इन उपद्रवियों के साथ भी वैसे ही पेश आने वाली है जैसे दिल्ली दंगे के आरोपियों के साथ. अब पुलिस का कामकाज तो शायद ही कभी पारदर्शी रहा हो, जैसे दिल्ली दंगों के मामले में सवाल उठते हैं, किसान आंदोलन के आरोपियों को लेकर भी वैसा ही होना है.
दिल्ली के पूरे उपद्रव को पूरा देश लाइव टीवी पर देख रहा था - उपद्रव करने वाले भी कैमरे पर अपना पक्ष रखते हुए खुद को सही ठहराने की कोशिश कर रहे थे. आरोप लगा रहे थे कि पुलिस ने उन पर हमला किया और ये दावा भी कि जो कुछ उनकी तरफ से हो रहा है वो रिएक्शन है.
चाहे वो योगेंद्र यादव हों या राकेश टिकैत या कोई और ही सही, किसान नेता अपनी तरफ से तरह तरह की सफाई पेश कर रहे हैं. ये भी ठीक है. बगैर पूरी जांच पड़ताल के वास्तव में क्या हुआ और किसने क्या तैयारी की थी या किसे किसी और की नीयत का अंदाजा नहीं था - कुछ भी पता नहीं चल सकता. इसे लेकर कयास भी नहीं लगाये जाने चाहिये. जांच रिपोर्ट का ही इंतजार करना चाहिये.
लेकिन एक सवाल तो उठता ही है - क्या किसान नेता चाहे होते तो उपद्रव के शुरू होते ही नहीं रोक सकते थे? ये भी हो सकता है कि असल बात देर से समझ आयी हो, तो भी क्या उनके पास खुद को और अपने लोगों को उपद्रवियों से अलग करने का कोई रास्ता नहीं था? अगर किसान नेताओं को लगा था कि आंदोलन में उपद्रवी घुसपैठ कर चुके हैं तो क्या वे स्थिति को बेकाबू होने से पहले संभाल नहीं सकते थे?
ये तो हो ही सकता था कि जैसे ही किसान नेताओं को लगा कि उनका शांतिपूर्ण आंदोलन हाइजैक हुआ, वे लाइव टीवी पर अपील कर सकते थे कि असली किसान आंदोलनकारी आगे न बढ़ें. जहां हैं वहीं से पीछे लौट जायें.
लाइव टीवी पर कुछ ऐसी अपील तो हो ही सकती थी - 'हम हिंसा में विश्वास नहीं रखते... जो लोग हिंसक हो रहे हैं वे आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं... किसान आंदोलन के लोग पीछे हट जायें और पुलिस को स्थिति संभालने में मददगार बनें...'
ऐसा किसी ने भी नहीं किया. अब कोई अफसोस जाहिर कर रहा है तो कोई अपनी बेबसी के आंसू बहा रहा है - अब हाथ जोड़ कर माफी मांगने का भी क्या फायदा?
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