त्रिपुरा (Tripura Election 2023) में 25 साल के लेफ्ट शासन को हटाकर 2018 में बीजेपी ने जोरदार तरीके से भगवा फहराया था, लेकिन 5 साल का सफर पूरा होने से पहले ही बीजेपी सरकार झटके खाने लगी है - और ये कहीं से भी अच्छे संकेत तो नहीं ही माने जाएंगे. वो भी तब जब बीजेपी चुनाव से करीब साल भर पहले एक बार मुख्यमंत्री भी बदल चुकी है.
चुनावों की संभावित तारीख से करीब साल भर पहले बीजेपी ने त्रिपुरा में भी मुख्यमंत्री बदल दिया था. मुख्यमंत्री बनने के बाद से अक्सर विवादों में रहने वाले बिप्लब देब (Biplab Deb) के इस्तीफे के बाद राज्य बीजेपी अध्यक्ष रहे माणिक साहा (Manik Saha) ने कमान संभाली, लेकिन कभी लगा नहीं कि कोई खास फर्क पड़ा हो.
2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्रिपुरा में बीजेपी के शून्य से शिखर पर पहुंचने का जो दावा किया था, वो पांच साल पूरा होने से पहले ही बुरी तरह लड़खड़ाने लगी है. मुख्यमंत्री बदले जाने के बाद भी विधायकों को रोक पाना संभव नहीं हो पा रहा है.
त्रिपुरा में बीजेपी की कोशिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में वापसी की होगी, लेकिन लक्षण ठीक नहीं नजर आ रहे हैं. वैसे भी बीजेपी 2023 के आखिर तक के सारे ही विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ने का फैसला कर चुकी है, लेकिन अगर राज्य स्तर पर हालात को नहीं संभाला जा सका तो मुश्किल तो हो ही सकती है.
अव्वल तो त्रिपुरा में कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस कोई भी बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में नजर नहीं आ रहा है, लेकिन जो हालात हैं सवाल ये जरूर खड़ा हो गया है कि क्या त्रिपुरा में भी बीजेपी को उत्तराखंड की तरह दोबारा मुख्यमंत्री बदलना पड़ेगा?
2023 की शुरुआत में त्रिपुरा सहित तीन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं....
त्रिपुरा (Tripura Election 2023) में 25 साल के लेफ्ट शासन को हटाकर 2018 में बीजेपी ने जोरदार तरीके से भगवा फहराया था, लेकिन 5 साल का सफर पूरा होने से पहले ही बीजेपी सरकार झटके खाने लगी है - और ये कहीं से भी अच्छे संकेत तो नहीं ही माने जाएंगे. वो भी तब जब बीजेपी चुनाव से करीब साल भर पहले एक बार मुख्यमंत्री भी बदल चुकी है.
चुनावों की संभावित तारीख से करीब साल भर पहले बीजेपी ने त्रिपुरा में भी मुख्यमंत्री बदल दिया था. मुख्यमंत्री बनने के बाद से अक्सर विवादों में रहने वाले बिप्लब देब (Biplab Deb) के इस्तीफे के बाद राज्य बीजेपी अध्यक्ष रहे माणिक साहा (Manik Saha) ने कमान संभाली, लेकिन कभी लगा नहीं कि कोई खास फर्क पड़ा हो.
2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्रिपुरा में बीजेपी के शून्य से शिखर पर पहुंचने का जो दावा किया था, वो पांच साल पूरा होने से पहले ही बुरी तरह लड़खड़ाने लगी है. मुख्यमंत्री बदले जाने के बाद भी विधायकों को रोक पाना संभव नहीं हो पा रहा है.
त्रिपुरा में बीजेपी की कोशिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में वापसी की होगी, लेकिन लक्षण ठीक नहीं नजर आ रहे हैं. वैसे भी बीजेपी 2023 के आखिर तक के सारे ही विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ने का फैसला कर चुकी है, लेकिन अगर राज्य स्तर पर हालात को नहीं संभाला जा सका तो मुश्किल तो हो ही सकती है.
अव्वल तो त्रिपुरा में कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस कोई भी बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में नजर नहीं आ रहा है, लेकिन जो हालात हैं सवाल ये जरूर खड़ा हो गया है कि क्या त्रिपुरा में भी बीजेपी को उत्तराखंड की तरह दोबारा मुख्यमंत्री बदलना पड़ेगा?
2023 की शुरुआत में त्रिपुरा सहित तीन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. त्रिपुरा के साथ ही मेघालय और नगालैंड में भी चुनाव होने की संभावना है. बीजेपी के नेतृत्व में त्रिपुरा में IPFT यानी इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ मिल कर सरकार बनी थी - लेकिन करीब एक साल से ये गठबंधन साथी विधायकों के छोड़ते जाने से काफी परेशान है.
हैरानी की बात ये है कि बीजेपी के अगुवाई वाले गठबंधन ने इसी साल अपने 7 विधायक गवां दिये - और उसमें भी ताज्जुब की बात ये है कि सात में से चार विधायकों को तो बीजेपी ने ही गवां दिया है. ताजातरीन हादसे की शिकार भी बीजेपी ही हुई है.
बीते दो साल की बात करें तो कुल आठ विधायकों ने अलविदा बोल दिया है, जिसमें बीजेपी अब तक अपने पांच विधायक गवां चुकी है. देखा जाये तो चुनाव से पहले विधायकों का सत्ताधारी पार्टी और गठबंधन छोड़ कर चले जाना कहीं से भी अच्छे संकेत नहीं ही हैं.
क्या ये बीजेपी और सत्ताधारी गठबंधन के विधायक मौसम को पहले ही भांप चुके हैं? क्या बीजेपी विधायकों को भी पार्टी के सत्ता में वापस आने का भरोसा नहीं रह गया है?
एक साल में सात विधायकों का साथ छोड़ना
दीबा चंद्र हरंगखाल त्रिपुरा में सरकार बनने के बाद से इस्तीफा देने वाले बीजेपी के पांचवें विधायक हैं. अब तो वो कांग्रेस में शामिल भी हो गये हैं. कांग्रेस में शामिल होना उनके लिए घर वापसी जैसा ही है. हरंगखाल कांग्रेस की त्रिपुरा इकाई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.
बीजेपी छोड़ने के अगले दिन ही अगरतला में हुई एक रैली के मंच पर दीबा चंद्र हरंगखाल कांग्रेस में शामिल हो गये. तब तो दीबा चंद्र हरंगखाल ने बस इतना ही कहा था कि वो निजी वजहों से इस्तीफा दे रहे हैं, लेकिन लगे हाथ ये भी जोड़ दिया था कि वो राजनीति नहीं छोड़ने जा रहे हैं क्योंकि वो राजनीतिक व्यक्ति हैं.
दीबा चंद्र हरंगखाल के इस्तीफे को बीजेपी की तरफ से महत्वहीन बताने की कोशिश भी की गयी. बीजेपी प्रवक्ता सुब्रत चक्रवर्ती का कहना रहा कि दीबा चंद्र हरंगखाल लंबे समय से बीमार चल रहे हैं - और अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पा रहे थे. बीजेपी प्रवक्ता ने साथ में ये भी जोड़ा कि विधायक के बीजेपी छोड़ने का विधानसभा चुनाव में कोई असर नहीं होगा.
त्रिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे दीबा चंद्र हरंगखाल कांग्रेस 2018 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल हुए थे. वो कांग्रेस के उन छह विधायकों में शामिल थे जो सुदीप रॉय बर्मन के नेतृत्व में 2016 में तृणमूल कांग्रेस में ज्वाइन किये थे. 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के दस विधायक चुन कर आये थे.
25 साल लेफ्ट, 5 साल बीजेपी
2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही बीजेपी ने त्रिपुरा में अपने कुछ काबिल नेताओं की टीम बनाकर काम पर लगा दिया था. त्रिपुरा में बीजेपी ने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू किया था. तभी त्रिपुरा में बीजेपी ने 42 हजार पन्ना प्रमुख नियुक्त कर दिये थे. हर पन्ना प्रमुख को 60 वोटर से सीधे कनेक्ट होने की जिम्मेदारी दी गयी थी.
बाकी चुनावों की ही तरह पन्ना प्रमुखों को वोटर से सीधा संपर्क साधने के बाद केंद्र सरकार की नीतियों और योजनाओं के बारे में समझाने का टास्क मिला हुआ था - और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी मतदान के दिन अपने हिस्से के सभी वोटर को पोलिंग बूथ तक पहुंचाना.
25 साल से लगातार सत्ता पर काबिज लेफ्ट की माणिक सरकार की सरकार को हटाना नामुमकिन सा ही था, लेकिन बीजेपी की रणनीति और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की मेहनत ने लाल झंडा हटा कर भगवा फहरा ही दिया.
त्रिपुरा में बीजेपी ने 25 साल से सत्तारूढ़ वामपंथी सरकार को हराकर इतिहास रच दिया है. मेघालय को लेफ्ट का गढ़ कहा जाता है और यहां बीते 5 चुनावों से लगातार सीपीएम ने सरकार बनाई थी. लेकिन इस बार के चुनाव में बीजेपी ने यह मिथक तोड़ते हुए न सिर्फ पूर्वात्तर के इस 'लालगढ़' को ढहाया बल्कि यहां अपना भगवा परचम लहरा दिया है. बीजेपी ने राज्य में दो-तिहाई बहुमत का रास्ता साफ कर लिया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी की जीत के जश्न के बीच कार्यकर्ताओं को बधाई देते हुए इस उपलब्धि को शून्य से शिखर तक पहुंचने जैसा बताया था. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्विटर पर लिखा, 'त्रिपुरा की जीत साधारण नहीं है, ये शून्य से शिखर तक का सफर है... ये सब विकास के एजेंडे और संगठन की शक्ति से मुमकिन हुआ है... मैं जमीन पर काम करने वाले हर बीजेपी कार्यकर्ता को नमन करता हूं.'
2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को दो तिहाई बहुमत मिला था. त्रिपुरा विधानसभा की 60 सीटों में से 36 सीट जीतने वाली बीजेपी ने 8 विधायकों वाली IPFT के साथ सरकार बनायी थी, लेकिन अब तक पार्टी के तीन विधायक साथ छोड़ चुके हैं.
बीजेपी के लिए अगला अग्नि परीक्षा केंद्र त्रिपुरा है
चुनावों से पहले नेताओं का पाला बदलना आम बात है, लेकिन दीबा चंद्र हरंगखाल का फैसला कोई मामूली घटना नहीं है - और ये समझना मुश्किल हो रहा है कि वो बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस में जाने का फैसला क्या सोच कर किये होंगे?
कांग्रेस से ज्यादा तो वहां तृणमूल कांग्रेस एक्टिव नजर आ रही है. ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी ने तो महीना भर पहले ही कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे पीयूष कांति बिस्वास को तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कराया और फिर उनको सूबे में पार्टी की कमान भी सौंप दी.
सत्ता गंवाने के बावजूद त्रिपुरा में अब भी सबसे बड़ा विपक्ष दल सीपीएम ही है, जाहिर है संगठन स्तर पर बीजेपी से सत्ता छीनने की कवायद भी चल रही रही होगी. पहले कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में रह चुके दीबा चंद्र हरंगखाल के लिए बीजेपी में जाने में कोई खास बात नहीं थी, लेकिन लौटने लिए भी दो ही विकल्प बचे थे - कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस, लेफ्ट में तो जाने की कोई सूरत बन पाती ऐसी संभावना कम ही होगी. चूंकि तीन बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे थे, लिहाजा वापसी बहुत मुश्किल भी नहीं रही होगी.
हो सकता है, दीबा चंद्र हरंगखाल को अगले चुनाव में टिकट कट जाने की भी आशंका हो, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन छोड़ने वाले विधायकों के फैसले को ही वो भी फॉलो कर रहे हैं - और ये पॉलिटिकल लाइन तो उसी दिशा में बढ़ रही है जहां आगे चल कर बीजेपी कमजोर लगने लगती है.
क्या ये कांग्रेस की हिमाचल प्रदेश में जीत का असर भी हो सकता है? लेकिन सवाल ये भी है कि क्या गुजरात में बीजेपी की जीत का असर क्यों नहीं है? क्या गुजरात में बीजेपी की जीत पर किसी न किसी रूप में हिमाचल प्रदेश की हार हावी होने लगी है? वैसे कर्नाटक से पहले बीजेपी की अगली अग्नि परीक्षा त्रिपुरा में ही होनी है.
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