योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) के बीच हाल फिलहाल दो मुलाकातें तो लॉकडाउन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग में भी हुई थी - लेकिन उसके बाद भी दोनों मुख्यमंत्रियों ने आपस में बातचीत का मुद्दा खोज लिया. एक बार पालघर मॉब लिंचिंग (Palghar Sadhu lynching) के बहाने तो एक बार बुलंदशहर हत्या (Bulandshahr Sadhu double murder) की वजह से.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को नसीहत भरी जो कॉल की थी, नसीहत में थोड़ा तंज मिलाकर उन्होंने लौटा दिया है. दोनों में से किसी को भी शायद ही ये अंदाजा हो कि एक ही तरह के मुद्दे पर एक जैसी नसीहत और तंज का मौका इतना जल्दी मिल जाएगा. अपराध की प्रकृति के हिसाब से तो दोनों घटनाओं को नहीं जोड़ा जा सकता - लेकिन राजनीति के तराजू पर तौलना हो तो उन्नीस-बीस का ही फर्क आएगा!
साधुओं की हत्या और राजनीति
बुलंदशहर में भी दो साधुओं की ही हत्या हुई है. पालघर में भी दो साधु ही मारे गये थे. दोनों घटनाओं में वक्त का फासला भी हफ्ते भर से कुछ ज्यादा का ही है. ये दोनों ही घटनाएं देश के अलग अलग हिस्सों में हुई हैं और दोनों ही राज्यों में अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की और महाराष्ट्र बीजेपी के विरोधियों के गठबंधन महाविकास आघाड़ी की.
दोनों घटनाओं पर एक साथ चर्चा की भी दो वजहें हैं - एक, दोनों ही घटनाओं में दो-दो साधुओं की हत्या और दो, दोनों ही घटनाओं को लेकर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक दूसरे को फोन किया जाना.
देखा जाये तो उद्धव ठाकरे का फोन आने पर योगी आदित्यनाथ वैसे प्रेशर में कतई नहीं रहे होंगे जैसे पालघर मॉब लिंचिंग को लेकर तब उद्धव ठाकरे की मानसिक स्थिति रही होगी. योगी आदित्यनाथ के लिए तो ये मामूली बात ही रही होगी क्योंकि उनको तो कभी प्रियंका गांधी के तो कभी अखिलेश यादव के ट्वीट और कभी मायावती के प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर बयान पढ़ने से...
योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) के बीच हाल फिलहाल दो मुलाकातें तो लॉकडाउन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग में भी हुई थी - लेकिन उसके बाद भी दोनों मुख्यमंत्रियों ने आपस में बातचीत का मुद्दा खोज लिया. एक बार पालघर मॉब लिंचिंग (Palghar Sadhu lynching) के बहाने तो एक बार बुलंदशहर हत्या (Bulandshahr Sadhu double murder) की वजह से.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को नसीहत भरी जो कॉल की थी, नसीहत में थोड़ा तंज मिलाकर उन्होंने लौटा दिया है. दोनों में से किसी को भी शायद ही ये अंदाजा हो कि एक ही तरह के मुद्दे पर एक जैसी नसीहत और तंज का मौका इतना जल्दी मिल जाएगा. अपराध की प्रकृति के हिसाब से तो दोनों घटनाओं को नहीं जोड़ा जा सकता - लेकिन राजनीति के तराजू पर तौलना हो तो उन्नीस-बीस का ही फर्क आएगा!
साधुओं की हत्या और राजनीति
बुलंदशहर में भी दो साधुओं की ही हत्या हुई है. पालघर में भी दो साधु ही मारे गये थे. दोनों घटनाओं में वक्त का फासला भी हफ्ते भर से कुछ ज्यादा का ही है. ये दोनों ही घटनाएं देश के अलग अलग हिस्सों में हुई हैं और दोनों ही राज्यों में अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की और महाराष्ट्र बीजेपी के विरोधियों के गठबंधन महाविकास आघाड़ी की.
दोनों घटनाओं पर एक साथ चर्चा की भी दो वजहें हैं - एक, दोनों ही घटनाओं में दो-दो साधुओं की हत्या और दो, दोनों ही घटनाओं को लेकर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक दूसरे को फोन किया जाना.
देखा जाये तो उद्धव ठाकरे का फोन आने पर योगी आदित्यनाथ वैसे प्रेशर में कतई नहीं रहे होंगे जैसे पालघर मॉब लिंचिंग को लेकर तब उद्धव ठाकरे की मानसिक स्थिति रही होगी. योगी आदित्यनाथ के लिए तो ये मामूली बात ही रही होगी क्योंकि उनको तो कभी प्रियंका गांधी के तो कभी अखिलेश यादव के ट्वीट और कभी मायावती के प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर बयान पढ़ने से मुकाबला करना ही होता है. कभी तो स्थिति ऐसी भी हो जाती है कि एक ही दिन प्रियंका गांधी सड़क पर उतर जाती हैं. अखिलेश यादव विधानसभा के बाहर धरने पर बैठ जाते हैं और मायावती राज्यपाल से मिल कर महिला होने की दुहाई देकर ज्ञापन देने लगती हैं.
उद्धव ठाकरे की मुश्किलें दूसरे तरह की होती है. सबसे बड़ी मुश्किल तो गठबंधन सरकार का मुख्यमंत्री होना ही है. मुश्किल तो बीजेपी विरोधी खेमे का मुख्यमंत्री होना है - और जब संवैधानिक नियमों के चलते पहले से कुर्सी खतरे में तो तभी कभी महाबलेश्वर में तो कभी बांद्रा में लॉकडाउन फेल होना तो कभी पालघर में मॉब लिंचिंग हो जाना भी है.
बेशक दोनों ही घटनाओं में साधुओं की हत्या हुई है लेकिन दोनों को किसी भी हिसाब से एक तरह से नहीं लिया जा सकता. दोनों घटनाएं बिलकुल अलग हैं - बुलंदशहर की घटना महज एक हत्या का मामला है. हत्या और संगठित अपराध में फर्क होता है और दोनों में बुनियादी फर्क है.
बुलंदशहर में जिसने घटना को अंजाम दिया है वो भी नशे की हालत में था - और पालघर की हमलावर भीड़ में भी, कुछ चश्मदीदों के मुताबिक, कई लोग शराब के नशे में थे. बुलंदशहर पुलिस के मुताबिक अनूपशहर कोतवाली इलाके में वारदात के वक्त हमलावर नशे में था. बुलंदशहर वाले ने अगर भांग पी रखी थी तो पालघर वालों ने संभवतः शराब.
दोनों ही घटनानाओं में चोरी की बातें हैं. बुलंदशहर में बताया जा रहा है कि आरोपी साधुओं का चिमटा उठा ले गया था और उसे लेकर साधुओं ने उसे खूब डांटा था. पालघर के वाकये में लोगों के बीच अफवाह फैली थी कि दोनों साधु बच्चों की चोरी करते हैं. बच्चों को चुरा कर उनके अंग बेच देने वाले गिरोह के लोग हैं.
बुलंदशहर की घटना भी निश्चित तौर पर टाली जा सकती थी, लेकिन पालघर की घटना तो पक्के तौर पर रोकी जा सकती थी. अगर पुलिस ने साधुओं की हत्या से पहले एक डॉक्टर और पुलिस टीम पर हमले को गंभीरता से लिया होता और एहतियाती उपाय किये होते या फिर घटना के दिन भी आला अफसरों और गृह मंत्रालय तक को अलर्ट किया होता तो - मजाल क्या कि भीड़ कुछ कर पाती. आस पास के थाने या किसी भी जिले या कहीं से भी फोर्स भेजी जा सकती थी - और पालघर की हिंसा पर उतारू भीड़ से साधुओं की जान बचायी जा सकती थी.
फिलहाल तो सवाल दोनों घटनाओं में फर्क या समानता का नहीं है - अब तो सवाल, दरअसल, घटनाओं को राजनीतिक रंग दिये जाने को लेकर है.
नसीहत दिये या तंज कसे?
अब जरा दोनों मुख्यमंत्रियों के फोन करने के मकसद को समझने की कोशिश करते हैं. ये तो साफ है कि दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने एक दूसरे के राज्यों में हुई साधुओं की हत्याओं को लेकर फोन किया - लेकिन सवाल ये है कि अगर योगी आदित्यनाथ ने उद्धव ठाकरे को फोन नहीं किया होता तो क्या योगी आदित्यनाथ को फोन रिसीव करने की जरूरत पड़ती?
योगी आदित्यनाथ जब चाहें अयोध्या या काशी या फिर मथुरा घूमते रहते हैं. वो सूबे के मुख्यमंत्री हैं और कहीं भी आ जा सकते हैं. बल्कि, ऐसे समझें कि ये अयोध्या, काशी और मथुरा ही हैं जिनकी योगी आदित्यनाथ को यूपी के सीएम की कुर्सी पर बिठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.
जब भी उद्धव ठाकरे को अयोध्या जाना होता है, वो योगी आदित्यनाथ से ही संपर्क करते हैं. उद्धव ठाकरे के अयोध्या पहुंचने से पहले ही शिवसेना प्रवक्ता और सांसद संजय राउत लखनऊ में डेरा डाल चुके होते हैं. कॉमन बात ये भी है कि दोनों ही शुरू से ही कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करते रहे हैं और उसका एक सिरा शुरू से ही अयोध्या से जुड़ा हुआ है.
दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने बात की और ट्विटर पर शेयर किया - निश्चित तौर पर दोनों ही के नजरिये में कानून व्यवस्था की बात नहीं है. योगी ने भी ये नहीं कहा कि वो फोन हत्यारों को सजा दिलाने के लिए कर रहे हैं, न कि हिंदू साधुओं की हत्या के लिए.
उद्धव ठाकरे ने भी फोन कर यही बताया कि जैसे मैंने एक्शन लिया वैसे ही आप भी लीजिये. हालांकि, उद्धव ने ये नहीं कहा है कि योगी भी आरोपी का नाम ट्विटर पर शेयर करें और साफ करें कि वो भी उसी समुदाय का है जो साधुओं का है - जैसा महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री ने किया.
उद्धव ठाकरे को मीडिया के सामने आकर बयान देना पड़ा - कि इस मामले को सांप्रदायिकता से न जोड़ें. कहने को तो संजय राउत अब भी यही कह रहे हैं - कि साधुओं की हत्या को सांप्रदायिक चश्मे से न देखा जाये - हो सकता है वो यूपी के मामले में अपील कर रहे हों या पालघर को लेकर - या फिर दोनों ही मामलों को एक तराजू पर रख कर तंज कस रहे हों.
देखा जाये तो योगी आदित्यनाथ को उद्धव ठाकरे को फोन करने की जरूरत भी नहीं थी - क्योंकि कानून व्यवस्था को लेकर केंद्र की मदद के आश्वासन को लेकर अमित शाह और उद्धव ठाकरे की बात तो हो ही चुकी थी - और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने महाराष्ट्र सरकार से पालघर की घटना पर रिपोर्ट भी तलब कर ली थी.
योगी आदित्यनाथ का उद्धव ठाकरे को फोन करने के पीछे की मजबूरी समझ में आती है - और फोन भी वैसे नहीं किया जैसे कोई कॉन्फिडेंशियल हो. योगी आदित्यनाथ ने उद्धव ठाकरे को फोन करके ट्विटर पर जानकारी भी दी. योगी की मजबूरी ये है कि वो खुद संन्यासी हैं और गोरक्षनाथ पीठ के मंदिर के महंत भी. चुनावों में बीजेपी उनकी इसी खासियत और छवि का फायदा उठाने के लिए देश भर में भेजती है - और वहां पहुंच कर भी योगी आदित्यनाथ अपनी छवि के मुताबिक बातें समझाते हैं. योगी के बयानों पर रिएक्शन होता है - भले ही वो हनुमान को दलित समुदाय का ही क्यों न साबित करने की कोशिश करें.
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