उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) जब तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहे, बीजेपी नेतृत्व से वो नीतीश कुमार की तरह ही जूझते रहे. फर्क बस ये रहा कि नीतीश कुमार बीजेपी (BJP) की हर चाल के खिलाफ चुपचाप काउंटर रणनीति अपनाते रहे हैं - और उद्धव ठाकरे लगातार ललकारते रहे. दोनों ही मामलों में नतीजे सभी के सामने हैं.
उद्धव ठाकरे के साथ प्लस प्वाइंट रहा कि जनाधार के मामले में वो नीतीश कुमारे बेहतर पोजीशन में रहे हैं - नीतीश कुमार को तो सुशासन बाबू की छवि गढ़ने से लेकर महादलित जैसे जाने कितने प्रयोग करने पड़े हैं.
जो परिस्थितियां नीतीश कुमार के सामने पैदा हुआ करती थीं, उद्धव ठाकरे भी उन सबसे दो-चार होते रहे. अगर हाल के राज्य सभा और विधान परिषद चुनावों की बात करें तो महाविकास आघाड़ी में उद्धव ठाकरे का हाल भी बिहार के महागठबंधन में नीतीश कुमार के जैसा ही हो गया था. नीतीश कुमार तो करीब सवा साल में ही पीछा छुड़ा कर पाला बदल लिये, उद्धव ठाकरे ढाई साल तक टिके रहे - अब तो ये भी सुनने में आ रहा है कि साल भर पहले ही उद्धव ठाकरे भी नीतीश कुमार की तरह एनडीए में वापसी के बारे में सोच रहे थे, लेकिन चूक गये. अगर बीजेपी के साथ तभी हो गये होते तो मुख्यमंत्री की कुर्सी भले गंवानी पड़ती लेकिन शिवसेना तो बची रह सकती थी.
अभी तो उद्धव ठाकरे और नीतीश कुमार एक अंतर साफ साफ नजर आ रहा है - जिस बीजेपी से जूझते हुए नीतीश कुमार कुर्सी और पार्टी दोनों बरकरार रखे हुए हैं, उद्धव ठाकरे सब कुछ गवां बैठे हैं. विधानसभा से लेकर लोक सभा तक. निचले स्तर पर भी रह रह कर रुझान आ ही रहे हैं और न जाने कितने कतार में हैं?
क्या ये 'परिवारवादी' राजनीति का रिजल्ट है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अभी परिवारवादी राजनीति के खिलाफ मुहिम चला रही है. उद्धव...
उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) जब तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहे, बीजेपी नेतृत्व से वो नीतीश कुमार की तरह ही जूझते रहे. फर्क बस ये रहा कि नीतीश कुमार बीजेपी (BJP) की हर चाल के खिलाफ चुपचाप काउंटर रणनीति अपनाते रहे हैं - और उद्धव ठाकरे लगातार ललकारते रहे. दोनों ही मामलों में नतीजे सभी के सामने हैं.
उद्धव ठाकरे के साथ प्लस प्वाइंट रहा कि जनाधार के मामले में वो नीतीश कुमारे बेहतर पोजीशन में रहे हैं - नीतीश कुमार को तो सुशासन बाबू की छवि गढ़ने से लेकर महादलित जैसे जाने कितने प्रयोग करने पड़े हैं.
जो परिस्थितियां नीतीश कुमार के सामने पैदा हुआ करती थीं, उद्धव ठाकरे भी उन सबसे दो-चार होते रहे. अगर हाल के राज्य सभा और विधान परिषद चुनावों की बात करें तो महाविकास आघाड़ी में उद्धव ठाकरे का हाल भी बिहार के महागठबंधन में नीतीश कुमार के जैसा ही हो गया था. नीतीश कुमार तो करीब सवा साल में ही पीछा छुड़ा कर पाला बदल लिये, उद्धव ठाकरे ढाई साल तक टिके रहे - अब तो ये भी सुनने में आ रहा है कि साल भर पहले ही उद्धव ठाकरे भी नीतीश कुमार की तरह एनडीए में वापसी के बारे में सोच रहे थे, लेकिन चूक गये. अगर बीजेपी के साथ तभी हो गये होते तो मुख्यमंत्री की कुर्सी भले गंवानी पड़ती लेकिन शिवसेना तो बची रह सकती थी.
अभी तो उद्धव ठाकरे और नीतीश कुमार एक अंतर साफ साफ नजर आ रहा है - जिस बीजेपी से जूझते हुए नीतीश कुमार कुर्सी और पार्टी दोनों बरकरार रखे हुए हैं, उद्धव ठाकरे सब कुछ गवां बैठे हैं. विधानसभा से लेकर लोक सभा तक. निचले स्तर पर भी रह रह कर रुझान आ ही रहे हैं और न जाने कितने कतार में हैं?
क्या ये 'परिवारवादी' राजनीति का रिजल्ट है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अभी परिवारवादी राजनीति के खिलाफ मुहिम चला रही है. उद्धव ठाकरे के बाद बीजेपी के निशाने पर तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और झारखंड में सीएम हेमंत सोरेन हैं. बाकियों की सूची अभी तक घोषित तौर पर सामने नहीं आयी है.
उद्धव ठाकरे और नीतीश कुमार में एक बड़ा और बुनियादी अंतर तो है ही. उद्धव ठाकरे को पकी पकायी खीर मिल गयी है, जबकि नीतीश कुमार ने हर कदम पर संघर्ष किया है - और नीतीश कुमार ने अपने बाद कोई आदित्य ठाकरे जैसा उत्तराधिकारी भी नहीं पेश किया है जो उनकी कमजोरी साबित हों. वरना, कोविड काल में नीतीश कुमार के मुकाबले काम को उद्धव ठाकरे का ज्यादा ही अच्छा माना गया. वैसे यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की वापसी के बाद ये भी साफ हो चुका है कि कोरोना संकटकाल में लोग चाहें जितना भी जूझते रहे, लेकिन वोट देने की बारी आयी तो उनकी प्राथमिकता अलग रही.
ये नीतीश कुमार की काबिलियत और राजनीतिक अनुभव ही है जो उद्धव ठाकरे की स्थिति अब तक टाले हुए हैं, जबकि वो धीरे धीरे लोक जनशक्ति पार्टी नेता चिराग पासवान की राजनीतिक स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं. 2020 के बिहार चुनाव के ठीक बाद अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के विधायकों को झटक लेने की बात कौन कहे, बीजेपी ने नीतीश कुमार की पार्टी के तब के अध्यक्ष आरसीपी सिंह को ही उनके खिलाफ खड़ा कर दिया - नीतीश कुमार को भी यूं ही चाणक्य तो कहा नहीं जाता, जब मौका मिला जब मौका आया बीजेपी या अपने एक नेता की परवाह न करते हुए अपनी मनमानी की. आरसीपी सिंह भी मंत्री पद से इस्तीफा देकर प्रतिक्षारत हैं. वैसे भी वो नौकरशाह ही रहे हैं.
लोक सभा स्पीकर ओम बिड़ला ने भी राहुल शेवाले (Rahul Shewale) को ठीक वैसे ही शिवसेना संसदीय दल का नेता मान लिया है, जैसे जुलाई, 2021 में मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार से पहले लोक जनशक्ति पार्टी के नेता के रूप में पशुपति कुमार पारस को मान्यता दे दी थी.
हाल-ए-उद्धव: कभी नीतीश, कभी चिराग
जैसे बिहार में बीजेपी के पास नीतीश कुमार का कोई विकल्प नहीं है, महाराष्ट्र में भी उद्धव ठाकरे को लेकर करीब करीब ऐसी ही स्थिति रही. हर मौके पर बीजेपी को काफी सोच समझ कर कदम उठाने पड़ते थे. मुश्किल राजनीतिक हालात में भी बीजेपी नेता बयान देने में भी संकोच करते थे - कंगना रनौत से लेकर नारायण राणे के केस तक लगातार एक जैसा ही माहौल देखने को मिला.
जब सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला तूल पकड़ रहा था तो उद्धव ठाकरे के खिलाफ केंद्रीय मंत्री नारायण राणे और उनके विधायक बेटे नितेश राणे को खड़ा कर दिया गया. नीतेश राणे तो आदित्य ठाकरे को बेबी पेंग्विन बोल कर घेरने की कोशिश करते रहे. हाल ही में उद्धव ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से ये पीड़ा भी जाहिर की कि कैसे उनके बेटे को टारगेट किया गया.
तब तो कंगना रनौत के मामले में महाराष्ट्र बीजेपी अध्यक्ष चंद्रकांत पंडित और डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस की बातों से तो ऐसा लगा जैसे वे उद्धव ठाकरे का ही सपोर्ट कर रहे हों - क्योंकि कंगना रनौत मुंबई को पीओके से जोड़ कर पेश करने लगी थीं. बीजेपी की हालत तो ये हो गयी थी कि कंगना रनौत के पास केंद्रीय मंत्री और एनडीए में सहयोगी रामदास आठवले को भेजना पड़ा था.
बीजेपी को हरदम ये ख्याल रखना पड़ रहा था कि कुछ ऐसा वैसा न हो जाये कि महाराष्ट्र के लोग उद्धव ठाकरे पर निजी हमला मान लें और पार्टी से नाराज हो जायें. नारायण राणे की गिरफ्तारी के दौरान तो ऐसी ही स्थिति से देवेंद्र फडणवीस को बचाने के लिए बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को खुद फ्रंट पर आना पड़ा था - क्योंकि देवेंद्र फडणवीस ये तो कह नहीं सकते थे कि नारायण राणे ने उद्धव ठाकरे को थप्पड़ मारने की बात बोल कर कर सही किया.
उद्धव आंख मूंदे बैठे रहे और खेल चलता रहा: जैसे नीतीश कुमार को बिहार में बीजेपी ने चारों ओर से घेर लिया है, उद्धव ठाकरे के साथ भी ठीक वैसा ही हुआ था. चूंकि महाराष्ट्र में चुनाव की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी, इसलिए तरीके अलग अपनाये गये. जब बीजेपी को लगा कि महाराष्ट्र में भी लोहा गरम हो चुका है, चिराग पासवान की तरह मोर्चे पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नेता राज ठाकरे और अमरावती सांसद नवनीत राणा को लगा दिया. दोनों ने अपने अपने तरीके से उद्धव ठाकरे को उकसाना और डैमेज करना शुरू कर दिया था. राणा दंपति को तो जेल तक जाना पड़ा था, लेकिन राज ठाकरे ने सही मौका देख कर शांत हो जाना ठीक समझा और किया भी वैसा ही.
पूरे ढाई साल उद्धव ठाकरे बीजेपी की चालों से वैसे ही जूझते रहे, जैसे बिहार में नीतीश कुमार अब भी झेल रहे हैं. नीतीश कुमार की अपनी कार्यकुशलता तो है ही वो हमेशा ही चौकन्ने रहते हैं. कहां क्या चल रहा है, आंख-कान-नाक सब खुला रखते हैं. कहते हैं 2017 में जब नीतीश कुमार ने अचानक महागठबंधन छोड़ने की घोषणा के साथ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था वो उनके राजनीतिक कौशल की बदौलत ही संभव हो सका था. जैसे ही नीतीश कुमार को भनक लगी कि लालू यादव उनको गच्चा देने वाले हैं, नीतीश कुमार एक्टिव हो गये - अगर वो वैसी तेजी नहीं दिखाते तो उद्धव ठाकरे की तरह तभी पैदल हो गये होते.
उद्धव ठाकरे बयान और भाषणों में उलझे रहे और बीजेपी धीरे धीरे अंदर ही अंदर मिशन में लगी रही - और एक दिन वो भी आया जब उद्धव ठाकरे के बिलकुल करीब बैठे कमजोर कड़ी एकनाथ शिंदे को खोज लिया. फिर तो सारा का सारा खेल ही बदल गया.
उद्धव ने खुद ही करायी फजीहत: जैसे पिछले साल लोक सभा में लोक जनशक्ति पार्टी का नेता बदल गया, इस बार शिवसेना के साथ हुआ है. चिराग पासवान की जगह पशुपति कुमार पारस को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय दल के नेता के रूप में स्पीकर ओम बिड़ला ने मान्यता दे दी - और चिराग पासवान देखते रह गये. चुनाव आयोग भी गये और जगह जगह हाथ पैर मारते रहे, लेकिन कहीं कुछ हुआ ही नहीं.
एलजेपी की ही तरह, अभी शिवसेना संसदीय दल के नेता के रूप में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट के सांसद राहुल शेवाले को भी मान्यता मिल गयी है. हालांकि, ये स्थिति टालने के लिए ही उद्धव ठाकरे ने राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा की थी. ये तो शुरू में ही मालूम पड़ गया था कि उद्धव ठाकरे के मजबूरी में लिये गये इस फैसला का भी कोई फायदा नहीं मिलने वाला है - और एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू की मुंबई यात्रा से ये साबित भी हो गया.
लोक जनशक्ति पार्टी में जो स्थिति चिराग पासवान की है, शिवसेना में बिलकुल वही स्थिति उद्धव ठाकरे की हो चुकी है. नेताओं ही नहीं दोनों पार्टियों में भी कई समानताएं नजर आ रही हैं. शिवसेना को लेकर भी एकनाथ शिंदे गुट के नेता पार्टी के टूटने से इनकार कर रहे हैं, लोक जनशक्ति पार्टी के केस में पशुपति कुमार पारस गुट के सांसदों का भी ऐसा ही कहना रहा है.
जैसे पशुपति कुमार पारस ने चिराग पासवान को लोक जनशक्ति पार्टी से निकाला नहीं है, एकनाथ शिंदे गुट ने शिवसेना की कार्यकारिणी तक बदल डाली है, लेकिन अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को ही बनाया हुआ है. जैसे विधानसभा में व्हिप का उल्लंघन करने वालों विधायकों की सूची से आदित्य ठाकरे का नाम हटा दिया गया था. मतलब, जैसे आदित्य ठाकरे को शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के पौत्र होने का फायदा मिला, उद्धव ठाकरे को बेटा होने का लाभ मिला है.
ये तो चुने हुए प्रतिनिधियों के बंटवारे का हिसाब किताब है, लेकिन चिराग पासवान की ही तरह उद्धव ठाकरे के पास भी अभी एक बड़ा मौका बचा हुआ है. शिवसेना की संपत्ति पर उद्धव ठाकरे का भी वैसे ही कब्जा बरकरार है जैसे चिराग पासवान का - चुनाव निशान का झगड़ा भी दोनों मामलों में मिलता जुलता ही है.
चिराग पासवान तो चुनावी राजनीति में अब तक कोई कमाल नहीं दिखा पाये हैं. बीते साल भर में बिहार में कई उपचुनाव हुए हैं, लेकिन किसी एक भी चुनाव में चिराग पासवान के उम्मीदवारों ने उम्मीद की कोई ऐसी किरण नहीं दिखायी है जिससे लगे कि भविष्य में चिराग पासवान भी अपने पिता रामविलास पासवान की तरह कोई करिश्मा या कमाल दिखा सकते हैं.
उद्धव ठाकरे के सामने भी चिराग पासवान जैसा ही चुनावी मौका आने वाला है. वो चाहें तो निगमों के चुनाव में करिश्मा दिखाने का मौका है, बशर्ते लोगों को वो समझा सकें कि बीजेपी की शह पर उनके ही अपने नेताओं ने न सिर्फ धोखा दिया है, बल्कि झूठे आरोप भी लगा रहे हैं.
राहुल शेवाले क्या इशारे कर रहे हैं?
राहुल शेवाले का दावा है कि शिवसेना टूटी नहीं है, बस पार्टी ने अपना नेता बदल लिया है. लोक जनशक्ति पार्टी के साथ भी तो बिलकुल ऐसा ही हुआ है - तो क्या ये मान लिया जाये कि एलजेपी की ही तरह बीजेपी नहीं चाहती कि शिवसेना भी टूटे?
क्या समझा जाये कि शिवसेना या उद्धव ठाकरे को खत्म नहीं करना चाहती, बल्कि महाराष्ट्र में शिवसेना और शिवसेना में उद्धव ठाकरे का असर कम करना चाहती है?
शिवसेना संसदीय दल के नये नेता राहुल शेवाले की बातों को समझने की कोशिश करें तो कुछ ऐसे ही संकेत मिलते हैं. राहुल शेवाले इंडिया टुडे टीवी के साथ बातचीत में यहां तक कह रहे हैं कि वो उद्धव ठाकरे को अब भी नेता मानते हैं और आगे भी मानते रहेंगे, बस संजय राउत को माइनस करके. फिर साफ भी करते हैं कि संजय राउत को नहीं बल्कि उनके विचारों को किनारे करके - और संजय राउत का विचार वो शिवसेना के कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाने को लेकर बताते हैं.
उद्धव-मोदी की वो मुलाकात पुनर्गठबंधन के लिए हुई थी! जून, 2021 में उद्धव ठाकरे ने दिल्ली का दौरा किया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. दोनों नेताओं की मुलाकात को लेकर तरह तरह की चर्चाएं भी हुईं - और तत्काल प्रभाव से खारिज भी कर दी गयीं. हो सकता है कि राहुल शेवाले के दावे की वजह राजनीतिक हो, लेकिन मुलाकात को लेकर वो वही बातें कर रहे हैं जिसके तब कयास लगाये गये थे.
राहुल शेवाले का दावा है, 'उद्धव ठाकरे ने सभी सांसदों से बातचीत के दौरान कहा था कि वो बीजेपी के साथ गठबंधन करना चाहते थे और गठबंधन को लेकर आ रही समस्याओं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर 2021 में बात भी की थी.'
मीडिया से बातचीत में राहुल शेवाले आगे की कहानी भी सिलसिलेवार समझाते हैं. जून में वो मुलाकात हुई थी और जुलाई में विधानसभा का सेशन था. सत्र के दौरान बीजेपी के 12 विधायकों को सस्पेंड कर दिया गया. जब बीजेपी के सीनियर नेताओं को लगा कि एक तरफ वे गठबंधन की बात कर रहे हैं, लेकिन उनके विधायकों को निलंबित किया जा रहा है. विधायकों पर गाली-गलौच और मारपीट के आरोप लगे थे.
राहुल शेवाले के मुताबिक, बीजेपी नेताओं ने गठबंधन को लेकर कई बार बातचीत की, लेकिन उद्धव ठाकरे की तरफ से कोई सकारात्मक रूख नहीं दिखा. कहते हैं, 'हम सांसदों ने कई बार उद्धव ठाकरे के साथ बैठक की और गठबंधन के लिए कहा, लेकिन हमेशा यही कहते कि वो खुद भी ऐसा ही चाहते हैं, लेकिन बीजेपी की तरफ से ऐसा कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिल रहा है.'
सबसे दिलचस्प बात ये है कि राहुल शेवाले एकनाथ शिंदे को सारे ही सम्मान बख्शने के बावजूद उद्धव ठाकरे को भी नेता मानते हैं और सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई के काफी कुरेदने पर इंडिया टुडे टीवी से बातचीत में ये भी मान लेते हैं कि उद्धव ठाकरे और बीजेपी के बीच पैच-अप की गुंजाइश खत्म नहीं हुई है.
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