महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे पर विराम उस वक़्त लगा जब शिवसेना के 55 में से 40 विधायकों के बूते एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और देवेंद्र फडणवीस उनके डिप्टी बने. लेकिन शिवसेना के पास जो कुछ बचा है उसे उद्धव ठाकरे से हासिल करने की बड़ी लड़ाई शिंदे के लिए अब शुरू हुई है. ध्यान रहे उद्धव ठाकरे को जो 56 साल पुरानी पार्टी अपने पिता से विरासत में मिली थी, उसमें अभी बहुत कुछ बाकी है. चाहे वो पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह हो या फिर सांसद और बाकी विधायक, बीएमसी और अन्य निगम, राष्ट्रीय कार्यकारिणी, पदाधिकारी व्यापारियों, युवाओं और महिलाओं के लिए संबद्ध विंग, तमाम चीजें हैं जिनपर मौजूदा वक़्त में उद्धव ठाकरे का कब्ज़ा है. उद्धव के मामले में दिलचस्प ये भी है कि जो 15 विधायक अभी उनके पास बचे हैं उनका भविष्य क्या होगा? इसे लेकर भी एक गफलत की स्थिति बनी हुई है.
पार्टी और उससे जुडी चीजों को लेकर शिंदे खेमे ने साफ़ कहा है कि चूंकि उनके पास बहुमत संख्या है, और सभी विधायक एक ही धनुष और तीर के निशान पर चुने गए थे, इसलिए फ्लोर टेस्ट के दौरान ईडी (एकनाथ-देवेंद्र) गठबंधन का समर्थन नहीं करने के लिए अल्पसंख्यक समूह को अयोग्यता का सामना करना पड़ सकता है. उद्धव ठाकरे ने भी कुछ बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने पर जोर दिया है. ऐसे विधायकों का क्या होगा अब सबकी निगाहें अदालत की तरफ हैं.
लेकिन सिर्फ इसलिए कि शिंदे के पास विधायकों का बहुमत है, वह स्वतः ही पार्टी के नाम और उसके चुनाव चिह्न पर दावा नहीं कर सकते. भारत का चुनाव आयोग (ईसीआई) इन मामलों का फैसला करेगा. बहरहाल, शिंदे ने अपने गुट का नाम शिवसेना बालासाहेब ठाकरे रखने का प्रस्ताव रखा है,...
महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे पर विराम उस वक़्त लगा जब शिवसेना के 55 में से 40 विधायकों के बूते एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और देवेंद्र फडणवीस उनके डिप्टी बने. लेकिन शिवसेना के पास जो कुछ बचा है उसे उद्धव ठाकरे से हासिल करने की बड़ी लड़ाई शिंदे के लिए अब शुरू हुई है. ध्यान रहे उद्धव ठाकरे को जो 56 साल पुरानी पार्टी अपने पिता से विरासत में मिली थी, उसमें अभी बहुत कुछ बाकी है. चाहे वो पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह हो या फिर सांसद और बाकी विधायक, बीएमसी और अन्य निगम, राष्ट्रीय कार्यकारिणी, पदाधिकारी व्यापारियों, युवाओं और महिलाओं के लिए संबद्ध विंग, तमाम चीजें हैं जिनपर मौजूदा वक़्त में उद्धव ठाकरे का कब्ज़ा है. उद्धव के मामले में दिलचस्प ये भी है कि जो 15 विधायक अभी उनके पास बचे हैं उनका भविष्य क्या होगा? इसे लेकर भी एक गफलत की स्थिति बनी हुई है.
पार्टी और उससे जुडी चीजों को लेकर शिंदे खेमे ने साफ़ कहा है कि चूंकि उनके पास बहुमत संख्या है, और सभी विधायक एक ही धनुष और तीर के निशान पर चुने गए थे, इसलिए फ्लोर टेस्ट के दौरान ईडी (एकनाथ-देवेंद्र) गठबंधन का समर्थन नहीं करने के लिए अल्पसंख्यक समूह को अयोग्यता का सामना करना पड़ सकता है. उद्धव ठाकरे ने भी कुछ बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने पर जोर दिया है. ऐसे विधायकों का क्या होगा अब सबकी निगाहें अदालत की तरफ हैं.
लेकिन सिर्फ इसलिए कि शिंदे के पास विधायकों का बहुमत है, वह स्वतः ही पार्टी के नाम और उसके चुनाव चिह्न पर दावा नहीं कर सकते. भारत का चुनाव आयोग (ईसीआई) इन मामलों का फैसला करेगा. बहरहाल, शिंदे ने अपने गुट का नाम शिवसेना बालासाहेब ठाकरे रखने का प्रस्ताव रखा है, जिसका उद्धव ठाकरे ने कड़ा विरोध किया है. अभी के लिए, ECI रिकॉर्ड में, उद्धव ठाकरे पार्टी अध्यक्ष बने हुए हैं.
जैसा कि हम बता चुके हैं शिंदे और उद्धव के बीच तमाम चीजों का फैसला इलेक्शन कमीशन करेगा लेकिन महाराष्ट्र में कुछ चीजें जरूर ऐसी हैं जिनपर शिंदे और उद्धव के बीच विवाद होने की गुंजाइश है. ऐसी ही एक चीज है शिवसेना सांसदों की संख्या. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में शिवसेना के पास 19 संसद लोकसभा में और तीन राज्यसभा सांसद हैं, जिनमें संजय राउत और प्रियंका चतुर्वेदी शामिल हैं.
माना जा रहा है कि यह संख्या इसलिए भी बदल सकती है क्योंकि शिंदे खेमा इन सांसदों के संपर्क में है. भले ही उद्धव अपने सांसदों को अपने पाले मकें रखने की कोशिश कर रहे हों लेकिन तय है कि कई सांसद किसी भी क्षण पाला बदल सकते हैं.
ऐसा क्यों होगा? यदि सवाल ये हो तो इसकी बड़ी वजह है उद्धव का पार्टी की विचारधारा और हिंदुत्व से समझौता करना. माना जा रहा है कि यही वो कारण था जिसने विधायकों को बगावत के लिए मजबूर किया और वो ख़ुशी ख़ुशी एकनाथ शिंदे के साथ आए.
दूसरी एक बड़ी वजह ये भी है कि शिवसेना के कई सांसद 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस और एनसीपी के साथ सीट शेयरिंग नहीं करना चाहते. ध्यान रहे 2019 के आम चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने महाराष्ट्र में इतिहास रचा था और 48 में से 41 सीटों पर जीत दर्ज की थी. मौजूदा वक़्त में शिवसेना के तमाम सांसद ऐसे हैं जो इस पशु पेश में हैं कि क्या शिंदे और भाजपा का साथ आया 2019 जैसा करिश्मा कर पाएगा?
यदि शिवसेना का कोई भी सांसद पाला बदलता है और उद्धव का साथ छोड़ता है तो ये उद्धव ठाकरे के लिए एक बड़े चैलेंज के रूप में देखा जाएगा. ऐसा इसलिए भी कि उत्तर प्रदेश के बाद ये महाराष्ट्र ही है जो इस बात का फैसला करता है कि दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठेगा. सांसदों के अलावा शिवसेना और शिंदे के लिए अगली चुनौती है बीएमसी चुनाव.
महाराष्ट्र में इस साल के अंत में कई नगर निगम चुनाव होने की संभावना है. लेकिन बीएमसी चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण महाराष्ट्र के सन्दर्भ में कुछ नहीं है. इसी चुनाव के बाद इस बात का फैसला होता है कि मुंबई में किसकी तूती बोलेगी. शिवसेना ने पहले भाजपा के साथ गठबंधन में और अब इसके बिना, 1997 के बाद से भारत के सबसे अमीर नगर निगम को नियंत्रित किया है.
अभी, शिवसेना और भाजपा के 227 सदस्यीय सदन में क्रमशः 84 और 82 सदस्य हैं. माना जा रहा है कि इस साल वार्ड परिसीमन की कवायद के बाद 236 सीटों पर उसका कब्जा हो जाएगा. अब सवाल यह है कि शिंदे की बगावत का बीएमसी चुनावों पर क्या असर पड़ेगा? सच तो यह है कि शिंदे के कुछ विधायक ही मुंबई से हैं. देखना होगा कि पार्षद और पार्टी कार्यकर्ता किस तरफ जाते हैं.
आदित्य ठाकरे मुंबई के वर्ली से विधायक हैं और बीएमसी चुनाव में शिवसेना की जीत सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. लेकिन उद्धव और आदित्य दोनों के लिए मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं है. शिवसेना मराठी वोटों पर सेंध लगाने की जुगत में तो है लेकिन इतना तय है कि इनके लिए शिंदे और उनका गुट अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ने वाला.
मामले में दिलचस्प तथ्य ये भी है. शरद पवार की एनसीपी भी मराठी मतदाताओं के बीच खासी लोकप्रिय है. वहीं शिंदे और उद्धव दोनों के लिए कांग्रेस और एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी महाराष्ट्र में परेशानी खड़ी करने का पूरा सामर्थ्य रखते हैं. इस सब बातों के बीच जिक्र अगर भाजपा का हो तो हमेशा की तरह इस बात भी उसकी नजर गैर मराठी वोटर्स पर रहेगी.
शिवसेना की बड़ी चुनौती कांग्रेस भी है. महाराष्ट्र में जिस तरह एंटी कांग्रेस लोगों पर हावी है गठबंधन में रहने के कारण इसका खामियाजा शिवसेना को भुगतना पड़ सकता है. जिक्र उद्धव ठाकरे की संभावित परेशानियों का हुआ है तो हम ठाणे और बाकी के महाराष्ट्र को किसी भी सूरत में ख़ारिज नहीं कर सकते. ठाणे नगर निगम पर शिवसेना का पिछले 30 सालों से कब्ज़ा है.
क्योंकि ठाणे में मेयर भी शिवसेना का है इसलिए अब तक पार्टी को बड़ा फायदा हुआ है लेकिन अब जबकि पार्टी में उद्धव और एकनाथ शिंदे के बीच मतभेद हो गया है तो हमारे लिए ये जान लेना जरूरी है कि ठाणे और आसपास में शिंदे की गहरी पैठ है. दिलचस्प ये कि राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद पार्टी के तमाम पार्षद ऐसे हैं जिन्होंने शिंदे को समर्थन देने का वादा किया है.
क्योंकि कल्याण डोंबिवली महानगर पालिका पर भी शिवसेना का प्रभुत्व रहा है इसलिए जो कुछ भी ठाणे में होगा उसोया5 सीधा असर हमें कल्याण डोंबिवली महानगर पालिका के अलावा मीरा भायंदर और पालघर में भी देखने को मिलेगा.
इन तमाम चीजों के बाद जो सबसे बड़ी चुनौती हमें उद्धव ठाकरे के लिए नजर आ रही है वो हैं कार्यालय और पदाधिकारी. क्योंकि अब सत्ता की चाभी एकनाथ शिंदे के पास है और साथ ही वो अपने को बाल ठाकरे के हिंदुत्व का पैरोकार बता रहे हैं तो ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि भले ही उद्धव ने पार्टी के पदाधिकारियों से मीटिंग का दौर चला लिया हो लेकिन फायदा एकनाथ शिंदे को ही मिलेगा.
जैसे महाराष्ट्र के हाल हैं चाहे वो उद्धव ठाकरे हों या फिर एकनाथ शिंदे दोनों ही एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भा रहे हैं. बावजूद इसके कुछ राजनीतिक विश्लेषक ऐसे भी हैं जो इसबात को लेकर एकमत हैं कि उद्धव और एकनाथ शिंदे के बीच की ये रार बहुत ज्यादा दिनों तक नही चलेगी. ये तर्क हमें इस लिए भी मजबूत लगते हैं क्यों कि बगावत के बाद से ही एकनाथ शिंदे इस बात को दोहरा रहे हैं कि उनका उद्देश्य पार्टी तोड़ना नहीं है.
वहीं जब हम उद्धव ठाकरे का रुख करते हैं तो हमेशा ही उन्होंने इस बात पर बल दिया कि महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री 'मराठी मानुष' ही बने और अब जबकि ऐसा हो गया है तो क्या पता पार्टी और अपना राजनीतिक भविष्य बचाने के लिए उद्धव फिर से शिंदे के साथ एक मंच पर आ जाएं. यदि ऐसा हो गया तो क्या पता कल हम उद्धव को फडणवीस और शिंदे की बदौलत पीएम मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से हाथ मिलाते भी देख लें.
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