शिवसेना की दशहरा रैली (Dussehra Rally) में नजारा तो इस बार अलग दिखना ही था. शक्ति प्रदर्शन के लिए शिवसेना के दोनों गुटों के लिए मौका भी तो खास था. मंच तो अलग अलग मैदान में बने थे, लेकिन उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) और एकनाथ शिंदे एक दूसरे के खिलाफ ऐसे बरस रहे थे कि लगा जैसे आमने सामने हों.
असल में रैली से पहले एक लड़ाई तो जगह को लेकर ही लड़ी जा चुकी थी. शिवाजी पार्क में रैली करने के लिए ठाकरे गुट और शिंदे गुट ने अनुमति के लिए अपना अपना आवेदन कर रखा था, लेकिन बीएमसी ने दोनों आवेदनों को खारिज कर दिया था. बीएमसी कहना रहा कि मुंबई पुलिस ने कानून व्यवस्था से जुड़े जो मुद्दे उठाये हैं उसके आधार अनुमति नहीं दी जा सकती.
फिर मामला अदालत पहुंचा और बॉम्बे हाई कोर्ट ने ठाकरे गुट को शिवाजी पार्क में 2 अक्टूबर से 6 अक्टूबर के बीच दशहरा रैली की अनुमित दे दी. साथ में ये हिदायत भी कि कानून व्यवस्था बनाये रखना होगा. रैली के दौरान पुलिस रिकॉर्डिंग करेगी - और कुछ भी गलत हुआ तो बाद में ऐसा कार्यक्रम को जारी रखने की अनुमति नहीं मिलने वाली है.
और इस तरह उद्धव ठाकरे की ये जीत मानी गयी क्योंकि कोर्ट ने उनको मैदान से नहीं हटने दिया. थक हार कर एकनाथ शिंदे को नयी जगह तलाशनी पड़ी और उनकी रैली बांद्रा कुर्ला कॉम्पलेक्स ग्राउंड पर हुई. हालांकि, रैली के मंच से मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) ने पूरा क्रेडिट खुद ही लेने की कोशिश की. एकनाथ शिंदे ने दावा किया, 'दशहरा रैली के लिए हमने शिवाजी पार्क के लिए पहले अर्जी दी थी लेकिन एक मुख्यमंत्री होने के नाते राज्य की कानून व्यवस्था को बरकरार रखना भी मेरी जिम्मेदारी है... अब आप समझ गये होंगे कि हमने ये फैसला क्यों किया?'
शिवसेना के दोनों गुटों की जोर आजमाइश को लेकर महसूस यही किया गया कि ताकत दिखाने के लिए न सिर्फ रैली के लिए किराये की भीड़ की मदद ली गयी, बल्कि एक्शन और भाषण हर तरीके से एक दूसरे के मुकाबले खुद को बीस साबित करने की कोशिश की गयी - लेकिन हकीकत का पता तो आने वाले किसी चुनाव...
शिवसेना की दशहरा रैली (Dussehra Rally) में नजारा तो इस बार अलग दिखना ही था. शक्ति प्रदर्शन के लिए शिवसेना के दोनों गुटों के लिए मौका भी तो खास था. मंच तो अलग अलग मैदान में बने थे, लेकिन उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) और एकनाथ शिंदे एक दूसरे के खिलाफ ऐसे बरस रहे थे कि लगा जैसे आमने सामने हों.
असल में रैली से पहले एक लड़ाई तो जगह को लेकर ही लड़ी जा चुकी थी. शिवाजी पार्क में रैली करने के लिए ठाकरे गुट और शिंदे गुट ने अनुमति के लिए अपना अपना आवेदन कर रखा था, लेकिन बीएमसी ने दोनों आवेदनों को खारिज कर दिया था. बीएमसी कहना रहा कि मुंबई पुलिस ने कानून व्यवस्था से जुड़े जो मुद्दे उठाये हैं उसके आधार अनुमति नहीं दी जा सकती.
फिर मामला अदालत पहुंचा और बॉम्बे हाई कोर्ट ने ठाकरे गुट को शिवाजी पार्क में 2 अक्टूबर से 6 अक्टूबर के बीच दशहरा रैली की अनुमित दे दी. साथ में ये हिदायत भी कि कानून व्यवस्था बनाये रखना होगा. रैली के दौरान पुलिस रिकॉर्डिंग करेगी - और कुछ भी गलत हुआ तो बाद में ऐसा कार्यक्रम को जारी रखने की अनुमति नहीं मिलने वाली है.
और इस तरह उद्धव ठाकरे की ये जीत मानी गयी क्योंकि कोर्ट ने उनको मैदान से नहीं हटने दिया. थक हार कर एकनाथ शिंदे को नयी जगह तलाशनी पड़ी और उनकी रैली बांद्रा कुर्ला कॉम्पलेक्स ग्राउंड पर हुई. हालांकि, रैली के मंच से मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) ने पूरा क्रेडिट खुद ही लेने की कोशिश की. एकनाथ शिंदे ने दावा किया, 'दशहरा रैली के लिए हमने शिवाजी पार्क के लिए पहले अर्जी दी थी लेकिन एक मुख्यमंत्री होने के नाते राज्य की कानून व्यवस्था को बरकरार रखना भी मेरी जिम्मेदारी है... अब आप समझ गये होंगे कि हमने ये फैसला क्यों किया?'
शिवसेना के दोनों गुटों की जोर आजमाइश को लेकर महसूस यही किया गया कि ताकत दिखाने के लिए न सिर्फ रैली के लिए किराये की भीड़ की मदद ली गयी, बल्कि एक्शन और भाषण हर तरीके से एक दूसरे के मुकाबले खुद को बीस साबित करने की कोशिश की गयी - लेकिन हकीकत का पता तो आने वाले किसी चुनाव के नतीजे ही समझा सकेंगे.
एक्शन से ताकत दिखाने की कोशिश
उद्धव ठाकरे दशहरा रैली में भीड़ देख कर गदगद हो गये थे. और खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे. जोश से लबालब होकर उद्धव ठाकरे ने एकनाथ शिंदे का नाम ले लेकर खूब बुरा भला कहा. जवाब देने में पीछे तो एकनाथ शिंदे भी नहीं रहे, लेकिन मंच पर जिस तरीके से ठाकरे परिवार के लोगों को बिठाकर प्रदर्शन किया वो भी लोगों को मैसेज देने की एक कोशिश ही रही.
निश्चित तौर पर परिवार के लोगों को एकनाथ शिंदे के साथ देख कर उद्धव ठाकरे को थोड़ी निराशा तो हुई ही होगी - दोनों ही मंचों पर खाली कुर्सियों ने लोगों का ध्यान तो खींचा ही, जानने की दिलचस्पी भी पैदा कर दी थी.
पार्टी के बाद परिवार पर नजर: शिवसेना से बगावत कर मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एकनाथ शिंदे की पूरी कोशिश उद्धव ठाकरे को ठिकाने लगाने की रही है. चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद उद्धव ठाकरे को परिवार के लोगों का एकनाथ शिंदे के पास खिसकना भी परेशान करने वाला है.
एकनाथ शिंदे ने रैली के मंच पर जानबूछ कर उद्धव ठाकरे के बड़े भाई जयदेव ठाकरे को बगल में बिठा रखा था. और सिर्फ जयदेव ठाकरे की ही कौन कहे, उद्धव ठाकरे की भाफी स्मिता ठाकरे भी रैली में मौजूद थीं.
शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे की विरासत के असली हकदार साबित करने की कोशिश में जुटे एकनाथ शिंदे ने तो उनके बड़े भाई के बेटे बिंदुमाधव के बेटे निहार को भी बुला रखा था - और तो और कभी बाल ठाकरे के करीबी और निजी स्टाफ में रहे चंपा सिंह थापा को भी एकनाथ शिंदे ने रैली में बुला रखा था.
ये तो नहीं लगता कि ठाकरे परिवार के लोगों को जुटा कर एकनाथ शिंदे कुछ ज्यादा हासिल कर लेंगे. क्योंकि रैली में पहुंचे सारे ही लोगों में से किसी का भी कोई अपना जनाधार नहीं है, जो एकनाथ शिंदे को वोट दिला सकें - लेकिन चुनावों से पहले ये संदेश तो भेजा ही जा सकता है कि पार्टी ही नहीं, बल्कि परिवार के लोग भी उद्धव ठाकरे के साथ नहीं हैं.
किराये की भीड़: मुंबई के शिवाजी पार्क में जुटे लोगों से मुखातिब उद्धव ठाकरे ने कहा कि ऐसी भीड़ का जुटना दुर्लभ और ऐतिहासिक है. रैली में मौजूद लोगों से उद्धव ठाकरे ने कहा कि उनका आभार जताने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं.
बोले, 'ये प्यार पैसों से नहीं खरीदा जा सकता... वो लोग धोखेबाज हैं... हां, एकनाथ शिंदे और उनके खेमे में शामिल लोग धोखेबाज हैं... यहां एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे पैसों से लाया गया है. यही ठाकरे परिवार की विरासत है.'
हालांकि, मीडिया में आयी रिपोर्ट बता रही हैं कि लोगों से बातचीत करके ऐसा लग रहा था जैसे वे जुटाये गये हों. जैसा कि आम तौर पर राजनीतिक रैलियों में जगह जगह होता रहा है - और ऐसी समझ दोनों ही रैलियों के बारे में बनी है. असल में बातचीत में लोग ये नहीं बता पा रहे थे कि वे किसका भाषण सुनने पहुंचे थे.
माना जाता है कि शिवाजी पार्क में मुंबई के लोग ही ज्यादा होते हैं, लेकिन इस बार गांवों के लोग भी आये हुए थे - चूंकि दोनों ही रैलियों में एक से बढ़ कर एक भीड़ थी, इसलिए बहुत कुछ फर्क कर पाना भी मुश्किल हो रहा था.
और मंचों पर खाली कुर्सियों का संदेश: शिवाजी पार्क में उद्धव ठाकरे ने जो मंच बना रखा था उस पर दो दो खाली कुर्सियां रखी गयी थीं. ठीक वैसे ही एक बड़ी सी कुर्सी एकनाथ शिंदे की रैली के मंच पर भी रखी हुई थी.
मंच पर पहुंचने के बाद एकनाथ शिंदे ने खाली कुर्सी के पास सिर झुकाकर प्रणाम किया. असल में वो खाली कुर्सी बाल ठाकरे के लिए रखी गयी थी - और कार्यक्रम शुरू करने से पहले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने बाल ठाकरे को श्रद्धांजलि दी.
उद्धव ठाकरे के मंच पर रखी गयी दो कुर्सियों में से एक पर तो संजय राउत का नाम लिखा हुआ था. शिवसेना सांसद संजय राउत फिलहाल पात्रा चाल घोटाले में जेल में हैं - और दूसरी कुर्सी शिवसेना नेता मनोहर जोशी के लिए रखी गयी थी. शिवसेना नेता मनोहर जोशी लोक सभा के स्पीकर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. दोनों खाली कुर्सियां उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे के पास ही रखी गयी थीं.
उद्धव ने बतायी गद्दारी, शिंदे की नजर में गदर
उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे कहने को तो अलग अलग मैदानों में अपनी अपनी रैलियां कर रहे थे, लेकिन उनकी बातें सुन कर ऐसा लगता है जैसे आमने सामने की प्रतियोगिता चल रही हो. दरअसल, उद्धव ठाकरे ने कुछ नया नहीं बोला, सिवा एकनाथ शिंदे की रावण से तुलना करने के. बीजेपी के खिलाफ भी उद्धव ठाकरे ने पुरानी बातें ही की और अपने बारे में हिंदुत्व को लेकर की जा रही बातों का जवाब भी दिया - शायद यही वजह रही कि एकनाथ शिंदे के भाषण से ऐसा लग रहा था जैसे चुन चुन कर अपने ऊपर लगाये जा रहे हर इल्जाम का जवाब दे रहे हों.
दशहरे का मौका देख उद्धव ठाकरे ने एकनाथ शिंदे की रावण से भी तुलना कर डाली. कहने लगे, 'अब रावण भी बदल गया है... अब रावण के दस सिर नहीं हैं, बल्कि उसके पास 50 बक्से हैं... वो खोखासुर है जो बहुत खतरनाक है.'
उद्धव ठाकरे कह रहे थे, जिन लोगों को मैंने जिम्मेदारी दी थी वो साजिश रच रहे थे... ऐसा फिर से नहीं होगा. वो भूल गये कि मैं सिर्फ उद्धव ठाकरे नहीं हूं... मैं उद्धव बालासाहेब ठाकरे हूं.
अपनी रैली में एकनाथ शिंदे बार बार यही समझाने और साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि असली शिवसेना के मालिक वही हैं, न कि उद्धव ठाकरे. एकनाथ शिंदे का कहना रहा, शिवसेना न उद्धव ठाकरे की है, न एकनाथ शिंदे की है - ये शिवसेना सिर्फ और सिर्फ बालासाहेब ठाकरे के विचारों की है.
बोले, विरासत विचारों की होती है... हम बालासाहेब ठाकरे के विचारों के वारिस हैं.
फिर एक बार जब शुरू हुए तो खुद को गद्दार कहे जाने के खिलाफ जम कर भड़ास निकाली. कहने लगे, हमारे लिए गद्दार और खोखे शब्द का इस्तेमाल किया गया... गद्दारी हुई है लेकिन वो गद्दारी 2019 में हुई थी... जो चुनाव हमने लड़ा था. आपने नतीजों के बाद बीजेपी को छोड़कर महाविकास आघाड़ी गठबंधन बना लिया... वो गद्दारी थी. बाला साहेब ठाकरे के विचारों के साथ आपने गद्दारी की थी.
एकनाथ शिंदे समझा रहे थे, एक तरफ बालासाहेब ठाकरे की तस्वीर और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की तस्वीर चुनाव से पहले लगाई थी. लोगों ने गठबंधन के नाम पर वोट दिया था. लोग चाहते थे कि शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार बने... आपने वोटर के साथ विश्वासघात किया है... महाराष्ट्र की जनता के साथ गद्दारी की है.
लोग सुन रहे थे और एकनाथ शिंदे बोले जा रहे थे, आपने बालासाहेब ठाकरे के विचारों को बेच दिया... हम पर आरोप लगाया कि बाप चुराने वाली टोली पैदा हो गई है... आपने तो बालासाहेब ठाकरे के विचारों को बेच दिया.
और फिर एकनाथ शिंदे ने ये भी समझा दिया कि गद्दारी तो उद्धव ठाकरे ने की है, "आप हमें गद्दार कह रहे हो... हमने जो किया वो गद्दारी नहीं है, वो गदर है... गदर. गदर का मतलब होता है क्रांति. हमने क्रांति की है."
मराठी में कहें तो ये लड़ाई चालू आहे. उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के तेवर बरकरार हैं. एकनाथ शिंदे तो हर कदम पर जीते हुए लगते हैं, उद्धव ठाकरे हर कदम पर हारे हुए. एकनाथ शिंदे के पास सत्ता है, ज्यादातर विधायकों का समर्थन है, लेकिन उद्धव ठाकरे के पास जो कुछ बचा है अभी दिखायी नहीं पड़ रहा है. तभी तो शक हो रहा है कि उद्धव ठाकरे के पास कुछ बचा भी है या नहीं?
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि रैलियों की भीड़ नहीं, मंचों पर रखी गयी खाली कुर्सियां नहीं, मंचों पर बिठाये गये लोग नहीं. ये तो सिर्फ चुनावों के नतीजे ही बता पाएंगे कि शिवसेना की विरासत वास्तव में किसके पास बची है - एकनाथ शिंदे की तरफ शिफ्ट हो चुकी है या फिर उद्धव ठाकरे के पास बरकरार है.
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