विश्लेषण में आगे बढ़ें उससे पहले दो चीजें साफ़ करना चाहता हूं. पहला यह कि मैं अडानी के पेरोल पर नहीं हूं और उनकी कंपनी से मुझे किसी भी तरह का कोई फायदा नहीं मिल रहा है. दूसरा- किसी आर्थिक-सामजिक या राजनीतिक फायदे के लिए मैं यहां उनकी कंपनी के प्रवक्ता के तौर पर बचाव करने नहीं आया हूं. देश और समाज के प्रति मेरे पेशे की जो जिम्मेदारी है, उसके तहत दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश कर रहा हूं.
अडानी भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बन चुके हैं. कारोबारी पहले भी देश की राजनीति में मुद्दा होते थे- लेकिन तब सिर्फ यह फर्क यह था कि टाटा, बिरला, बजाज, अंबानी या फिर अडानी की जगह अमेरिका की कोई डाऊ केमिकल, एनरान या रूस की रेसाटॉम (कुडनकुलम) और इटली के कारोबारी ओतावियो क्वात्रोची आदि मुद्दे होते थे. कहने का मतलब यह कि पहले भारतीय राजनीति में विदेशी कंपनियों के खिलाफ जनभावना दिखती थी.
अब टाटा, रिलायंस जैसी देसी कंपनियों को झेलना पड़ता है. पिछले दो दशक में इसके राजनीतिक असर भी दिखे. फिलहाल निशाने पर अडानी ग्रुप का एक प्रोजेक्ट है. मुझे कारोबार की बहुत समझ नहीं- लेकिन राजनीतिक विरोध का जो ट्रेंड दिख रहा है, इतना तो समझ ही सकता हूं कि शायद देश, कारोबारी रूप से ताकतवर बन रहा है. अडानी पर हो रहे विरोधों ने मेरा भरोसा और बढ़ा दिया है. चूंकि मामला हमपेशा है और मैं किसी मीडिया सिंडिकेट में भी नहीं हूं तो अडानी ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय पत्रकार रवीश कुमार 'पांडे' के एनडीटीवी प्रकरण को शामिल कर कोई पेशेवर जोखिम मोल नहीं लेना चाहता. तो यहां अडानी और एनडीटीवी के मुद्दे को किसी दूसरे 'वीर बहादुर' के जिम्मे छोड़कर आगे बढ़ा जाए. वैसे अडानी का विरोध एनडीटीवी प्रकरण में भी हो ही रहा है.
विश्लेषण में आगे बढ़ें उससे पहले दो चीजें साफ़ करना चाहता हूं. पहला यह कि मैं अडानी के पेरोल पर नहीं हूं और उनकी कंपनी से मुझे किसी भी तरह का कोई फायदा नहीं मिल रहा है. दूसरा- किसी आर्थिक-सामजिक या राजनीतिक फायदे के लिए मैं यहां उनकी कंपनी के प्रवक्ता के तौर पर बचाव करने नहीं आया हूं. देश और समाज के प्रति मेरे पेशे की जो जिम्मेदारी है, उसके तहत दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश कर रहा हूं.
अडानी भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बन चुके हैं. कारोबारी पहले भी देश की राजनीति में मुद्दा होते थे- लेकिन तब सिर्फ यह फर्क यह था कि टाटा, बिरला, बजाज, अंबानी या फिर अडानी की जगह अमेरिका की कोई डाऊ केमिकल, एनरान या रूस की रेसाटॉम (कुडनकुलम) और इटली के कारोबारी ओतावियो क्वात्रोची आदि मुद्दे होते थे. कहने का मतलब यह कि पहले भारतीय राजनीति में विदेशी कंपनियों के खिलाफ जनभावना दिखती थी.
अब टाटा, रिलायंस जैसी देसी कंपनियों को झेलना पड़ता है. पिछले दो दशक में इसके राजनीतिक असर भी दिखे. फिलहाल निशाने पर अडानी ग्रुप का एक प्रोजेक्ट है. मुझे कारोबार की बहुत समझ नहीं- लेकिन राजनीतिक विरोध का जो ट्रेंड दिख रहा है, इतना तो समझ ही सकता हूं कि शायद देश, कारोबारी रूप से ताकतवर बन रहा है. अडानी पर हो रहे विरोधों ने मेरा भरोसा और बढ़ा दिया है. चूंकि मामला हमपेशा है और मैं किसी मीडिया सिंडिकेट में भी नहीं हूं तो अडानी ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय पत्रकार रवीश कुमार 'पांडे' के एनडीटीवी प्रकरण को शामिल कर कोई पेशेवर जोखिम मोल नहीं लेना चाहता. तो यहां अडानी और एनडीटीवी के मुद्दे को किसी दूसरे 'वीर बहादुर' के जिम्मे छोड़कर आगे बढ़ा जाए. वैसे अडानी का विरोध एनडीटीवी प्रकरण में भी हो ही रहा है.
केरल में अडानी का पोर्ट भारत की मजबूरी क्यों है, दुबई-चीन को क्या नुकसान होगा?
तो बात ऐसी है कि केरल में अडानी ग्रुप को लेकर घमासान मचा हुआ है. यह घमासान देश की तमाम बीमारियों के मद्देनजर एक बेहतरीन केस स्टडी है. बिल्कुल शीशे की तरह साफ़. समूचे देश को जानना चाहिए और इस पर सवाल भी पूछने चाहिए. असल में अडानी ग्रुप केरल में एक डीप वाटर पोर्ट बना रहा है. इसकी लागत करीब 7500 करोड़ रुपये है. देश को ऐसे पोर्ट सख्त जरूरत भी है. बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर से लगते हमारी विशाल समुद्री सीमाएं तो हैं, मगर कोई ऐसा पोर्ट नहीं जहां बड़े-बड़े कंटेनर जहाज आ सके.
अब चूंकि बड़े कंटेनर जहाज हमारी समुद्री सीमा में नहीं आ पाते तो उन्हें मजबूरन तीन जगहों पर रुकना पड़ता है. दुबई में, श्रीलंका के कोलंबो में और सिंगापुर में. हम दुबई, कोलंबो और सिंगापुर की 'मेहरबानी' पर निर्भर हैं. इस मेहरबानी के बदले हमें अच्छी खासी कीमत चुकानी पड़ती है. समुद्री रास्ते से चाहे कोई सामान भेजना हो या फिर लाना ही हो- इन्हीं तीन केन्द्रों पर निर्भरता है. ये तीनों केंद्र हमारे ही कारोबार की वजह से हब बने हुए हैं. सिर्फ इसी एक खूबी ने उन्हें हब बना दिया है. बिना नून-फिटकिरी लगाए तगड़ा मुनाफा कमाते हैं. यह उस देश की हालत है जो हजार साल पहले समुद्र पर राज करने की स्थिति की वजह से दुनिया के कारोबार का सबसे बड़ा केंद्र था. इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व वाम मुख्यमंत्री ओमान चांडी के प्रति देश को शुक्रगुजार होना चाहिए. उन्होंने मोदी सरकार से पहले ही जरूरत को ध्यान में रखते हुए बड़े बंदरगाह की रूपरेखा पर काम शुरू कर दिया था. काश कि मनमोहन से पहले हमारे पास कोई डीप वाटर पोर्ट बन गया होता.
लैटिन चर्च विरोध कर रहा, लेकिन स्थानीय ईसाई ही चाहते हैं कि क्यों बन जाए अडानी पोर्ट?
अब केरल में मनमोहन की उसी योजना को मूर्त रूप दिया जा रहा है. हालांकि उसका भारी विरोध हो रहा है. चूंकि इसमें मनमोहन और ओमान चांडी और वाम पार्टियां ही अगुआ रही हैं तो तमाम लोग चाहकर भी सीधे विरोध नहीं कर पा रहे.कम से कम सामने तो नहीं दिख रहा. विरोध की अगुआई एक लैटिन चर्च के धार्मिक नेता कर रहे हैं. उनके साथ उनका अपना समुदाय और कुछ वाम संगठन भी हैं. कांग्रेस ने नैरेटिव सेट कर दिया है कि मोदी राज में सिर्फ अडानी को फायदा मिल रहा है तो इसे भाजपा से भी जोड़ा जा रहा और धार्मिक रूप देने की कोशिशें दिख रही हैं. विरोध को हिंसक स्वरुप भी देने की कोशिशें हैं. ईसाई समुदाय केरल में एक राजनीतिक ताकत है.
अडानी पोर्ट से तो कायदे से दुबई, कोलंबो और सिंगापुर को परेशान होना चाहिए था. कोलंबो ही क्यों, कायदे से केरल पोर्ट से चीन को परेशान होना था. इसी वजह से चीन- श्रीलंका का इस्तेमाल हमें घेरने के लिए कर रहा है. वह कोलंबो में दुनिया का सबसे बड़ी पोर्ट सिटी बना रहा है ताकि समुद्र पर राज करते हुए भारत के कारोबारी हितों को नुकसान पहुंचा सके. लेकिन चीन, दुबई या फिर सिंगापुर तो भारत के पोर्ट का विरोध कर नहीं सकते. उन्हें सिंडिकेट की जरूरत पड़ेगी. अब सवाल तो किया ही जा सकता है कि क्या अडानी पोर्ट का विरोध करने के पीछे देश विरोधी ताकतें शामिल हैं?
विरोध करने वालों का तर्क है कि अडानी पोर्ट से समुद्री तटों को नुकसान पहुंच रहा है. लोगों का ठीक से पुनर्वास नहीं हो पाया है. और भी आरोप हैं. कुल मिलाकर स्थानीय लोगों को पर्यावरण और जोरदार राहत पुनर्वास का लालच दिखाकर परियोजना तय होने के सालों बाद विरोध की आग को हवा दी जा रही है. अगर पुनर्वास और पर्यावरण ही मसला है तो प्रदर्शनकारियों को हिंसा की बजाए कोर्ट और दूसरे विकल्पों का सहारा लेना चाहिए. अभी हाल में हिंसा हुई और पता चला कि विरोध करने वाले, हाईकोर्ट के आदेश तक की अनदेखी कर रहे हैं. क्या यह गंभीर मसला नहीं है? यह भी कम दिलचस्प नहीं कि केरल पोर्ट के समर्थन में वहीं के स्थानीय लोग प्रदर्शन भी कर रहे हैं. लैटिन चर्च से अलग ईसाई ही पोर्ट को समर्थन वाले आंदोलन के अगुआ भी हैं. समर्थन करने वालों में मुस्लिम और हिंदू आबादी भी है. उन्हें मालूम है कि पोर्ट बनने के बाद सबसे ज्यादा फायदा उन्हें ही मिलने वाला है.
समझने वाली बात यह भी है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का जो तर्क गढ़ा गया- उसके दूसरे पहलू भी हैं. पोर्ट के लिए जिन तटों पर कुछ महीने पहले काम हुआ था, अब वे अपनी प्राकृतिक स्थिति में वापस आ चुके हैं. कोलंबो में चीन की मौजूदगी को देखते हुए केरल में पोर्ट बनाने के अलावा देश के पास कोई विकल्प भी नहीं है. शायद मोदी सरकार गंभीरता को समझ रही हो, तभी उसने इसे अन्य राज्यों से जोड़ने की पहल भी की है.
कांग्रेस के भीतर का 'फिक्स मैच'
मनमोहन सिंह के रूप में एक प्रधानमंत्री ने जरूरी प्रोजेक्ट अडानी को दिया. दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल पोर्ट को विशाखापट्टनम पोर्ट और देश के दूसरे हिस्सों से जोड़ने के लिए विशाल हाइवे का नेटवर्क बना रहे हैं. राहुल गांधी और उनकी टीम का मानना है कि दक्षिण की परियोजनाओं से अब स्थानीय लोगों को नुकसान पहुंच रहा है. क्या है यह? राहुल एंड टीम क्या चाहती है. अडानी पोर्ट के विरोध में राहुल और कांग्रेस सीधे-सीधे नहीं दिख रहे, मगर उनकी भूमिका गंभीर है.
अब यह तर्क मत दीजिए कि नेहरू के परपोते-परपोती की कांग्रेस पर सवाल नहीं हो सकते. क्योंकि यह वो कांग्रेस है जिसने देश की स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष किया था. राहुल के पूर्वजों ने कीमत चुकाई. जबकि हकीकत यह है कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष करने वाली कांग्रेस को इंदिरा जी ने ना जाने कब का ख़त्म कर दिया था. कांग्रेस को कांग्रेस बनाने की असंभव कोशिशें कभी-कभार दिखती हैं. लेकिन हो नहीं पाया. जिस राजनीतिक लाभ के लिए राहुल पूर्वजों के बलिदान का हवाला देते हैं- तो क्या बाकी शहीदों ने देश के लिए खून की जगह पानी बहाया था? सैकड़ों शहीदों के परिजन चाय-पकौड़े बेंच रहे, मजदूरी कर रहें लेकिन बदले में उन्होंने तो कुछ नहीं चाहा. लोग तो उन्हें याद भी नहीं करते हैं.
कांग्रेस कई महीनों से संबंधित पोर्ट और उसे जोड़ने वाले हाइवे के निर्माण के विरोध की पटकथा लिख रही है. प्रदर्शनकारियों को उकसा रही है, उन्हें सपोर्ट कर रही है. अगर आप आईचौक पढ़ते रहे हैं तो भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत के वक्त कन्याकुमारी से योगेंद्र यादव के एक वीडियो का जिक्र अपने विश्लेषण में किया था. इसमें पर्यावरण का हवाला देते हुए दक्षिण की तमाम परियोजनाओं का विरोध किया गया था. केरल पोर्ट भी. सभी परियोजनाएं सीधे-सीधे चीन और अरब को प्रभावित करने वाली हैं. तमाम पर्यावरण कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी की यात्रा में साथ-साथ टहलते देख भी सकते हैं. विरोध में उन्हीं का सिंडिकेट है.
चाहें तो यहां क्लिक कर विश्लेषण पढ़ सकते हैं. योगेंद्र ने तब यह भी कहा था कि राहुल गांधी को अब अपनी ही परियोजनाओं को लेकर संदेह है और वे मानते हैं कि उनकी सरकार से गलती हुई. क्या केरल में पोर्ट बनाना भारत की गलती है या फिर चीन-दुबई के इशारे पर केरल में पोर्ट बनने देने से रोकना भारत की गलती होगी?
केरल में पोर्ट बन जाने से अगर देश समुद्री कारोबार में विदेशी बिचौलियों से मुक्त हो जाएगा तो इससे किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए? कोई बिजनेस विशेशज्ञ ज्यादा बेहतर तरीके से बता सकता है कि केरल पोर्ट से कैसे ना सिर्फ केरल बल्कि देश के दूसरे तमाम राज्यों को सीधा-सीधा फायदा मिलेगा. कितना विरोधाभास है कि राजनीति के लिए कांग्रेस को अपनी ही परियोजनाओं का विरोध करना पड़ रहा है. भाजपा दूसरे की परियोजना के लिए आगे आ रही है. यह भारतीय राजनीति की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. क्या महज सत्ता पाने भर के लिए कांग्रेस व्यापक देशहित को भी दांव पर लगाने को आमादा है अब.
टाटा-अडानी-अंबानी पैसे कमाए तो खराब, गूगल का पैसे कमाना क्यों अच्छा लगता है देश को?
अडानी एक कारोबारी हैं. राहुल गांधी लगभग गाली देने के अंदाज में उनकी आलोचना करते हैं- और अगले दिन उन्हीं के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजस्थान में उनसे निवेश करवाते हैं. क्या अडानी की जगह कोई डाऊ केमिकल कोई क्वात्रोची देश में कारोबार करे तो कांग्रेस को ठीक लगेगा. कोई विजय माल्या कारोबार करे तो ठीक रहेगा, जो नेताओं की कृपा से सरकारी खजाने को लूटकर भाग जाता है. अडानी का पोर्ट तो यहीं पड़ा रहेगा. अगर अडानी जैसे देसी कारोबारी बड़े हो रहे हैं, उनका कारोबार देश विदेश में बढ़ रहा है तो यह अच्छी बात है. टाटा-अडानी-अंबानी के बड़े होने से उसका फायदा देश की अर्थव्यवस्था को मिलेगा.
अडानी से दिक्कत है, मगर हमें मार्क जुकरबर्ग, एलन मस्क से दिक्कत नहीं होती. गूगल से दिक्कत नहीं होती. ये लोग भारत से जितना कमाते हैं- क्या उसके अनुपात में देश को रिटर्न मिलता है? क्या भारतीय जितना देते हैं उसके अनुपात में फेसबुक, ट्विटर, गूगल से वापसी हो पाती है. वहां फायदे में सिर्फ देश के खाए अघाए 'एलिट वर्ग' की हिस्सेदारी है. वह भी बहुत नाममात्र. किसी ने यहां इंडिया फर्स्ट का सवाल क्यों नहीं उठाया? और गूगल करता क्या है? वह उन संस्थाओं और व्यक्तियों को फंड करता है असल में जिनका एजेंडा काफी हद तक भारत विरोधी है. वे पर्यावरण कार्यकर्ता हैं, कोई ऐसा ही एनजीओ-एजेंडा चलाते हैं या फिर पत्रकार हैं. क्या गूगल जैसी कंपनियां चाहती हैं कि भारत में एक सिंडिकेट ताकतवर बना रहे जिसका मनमाफिक इस्तेमाल किया जा सके. जो विदेशी संस्थाओं के कारोबारी हितों के अनुरूप काम करे. गूगल ने अभी हाल ही में कुछ पत्रकारों-मीडिया समूहों को सपोर्ट किया है. जाकर उनका काम चेक कर लीजिए. देश को गरियाना भर ही ईमानदार पत्रकारिता है क्या?
बावजूद अडानी को आलोचना से परे नहीं रखना चाहिए. पर पहले यह बताइए कि केरल पोर्ट का ठेका उन्हें कैसे मिला? उनकी संपत्ति पर सवाल उठाने की बजाए अडानी ग्रुप नौकरियां दे रहा है कि नहीं, कर्मचारियों का शोषण तो नहीं कर रहा, लोगों की सैलरी समय पर मिल रही कि नहीं, कॉरपोरेट सोशल रेस्पोंसबिलिटी की दिशा में उचित काम कर रहा है कि नहीं, कर्मचारियों की स्ट्रेंथ पर्याप्त है कि नहीं, काम का दबाव तो नहीं है- ऐसे सवाल किए जाने चाहिए. अब ये क्या सवाल है कि अडानी की सम्पत्ति बढ़ती जा रही है. एक कारोबारी तो अपनी संपत्ति बढाने के लिए ही काम करता है. अडानी से मैं इर्ष्या क्यों करूं?
कांग्रेस और उसके सिंडिकेट ने जो नई परिपाटी शुरू कर दी है- चीजें उससे तहस-नहस हो जाएंगी. केरल पोर्ट का मामला एक केस स्टडी है. कांग्रेस, भाजपा, वाम या किसी भी पार्टी को चाहिए कि निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए हर चीज को राजनीति में ना घसीटा जाए. देश अब उतना मूर्ख नहीं रहा. लोग भले राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी ना हों, पर बुद्धि उनके पास भी है. और वे चीजों के सभी पहलू को देख समझ सकते हैं. राहुल की यात्रा के पीछे-पीछे जिस तरह की विध्वंसक चीजें दिख रही हैं- वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक हैं.
एक चीज ध्यान रखिए, वह चाहे अरब हो या यूरोप. उनका उपनिवेश ख़त्म नहीं हुआ है. वह अभी भी सिंडिकेट के जरिए चल रहा है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.