उत्तर प्रदेश एक बहुस्तरीय विधानसभा चुनाव देख रहा है जहां समाजवादी पार्टी (सपा) को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए प्रमुख चुनौती के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती बिलकुल 'चुप' हैं. यूपी में कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मुस्लिम मतदाताओं के लिए एक नई पसंद के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है.
मायावती की बसपा और ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जिस लड़ाई का प्रदर्शन कर रही है, वह यूपी चुनावों को कहीं न कहीं बहुकोणीय बनाती हुई नजर आ रही है. दिलचस्प ये है कि चुनावी सफलता के लिए दोनों पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग पर निर्भर हैं.
बात यूपी में चुनाव की हुई है तो बता दें कि बसपा जहां अपने दलित वोट बैंक से राजनीतिक शक्ति प्राप्त करती है तो वहीं अन्य सोशल ग्रुप्स के उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर प्रयोग करती है. एआईएमआईएम मुस्लिम मतदाताओं को अपने मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के रूप में देखती है, जबकि वह दलितों भीम-मीम एकता के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश लगातार कर रही है.
यूपी चुनाव में बसपा
उत्तर प्रदेश में मायावती अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरीं. उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तक पहुंचने के दौरान दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के एक नए जाति संयोजन को जोड़ने का प्रयास किया है.
उन्होंने 2007 की पुनरावृत्ति में 'आश्चर्यजनक परिणामों' के दावे के साथ भाजपा की मदद करने के लिए 'चुप' होने के आरोप का जवाब दिया है. मायावती की पार्टी यानी बसपा ने ने...
उत्तर प्रदेश एक बहुस्तरीय विधानसभा चुनाव देख रहा है जहां समाजवादी पार्टी (सपा) को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए प्रमुख चुनौती के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती बिलकुल 'चुप' हैं. यूपी में कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मुस्लिम मतदाताओं के लिए एक नई पसंद के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है.
मायावती की बसपा और ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जिस लड़ाई का प्रदर्शन कर रही है, वह यूपी चुनावों को कहीं न कहीं बहुकोणीय बनाती हुई नजर आ रही है. दिलचस्प ये है कि चुनावी सफलता के लिए दोनों पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग पर निर्भर हैं.
बात यूपी में चुनाव की हुई है तो बता दें कि बसपा जहां अपने दलित वोट बैंक से राजनीतिक शक्ति प्राप्त करती है तो वहीं अन्य सोशल ग्रुप्स के उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर प्रयोग करती है. एआईएमआईएम मुस्लिम मतदाताओं को अपने मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के रूप में देखती है, जबकि वह दलितों भीम-मीम एकता के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश लगातार कर रही है.
यूपी चुनाव में बसपा
उत्तर प्रदेश में मायावती अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरीं. उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तक पहुंचने के दौरान दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के एक नए जाति संयोजन को जोड़ने का प्रयास किया है.
उन्होंने 2007 की पुनरावृत्ति में 'आश्चर्यजनक परिणामों' के दावे के साथ भाजपा की मदद करने के लिए 'चुप' होने के आरोप का जवाब दिया है. मायावती की पार्टी यानी बसपा ने ने 2007 में बहुचर्चित दलित-ब्राह्मण सामाजिक इंजीनियरिंग के साथ बहुमत हासिल किया था.
2022 में, बसपा ने दलित और मुस्लिम समुदायों से लगभग 90 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारने में, बसपा अन्य दलों से आगे नहीं हो सकती है, यह देखते हुए कि यूपी विधानसभा में 84 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय के लिए आरक्षित हैं.
उत्तर प्रदेश की अन्य मुख्यधारा की पार्टियों की तुलना में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए उनकी निरंतर वरीयता समाजवादी पार्टी की संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है. मायावती ने 2017 में लगभग 100 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, ये वो दौर था जब वह दलित-ब्राह्मण से दलित-मुस्लिम सोशल इंजीनियरिंग में स्थानांतरित हो गईं थीं. भले ही तब विफल रही हों लेकिन मायावती ने मुसलमानों को अपने वोट बैंक के रूप में बदलने में बड़ी कामयाबी हासिल की.
दलितों और मुसलमानों के अलावा, मायावती ने 2007 के चुनाव का बार-बार जिक्र करते हुए ब्राह्मणों तक पहुंच बनाई और बसपा के वरिष्ठ नेता सतीश चंद्र मिश्रा को उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान का लंबे समय तक नेतृत्व करने दिया. इसके अतिरिक्त, उन्होंने भाजपा और समाजवादी पार्टी से बसपा में आए पिछड़े और ओबीसी समुदायों के नेताओं को टिकट भी दिया है.
ओबीसी वोट बैंक पर बसपा का तेज फोकस समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के लिए बड़ी चुनौती है. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका लक्ष्य लखनऊ में सत्ता में वापसी करना है. ओबीसी और मुस्लिम समाजवादी पार्टी के मुख्य वोट बैंक हैं.
ओवैसी फैक्टर
विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम प्रत्याशियों के आने के बाद ओवैसी फैक्टर का जिक्र एक आम बात हो गई है. हालांकि एआईएमआईएम को चुनावों में सीमित सफलता मिली है, ओवैसी अपनी रैलियों में बड़ी भीड़ जुटाने के लिए मशहूर हैं . उत्तर प्रदेश, जहां एआईएमआईएम करीब 100 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, वहां भी ओवैसी ने खूब बज पैदा किया है.
उत्तर प्रदेश में, ओवैसी ने जाति-आधारित छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन करने और सीएम उम्मीदवार घोषित करने के अपने बिहार के फार्मूले पर काम किया है. ओवैसी ने यूपी चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए आठ हिंदू उम्मीदवारों को टिकट देकर मैदान में उतारा है.
ओवैसी के उम्मीदवारों द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश को प्रभावित करने की संभावना है, जहां 35 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं. नौ निर्वाचन क्षेत्रों में, मुसलमान मतदाताओं की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है.
ओवैसी की एआईएमआईएम बिहार में मुस्लिम मतदाताओं के लिए एक नए विकल्प के रूप में उभरी है, जहां समुदाय के पास उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की तरह ही यादवों के ठोस समर्थन वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. यूपी में मुस्लिम मतदाताओं को आम तौर पर समाजवादी पार्टी के मतदाताओं के रूप में देखा जाता है, या बसपा समर्थकों को उन निर्वाचन क्षेत्रों में देखा जाता है जहां मायावती समुदाय के उम्मीदवारों को नामित कर मैदान में उतारती हैं.
उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां मायावती और ओवैसी दोनों ने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, अखिलेश यादव के नेतृत्व वाले सपा-रालोद गठबंधन को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
कांग्रेस
कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश चुनाव में 60 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, जहां पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है. 2017 में, कांग्रेस समाजवादी पार्टी की एक जूनियर पार्टनर थी और सात सीटों पर अपनी जीत दर्ज की थी. बाद में, कांग्रेस ने अपने विधायकों को भाजपा में शामिल होते देखा.
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने यूपी चुनावों में पार्टी के अभियान का नेतृत्व करते हुए कहा कि उनके प्रयास 2022 में सत्ता में नहीं आ सकते हैं, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं.
भले ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए लड़ाई अस्तित्व की हो लेकिन कांग्रेस को 2017 की तुलना में अधिक वोट मिलने की संभावना है क्योंकि वह पांच साल पहले 144 की तुलना में 402 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन चुनाव के मद्देनजर एक दिलचस्प बात ये है कि प्रियंका गांधी जितने अधिक वोट कांग्रेस की ओर खींचती हैं, यूपी का रण जीतना अखिलेश यादव के लिए उतना ही मुश्किल होता जाएगा. ऐसा इसलिए भी क्योंकि दोनों पिछड़े और दलित समुदायों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के लिए एक महिला निर्वाचन क्षेत्र बनाने का भी प्रयास किया है.
चुनाव प्रचार और टिकट बंटवारे से लगता है कि सपा, बसपा, कांग्रेस और एआईएमआईएम मुस्लिम-दलित-पिछड़ी जाति के वोटरों पर निर्भर हैं. वे भाजपा की तुलना में एक-दूसरे के साथ अधिक प्रतिस्पर्धा करते दिख रहे हैं, जिसे अपर कास्ट वोटर्स और नरेंद्र मोदी सरकार के सामाजिक कल्याण योजनाओं से लाभान्वित लोगों का समर्थन प्राप्त है.
चुनावी मुकाबलों का यह द्विआधारी 'चुनाव के भीतर चुनाव' वाली चुनौती हो सकता है जिसे अगर अखिलेश यादव को सत्ता में अपनी वापसी करना है, तो पार लगाना होगा. यदि अखिलेश इससे निपट ले गए तो ये समाजवादी पार्टी और अखिलेश के सपनों को नए पंख देगा वरना जैसे मौजूदा समीकरण हैं यूपी में अखिलेश के होश उड़े हुए हैं.
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