उत्तर प्रदेश की सियासत भूल-भुलैया है. यहां की चुनावी फिजाओं की अय्यारी और तिलिस्म को बड़े-बड़े सियासी पंडित नहीं भांप पाते. जो दिखता है वो होता नहीं, जो होता है वो दिखाई नहीं देता. इतिहास गवाह है कि यूपी के चुनावी माहौल के सारे पूर्वानुमान गलत साबित होते रहे हैं. दिल्ली की कुर्सी का रास्ता तय करने वाले भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सियासत धर्म और जाति के काकटेल वाले अंधे कुएं जैसी है. मोहब्बत और जंग की तरह यहां की सियासत में भी सब जायज है. दुश्मन के सामने के वार से ज्यादा पीछे से हमले/छल से सावधान रहना पड़ता है. यहां की सियासत मोहब्बत की दास्तान जैसी भी है,जहां माशूक़ा का इंकार भी इजहार समझा जा सकता है. देश के तमाम चुनावों से पहले का माहौल और सर्वे/ओपिनियन पोल जो इशारा करता रहावो अधिकांश सच के करीब ही साबित होता रहा है. लेकिन यूपी और बिहार के चुनावी माहौल को बड़े-बड़े नहीं भांप पाते हैं.
यहां सारे सर्वे और ओपीनियन पोल धराशाई होते रहे हैं. वजह ये है कि यहां जातियों का वर्चस्व है. और जातियां कभी मुंह नहीं खोलतीं. ये साथ भी खामोशी से देती हैं और साथ छोड़ती भी खामोशी से हैं. इनके अंदर एक झिझक और डर भी पाया जाता है,परिवर्तन की हिम्मत और एकजुटता की ताकत भी इनके भीतर होती है. यही कारण है कि पिछले करीब तीन दशक से यूपी का एक भी सर्वे परफेक्ट या पूर्णता सत्य साबित नहीं हुआ.
इसलिए यहां रैलियों की भीड़ देखकर या चंद लोगों की राय जानकर ये कह देना कि कौन जीत रहा है?कौन हार रहा है? सिर्फ दो दलों का मुकाबला है. फलां दल रेस से बाहर है. ये नंबर एक पर वो नंबर दो पर, फलां तीसरे पर, ढमाका चौथे पर हैं. कम से कम...
उत्तर प्रदेश की सियासत भूल-भुलैया है. यहां की चुनावी फिजाओं की अय्यारी और तिलिस्म को बड़े-बड़े सियासी पंडित नहीं भांप पाते. जो दिखता है वो होता नहीं, जो होता है वो दिखाई नहीं देता. इतिहास गवाह है कि यूपी के चुनावी माहौल के सारे पूर्वानुमान गलत साबित होते रहे हैं. दिल्ली की कुर्सी का रास्ता तय करने वाले भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सियासत धर्म और जाति के काकटेल वाले अंधे कुएं जैसी है. मोहब्बत और जंग की तरह यहां की सियासत में भी सब जायज है. दुश्मन के सामने के वार से ज्यादा पीछे से हमले/छल से सावधान रहना पड़ता है. यहां की सियासत मोहब्बत की दास्तान जैसी भी है,जहां माशूक़ा का इंकार भी इजहार समझा जा सकता है. देश के तमाम चुनावों से पहले का माहौल और सर्वे/ओपिनियन पोल जो इशारा करता रहावो अधिकांश सच के करीब ही साबित होता रहा है. लेकिन यूपी और बिहार के चुनावी माहौल को बड़े-बड़े नहीं भांप पाते हैं.
यहां सारे सर्वे और ओपीनियन पोल धराशाई होते रहे हैं. वजह ये है कि यहां जातियों का वर्चस्व है. और जातियां कभी मुंह नहीं खोलतीं. ये साथ भी खामोशी से देती हैं और साथ छोड़ती भी खामोशी से हैं. इनके अंदर एक झिझक और डर भी पाया जाता है,परिवर्तन की हिम्मत और एकजुटता की ताकत भी इनके भीतर होती है. यही कारण है कि पिछले करीब तीन दशक से यूपी का एक भी सर्वे परफेक्ट या पूर्णता सत्य साबित नहीं हुआ.
इसलिए यहां रैलियों की भीड़ देखकर या चंद लोगों की राय जानकर ये कह देना कि कौन जीत रहा है?कौन हार रहा है? सिर्फ दो दलों का मुकाबला है. फलां दल रेस से बाहर है. ये नंबर एक पर वो नंबर दो पर, फलां तीसरे पर, ढमाका चौथे पर हैं. कम से कम यूपी में तो इस तरह के तमाम दावे वहीं पेश करेगा जो अंधे कुएं जैसे उत्तर प्रदेश के सियासी तिलिस्म से अनभिज्ञ होगा.
रैलियों की भीड़ भी छल है
यूपी के सियासी माहौल में जो तस्वीर दिखे उसके दूसरे पहलू को समझना ज्यादा जरूरी है. मसलन दलों की रैलियों में जो भीड़ दिख रही है वो आंखों का धोखा है. किसी पार्टी या नेता में ऐसा जादू हो कि जनता घरों से निकले, राजनीति के गिरते स्तर के दौरान आम लोगों में ऐसा जज्बा अब कम होता जा रहा हैं. भीड़ इकठ्ठा करने में अब बेरोजगारी मददगार साबित होती है. भीड़ का एक तबका ऐसा भी है जो अपना मेहनताना लेने की शर्त पर हर दल की रैली में अपनी मौजूदगी दर्ज करता है.
इसी तरह राजनीतिक दलों से टिकट मांगने वालों की लाइन लगी है. इसमें से ज्यादातर लोग धनाढ्य हैं. यदि एक सीट पर टिकट पाने के लिए पंद्रह से तीस लोगों की लाइन लगी है तो हर इच्छुक टिकटार्थी को अपने जनाधार की परीक्षा देने के लिए पार्टियां भीड़ लाने की जिम्मेदारी दे रही हैं. अब टिकट पाने के लिए लोग भाड़े पर भीड़ लाएं या दूसरे राज्यों तक से लोगों को बुलवा लें ये कोई देखने वाला नहीं.
विभिन्न पार्टियां इस तरह अपनी-अपनी रैलियों में भी भीड़ इकट्ठा करके भी अपना शक्ति प्रर्दशन कर रही हैं. सत्तारूढ़ पार्टी का सरकारी तंत्र/ प्रशासनिक अमले का इस्तेमाल करना भी पुरानी रवायत चली आ रही है.
छापेमारी के पीछे का मकसद
यूपी चुनावी माहौल शबाब पर आ ही रहा था कि सबसे बड़े विपक्षी दल सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के करीबी सपाइयों के घर इंकमटैक्स के छापे पड़ने लगे. कई टैक्स चोरी में ही पकड़े गए. जिनपर टैक्स चोरी का शक है उनके घरों और प्रतिष्ठानों में छापे मारना वैसे तो इंकमटैक्स विभाग का रूटीन कार्य जैसा है लेकिन यूपी में चुनावों से करीब दो महीने पहले सबसे बड़े विपक्षी नेता अखिलेश यादव के करीबियों और खाटी सपाइयों के घरों में एक साथ छापे पड़े तो मीडिया की सुर्खियों ने इस बात को जंगल में आग की तरह फैला दिया.
सत्तारूढ़ भाजपा शायद यही चाहती थी. इन खबरों से सपा को सत्ता की रेस में मानकर उसपर पैसा लगाने वाले धनसेठ/बड़े व्यापारी डर-सहम गए. उन्होंने सपा के करीब जाने और चुनावों में उसकी आर्थिक मदद करने के इरादे से कदम पीछे कर लिए. और इस तरह मामूली सी छापेमारी का एक्शन सत्तारूढ़ भाजपा के लिए बड़ा लाभकारी रिएक्शन साबित हो सकता है.
ऐसे ही पर्दे के पीछे के सियासी दांव में माहिर है यूपी की सियासत. और जैसी सियासत वैसी ही जनता भी, जिसकी खामोशी समुद्र की तरह गहरी है. इक़रार के पीछे इंकार और इंकरार के पीछे इक़रार छुपा होता है. इसीलिए तो हर बार यूपी के चुनाव में कोई भी जीते पर सियासी पंडितों के सर्वे, अनुमान, ओपीनियन पोल, विश्लेषण और सारी भविष्यवाणियां हमेशां फेल होती रही हैं.
ये भी पढ़ें -
असम से उत्तराखंड तक कांग्रेस में बगावती वेव, राहुल गांधी की वैक्सीन फेल!
P election 2022 में 'सब' दिख रहे हैं, लेकिन मायावती कहां हैं?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.