2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (P assembly election 2022) के लिए सियासी बिसात बिछना शुरू हो चुकी है. भाजपा (BJP) और आरएसएस (RSS) के बीच कई दिनों से चल रही मैराथन बैठकों का निचोड़ सामने आ चुका है. उत्तर प्रदेश का सियासी किला बचाने के लिए भाजपा और संघ से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर मुहर लगाई जा चुकी है. हालांकि, इसके साथ ही जातिगत समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह (Amit Shah) के गैर-यादव ओबीसी फॉर्मूले को साधने की कवायद भी तेज कर दी गई हैं.
वहीं, सियासी हलकों में इस चर्चा ने भी जोर पकड़ना शुरू कर दिया है कि अगले साल का यूपी विधानसभा चुनाव भाजपा बनाम समाजवादी पार्टी (SP) होना तय है. इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि जिस तरह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई को देखते हुए कांग्रेस (Congress) और वाम दलों ने विधानसभा चुनाव के दौरान सरेंडर कर दिया था. उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति कांग्रेस और बसपा (BSP) के सामने भी आ सकती है. जिसकी वजह से इन राजनीतिक दलों को मजबूरन समाजवादी पार्टी के नाम पर चुप्पी साधनी पड़ सकती है.
अखिलेश यादव ने पहले ही खेल दिया है दांव
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) 2017 और 2019 में गठबंधन का सारा गणित पढ़ चुके हैं. 'आज तक' को दिए इंटरव्यू में पूर्व मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि उनका ध्यान यूपी की सियासत में अहम भूमिका निभाने वाले छोटे राजनीतिक दलों की ओर ही होगा. इन दलों में...
2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (P assembly election 2022) के लिए सियासी बिसात बिछना शुरू हो चुकी है. भाजपा (BJP) और आरएसएस (RSS) के बीच कई दिनों से चल रही मैराथन बैठकों का निचोड़ सामने आ चुका है. उत्तर प्रदेश का सियासी किला बचाने के लिए भाजपा और संघ से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर मुहर लगाई जा चुकी है. हालांकि, इसके साथ ही जातिगत समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह (Amit Shah) के गैर-यादव ओबीसी फॉर्मूले को साधने की कवायद भी तेज कर दी गई हैं.
वहीं, सियासी हलकों में इस चर्चा ने भी जोर पकड़ना शुरू कर दिया है कि अगले साल का यूपी विधानसभा चुनाव भाजपा बनाम समाजवादी पार्टी (SP) होना तय है. इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि जिस तरह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई को देखते हुए कांग्रेस (Congress) और वाम दलों ने विधानसभा चुनाव के दौरान सरेंडर कर दिया था. उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति कांग्रेस और बसपा (BSP) के सामने भी आ सकती है. जिसकी वजह से इन राजनीतिक दलों को मजबूरन समाजवादी पार्टी के नाम पर चुप्पी साधनी पड़ सकती है.
अखिलेश यादव ने पहले ही खेल दिया है दांव
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) 2017 और 2019 में गठबंधन का सारा गणित पढ़ चुके हैं. 'आज तक' को दिए इंटरव्यू में पूर्व मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि उनका ध्यान यूपी की सियासत में अहम भूमिका निभाने वाले छोटे राजनीतिक दलों की ओर ही होगा. इन दलों में से कुछ बीते चुनाव में भाजपा की योगी सरकार के साथ थे. सपा गठबंधन में बड़े दलों को जगह नही देगी. इतना ही नहीं अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ भी संबंधों को सुधारने की कवायद में लगे हैं. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि चाचा शिवपाल सिंह की जसवंतनगर विधानसभा सीट पर सपा उम्मीदवार नहीं उतारेगी और प्रसपा के साथ गठबंधन करेंगे.
अगर उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल एक होते हैं, तो भाजपा को लोगों के बीच सहानुभूति बटोरने का एक और मौका मिल सकता है. भाजपा ये कहने में बिल्कुल भी नहीं चूकेगी कि सत्ता पाने की लालसा में ये सभी दल एक हुए हैं. महाराष्ट्र जैसे राज्य का उदाहरण भी दिया जाएगा. जहां सत्ता के लिए उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव वाली विचारधाराओं का गठबंधन बनाकर सरकार चलाई जा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2019 लोकसभा चुनाव वाली भाषा में कहें, तो 'महामिलावटी गठबंधन' हुआ है. वैसे, बीते दोनों चुनावों में क्रमश: कांग्रेस और बसपा से मिले कटु अनुभवों के साथ ही राजनीतिक नुकसान झेलने के बाद शायद ही अखिलेश यादव ऐसे किसी गठबंधन के बारे में सोचेंगे भी.
कांग्रेस और बसपा नजर आ रहे कमजोर
गठबंधन से इतर बात करें, तो यूपी में चुनाव लड़ने के लिहाज से फिलहाल एक्टिव संगठन सपा के ही पास नजर आता है. कांग्रेस और बसपा के साथ गठबंधन के दौरान सपा ने इन पार्टियों के जमीनी कार्यकर्ताओं में बड़ी सेंध लगाई थी. कहना गलत नहीं होगा कि बसपा और कांग्रेस से बाहर होने वाले ज्यादातर नेताओं की शरणस्थली के तौर पर सपा सबसे आगे है. वहीं, 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए बैठी कांग्रेस के पास न संगठन है, न कार्यकर्ता. प्रियंका गांधी वाड्रा भी दिल्ली और ट्विटर के जरिये ही यूपी संभालती नजर आती हैं. कोरोना महामारी की वजह से प्रियंका गांधी के भी यूपी दौरों पर लगाम लगी है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास दो ही विकल्प दिखाई देते हैं, या तो वे गठबंधन करें या चुप रहकर सपा की मदद करें. ठीक उसी तरह जैसे पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस का सहयोग किया था. आखिर दुश्मन नंबर वन तो यहां भी भाजपा ही है. वहीं, इस संदर्भ में बसपा की बात करना भी बेमानी सा लगता है. सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती यूपी को छोड़कर पंजाब में अपनी पार्टी को मजबूत करने की जुगत भिड़ा रही हैं. चुनाव से पहले ही कांशीराम के करीबी रहे रामअचल राजभर और लालजी वर्मा को पार्टी से निकाल दिया गया है. यूपी में मायावती की सक्रियता केवल ट्विटर और औपचारिक बयानों तक ही सीमित है.
सपा को मिल सकता है भरपूर फायदा
अगर यूपी में सपा प्रमुख तौर पर चैलेंजर बनकर सामने आती है, पश्चिम बंगाल की तरह ही यहां भी मुस्लिमों का एकमुश्त वोट अखिलेश यादव के पाले में आ सकता है. मुस्लिम वोटर्स का वोट काफी हद तक भाजपा के विरोध में ही जाता है. अगर सूबे में विधानसभा चुनाव के दौरान बंगाल की तरह कांग्रेस और बसपा चुप रहते हैं, तो मुस्लिमों के लिए विकल्प चुनना आसान होगा. वहीं, यूपी में जोर-आजमाइश की कोशिश करने वाले एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी भी शायद इस बार कोई चुनावी शरारत करना नहीं चाहेंगे. अगर वो बंगाल की तरह यहां भी कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर फायदा लेने की कोशिश करते हैं, तो मुस्लिम मतदाताओं के बीच उनकी पार्टी पर भाजपा की बी टीम होने के लगने वाले आरोपों को भी बल मिलने का अंदेशा रहेगा.
बंगाल और यूपी के चुनाव में है बड़ा फर्क
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव और यूपी के चुनावों में सबसे बड़ा फर्क ये है कि भाजपा को बंगाल में कई अनुभव मिले. बंगाल चुनाव के बाद भाजपा ने आगामी विधानसभा चुनावों के लिए अपनी 'Do's & Don'ts' की लिस्ट अपडेट कर ली है. दरअसल, पश्चिम बंगाल में खासतौर पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के गठबंधन ने उसे अंतिम समय तक असमंजस में बनाए रखा था. भाजपा के रणनीतिकारों को पूरा भरोसा था कि मुकाबला त्रिकोणीय होगा. जिसके चलते मुस्लिम वोट बंटेगा और उसका सीधा फायदा भाजपा को होगा. लेकिन, ऐन वक्त पर कांग्रेस और वामदल ममता बनर्जी को मूक समर्थन देते हुए पर्दे के पीछे चले गए. वहीं, यूपी के मतदाताओं के सामने कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों का ये खेल नया नहीं रह गया है. भाजपा भी इससे सबक ले चुकी है. मुस्लिम वोटों का एकतरफा होना तो तय है. धर्म और जाति के समीकरणों को तमाम चीजों से ऊपर रखने वाले मतदाताओं के बीच अब सवाल यही है कि क्या यूपी में हिंदू वोट हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा?
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