नया ट्रेंड है कि नेताओं के भाषण ही सबसे ज़्यादा ख़बरें बनाते हैं. आज इस रैली में फलां नेताजी ने ये कह दिया और उसके जवाब में विरोधी नेता ने सारी हदें पार कर दीं. हदों को नापने का कोई स्केल नहीं होता है वरना रिकॉर्ड रखा जा सकता था. बात केवल रिकॉर्ड रखने की हो तो सोशल मीडिया ये काम बखूबी कर रहा है. इतिहास के रचयिता आगे चलकर जब इस रिकॉर्ड को खंगालेंगे तो 2022 का यूपी चुनाव प्रचार मील का पत्थर साबित होगा. छुपी हुई बात नहीं है कि ये पत्थर नेताओं की अक्ल पर पड़ा हुआ है. उस रोज़ जब बीजेपी एमएलए सरिता भदौरिया चुनाव प्रचार करने पहुंची तो अक्ल पर पड़ा पत्थर माथे की नसों में तनाव पैदा करने लगा. नतीजा ये हुआ कि सरिता जी को क्रोध आया और उन्होंने दो-चार ऐसी घनघोर आपत्तिजनक बातें कहीं कि सुनने वाले सन्न रह गए और लोकतंत्र बेहोशी की हालत में ज़मीन पर लोटने लगा. वो गुस्से में आकर वोट नहीं देने वालों से गल्ले, रूपए और नमक का हिसाब मांग बैठीं. बोलीं, 'गल्ला खा गए, पैसा खा गए, नमक खा गए.. अगर आपको इतना ख़राब लगता था तो पहले कह देते कि हम तुम्हारा गल्ला नहीं खाएंगे.. ये तो ईमानदारी नहीं हुई..’
सरिता जी मौजूदा विधायक हैं और फिर से एक बार बीजेपी की उम्मीदवार हैं. ईमानदारी को लेकर उनका विज़न बिल्कुल क्लियर है. उनका मानना है कि अगर कोरोना जैसी आपदा के दौरान उन्होंने अपने क्षेत्र की जनता के बीच अनाज और नमक बंटवाने का एहसान किया तो जनता वोट देकर उस एहसान का हिसाब चुकता करे. जनता पर ‘नमक के कर्ज़’ वाला ये कंसेप्ट एकदम नया है.
इटावा की बीजेपी प्रत्याशी ने जब ‘नमक के कर्ज़’ वाली थ्योरी ईजाद की तो इसपर कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई. लगा कि मोहतरमा...
नया ट्रेंड है कि नेताओं के भाषण ही सबसे ज़्यादा ख़बरें बनाते हैं. आज इस रैली में फलां नेताजी ने ये कह दिया और उसके जवाब में विरोधी नेता ने सारी हदें पार कर दीं. हदों को नापने का कोई स्केल नहीं होता है वरना रिकॉर्ड रखा जा सकता था. बात केवल रिकॉर्ड रखने की हो तो सोशल मीडिया ये काम बखूबी कर रहा है. इतिहास के रचयिता आगे चलकर जब इस रिकॉर्ड को खंगालेंगे तो 2022 का यूपी चुनाव प्रचार मील का पत्थर साबित होगा. छुपी हुई बात नहीं है कि ये पत्थर नेताओं की अक्ल पर पड़ा हुआ है. उस रोज़ जब बीजेपी एमएलए सरिता भदौरिया चुनाव प्रचार करने पहुंची तो अक्ल पर पड़ा पत्थर माथे की नसों में तनाव पैदा करने लगा. नतीजा ये हुआ कि सरिता जी को क्रोध आया और उन्होंने दो-चार ऐसी घनघोर आपत्तिजनक बातें कहीं कि सुनने वाले सन्न रह गए और लोकतंत्र बेहोशी की हालत में ज़मीन पर लोटने लगा. वो गुस्से में आकर वोट नहीं देने वालों से गल्ले, रूपए और नमक का हिसाब मांग बैठीं. बोलीं, 'गल्ला खा गए, पैसा खा गए, नमक खा गए.. अगर आपको इतना ख़राब लगता था तो पहले कह देते कि हम तुम्हारा गल्ला नहीं खाएंगे.. ये तो ईमानदारी नहीं हुई..’
सरिता जी मौजूदा विधायक हैं और फिर से एक बार बीजेपी की उम्मीदवार हैं. ईमानदारी को लेकर उनका विज़न बिल्कुल क्लियर है. उनका मानना है कि अगर कोरोना जैसी आपदा के दौरान उन्होंने अपने क्षेत्र की जनता के बीच अनाज और नमक बंटवाने का एहसान किया तो जनता वोट देकर उस एहसान का हिसाब चुकता करे. जनता पर ‘नमक के कर्ज़’ वाला ये कंसेप्ट एकदम नया है.
इटावा की बीजेपी प्रत्याशी ने जब ‘नमक के कर्ज़’ वाली थ्योरी ईजाद की तो इसपर कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई. लगा कि मोहतरमा बोलते-बोलते आगे निकल गईं होंगी. चुनाव जीतने औऱ कुर्सी बचाने का दबाव जो न कराए. लेकिन क्या प्रधानमंत्री जी को भी दबाव का बेनिफिट दिया जा सकता है? प्रधानमंत्री जब चुनावी मंचों से बोल रहे होते हैं तब भी वो देश के प्रधानमंत्री होते हैं.
यूपी के हरदोई में भाषण देते हुए उन्होंने एक बुज़ुर्ग महिला का ज़िक्र किया. जिस महिला के बारे में मोदी ने बात की उनसे तीसरे चरण के चुनाव से पहले एक पत्रकार सवाल-जवाब कर रहे थे. महिला ने कहा था कि ‘मोदी का नमक’ खाया है और उन्हें धोखा नहीं दूंगी. अगर मोदी सिर्फ़ एक रिपोर्ट का ज़िक्र कर रहे थे तो इसमें दिक्कत कहां है?
दिक्कत है और सवाल भी हैं. सबसे बड़ा सवाल ये कि जनता के बुनियादी हक़ों की आपूर्ति भी आखिर क्यों उनपर एहसान की तरह लादी जा रही है ? मामले की गंभीरता को समझने के लिए हमें भोजन के अधिकार, संविधान के प्रावधानों और कोर्ट के कुछ फैसलों को जानना होगा. 29 जून 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने आम नागरिकों के लिए भोजन के अधिकार को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की.
कोर्ट ने याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीने के मौलिक अधिकार में भोजन का अधिकार और अन्य बुनियादी आवश्यकताएं शामिल हैं. साथ ही कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर प्रवासी मजदूरों के लिए अनाज और भोजन का इंतज़ाम करने को कहा. इसके कुछ महीने बाद सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि भूख से मर रहे लोगों को भोजन उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है.
भूख और कुपोषण से निपटने के लिए सामुदायिक रसोई योजना तैयार करने के मामले पर केन्द्र सरकार ने जो हलफनामा दिया था उसपर अप्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कोर्ट ने केन्द्र सरकार को अल्टीमेटम तक दे डाला. भारत के संविधान में भोजन के अधिकार को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है. लेकिन न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका तक ने एक समझ बनाई है कि देश के नागरिक भूखे न रहें ये सरकारों की ज़िम्मेदारी है.
साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 में दिए गए जीने के अधिकार के अंतर्गत भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी. अक्टूबर 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भूख या कुपोषण से होने वाली मौतों की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है. इसके बाद साल 2005 में मनरेगा योजना लाई गई ताकि रोज़ी-रोटी की बुनियादी समस्या दूर की जा सके.
इसी कड़ी में आया 2013 का साल जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बना. इस कानून का उद्देश्य है सभी नागरिकों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन की गारंटी प्रदान करना. मतलब साफ है कि संविधान में भोजन के अधिकार सुनिश्चित करने के पर्याप्त प्रावधान हैं ताकी गरीब लोगों को जीने के लिए खाना मुहैया कराना सरकार अपनी ज़िम्मेदारी समझे.
बीच-बीच में कोर्ट के फैसलों और टिप्पणियों ने सरकारों को इसका अहसास कराया है और इंतज़ाम सुधारने की दिशा में कदम बढ़ाने पर मजबूर किया है. सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई और कड़ी टिप्पणियों के बीच कोरोना महामारी की दूसरी लहर के में मोदी सरकार ने फ्री राशन योजना लॉन्च की. इसके तहत हर ज़रूरतमंद को 5 किलो गेहूं और 3 किलो मुफ्त चावल देने का प्रावधान रखा गया.
नवंबर 2021 में सरकार ने इस योजना को मार्च 2022 तक बढ़ाने का ऐलान कर दिया. सरकार के इस दावे पर भी सवाल उठे कि फ्री राशन योजना के तहत देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है. खुद पीएम मोदी ने भी कई मंचों से इस आंकड़े का ज़िक्र किया. सवाल पैदा हुआ कि 130 करोड़ आबादी वाले देश में अगर 80 करोड़ लोग मुफ्त राशन पा रहे हैं तो क्या ये गरीबी बढ़ने के संकेत हैं? क्या यही कारण है कि साल 2011 के बाद से देश में गरीबों की गिनती ही नहीं हुई?
केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद से भले ही देश में गरीबों की गिनती नहीं हुई हो लेकिन वैश्विक भुखमरी सूचकांक ने भारत की मौजूदा स्थिति बयां करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 116 देशों के लिए साल 2021 में जारी वर्ल्ड हंगर इंडेक्स में भारत फिसलकर 101वें स्थान पर पहुंच गया. इसे ऐसे समझिए कि भारत इस कतार में अपने पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे खड़ा है. साल 2020 में भारत 94वें स्थान पर था.
पिछले साल नवंबर महीने में नीति आयोग ने देश का पहला बहुआयामी गरीबी सूचकांक जारी किया. इस रिपोर्ट के मुताबिक बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और मेघालय वो राज्य हैं जहां गरीबों की संख्या सबसे ज्यादा है. इसका मतलब ये हुआ कि देश के सबसे गरीब पांच राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं.
इन चुनावों में भी गरीबी मुद्दा है लेकिन गरीबी की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए नेता तैयार नहीं हैं. दाने-दाने के लिए मोहताज जनता को कुछ किलो अनाज बांटकर उन्हें ‘नमक का कर्ज़दार’ साबित करने की कोशिश हो रही है. कर्ज़ा चुकाने के नाम पर वोट मांगा जा रहा है और चुनाव आयोग चुप्पी साधे बैठे है. जब नागरिक अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं रहते तो वो आवाज़ नहीं उठाते और सरकार के प्रति एहसान के बोझ तले दबने लगते हैं.
ये बोझ असहनीय तब हो जाता है जब नेता लोग बुरे वक्त में बांटे गए गल्ले और नमक का हिसाब मांगने लग जाएं. लेकिन एक सच ये भी है कि लोकतंत्र में हिसाब करने में सबसे अधिक माहिर जनता होती है. इसलिए नेताओं को संभलकर बोलना चाहिए. किसी दिन जनता ने पलटकर बोल दिया कि नहीं.. हमने आपका नमक नहीं खाया है सरकार ! तब क्या कीजिएगा ?
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