जो दिखे वो ख़बर नहीं होती, जो छिपे वो ख़बर होती है. पत्रकारिता के इस सिद्धांत ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उस किताब को नजरअंदाज कर दिया जो किताब उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह को भेंट की. किताब भेंट करने की जारी तस्वीर को ज़ूम करके उसके शीर्षक- 'प्रवासी संकट का समाधान' पर ज़रूर ग़ौर किया गया. और कहा गया कि किताब का शीर्षक समाधान ही इन मुलाकातों और बातचीत की गंभीरता को बयां करता है. केंद्र और यूपी के बीच सियासी टकराव के समाधान के लिए योगी आदित्यनाथ और भाजपा के शीर्ष नेताओं की बैठकें किसी समाधान का रास्ता खोज रही हैं. छुपी हुई खबरों को निकालने की प्राथमिकता में प्रत्यक्ष किताब ही गूढ़ हो गई.
किसी हद तक ये ठीक भी है कि सत्ताधारियों के बीच हाई वोल्टेज सियासी ड्रामा हर दौर मे होता रहा है. ऐसे में इस पर परदा डालने के लिए पार्टियां या राजनेता सब कुछ ठीक होने का ड्रामा मंचित करते हैं. सबकुछ सामान्य होने की अदाकारी करते हैं. और अदाकारी को बेहतर बनाने के लिए प्रॉप इस्तेमाल करते हैं.
गौरतलब है कि ड्रामे में बहुत सारी चीज़े प्रॉप कहलाती हैं. ये चीज़ों का प्रत्यक्ष रूप से कोई ख़ास मतलब नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अदाकारों की अदाकारी इससे मज़बूत होती है. जैसी छड़ी, गमछा, सिगरेट, किताब...इत्यादि जैसी ड्रामे की प्रॉपर्टी यानी प्रॉप कलाकारों की कलाकारी को निखारती है.
थीम, विषय वस्तु, प्लॉट से भले इसका कोई मतलब नहीं हो लेकिन ये प्रॉप विजुअल वैल्यू और अभिनेता के अभिनय में मदद के लिए बखूबी इस्तेमाल होती है. सियायी ड्रामेबाज़ी भी रंगमंच वाले ड्रामे जैसी ही होती है. यहां कई बार सच को छिपाया जाता है और सच को छिपाने के लिए...
जो दिखे वो ख़बर नहीं होती, जो छिपे वो ख़बर होती है. पत्रकारिता के इस सिद्धांत ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उस किताब को नजरअंदाज कर दिया जो किताब उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह को भेंट की. किताब भेंट करने की जारी तस्वीर को ज़ूम करके उसके शीर्षक- 'प्रवासी संकट का समाधान' पर ज़रूर ग़ौर किया गया. और कहा गया कि किताब का शीर्षक समाधान ही इन मुलाकातों और बातचीत की गंभीरता को बयां करता है. केंद्र और यूपी के बीच सियासी टकराव के समाधान के लिए योगी आदित्यनाथ और भाजपा के शीर्ष नेताओं की बैठकें किसी समाधान का रास्ता खोज रही हैं. छुपी हुई खबरों को निकालने की प्राथमिकता में प्रत्यक्ष किताब ही गूढ़ हो गई.
किसी हद तक ये ठीक भी है कि सत्ताधारियों के बीच हाई वोल्टेज सियासी ड्रामा हर दौर मे होता रहा है. ऐसे में इस पर परदा डालने के लिए पार्टियां या राजनेता सब कुछ ठीक होने का ड्रामा मंचित करते हैं. सबकुछ सामान्य होने की अदाकारी करते हैं. और अदाकारी को बेहतर बनाने के लिए प्रॉप इस्तेमाल करते हैं.
गौरतलब है कि ड्रामे में बहुत सारी चीज़े प्रॉप कहलाती हैं. ये चीज़ों का प्रत्यक्ष रूप से कोई ख़ास मतलब नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अदाकारों की अदाकारी इससे मज़बूत होती है. जैसी छड़ी, गमछा, सिगरेट, किताब...इत्यादि जैसी ड्रामे की प्रॉपर्टी यानी प्रॉप कलाकारों की कलाकारी को निखारती है.
थीम, विषय वस्तु, प्लॉट से भले इसका कोई मतलब नहीं हो लेकिन ये प्रॉप विजुअल वैल्यू और अभिनेता के अभिनय में मदद के लिए बखूबी इस्तेमाल होती है. सियायी ड्रामेबाज़ी भी रंगमंच वाले ड्रामे जैसी ही होती है. यहां कई बार सच को छिपाया जाता है और सच को छिपाने के लिए वो चीज़े दिखाई जाती हैं जिनका कोई ख़ास मतलब नहींं होता.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात दो दिनों तक सबसे बड़ी सुर्खी बनी. योगी ने शाह और नड्डा को एक पुस्तक भेंट की, जिसकी तस्वीर मुलाकात की बानगी बनी.
इन मुलाकातों से दर्जनों अप्रत्यक्ष खबरें पैदा हुईं हैं लेकिन पुस्तक भेंट करने की प्रत्यक्ष खबर को एक लाइन से ज्यादा विस्तार नहीं दिया गया. यानी किताब किसकी लिखी हुई है? क्या योगी ने स्वयं ये किताब लिखी है, या किसी और ने लिखी है? इस किताब का विषय वस्तु क्या है? किताब का लेखक कौन है? ये किताब कब और किस मौके पर लिखी गई... वगैरह- वगैरह जानकारी सियासी खबरों से नदारद रही.
जबकि भाजपा के शीर्ष नेताओं की मुलाकात से जुड़ी अप्रत्यक्ष यानी कयासों, अनुमानों और सूत्रों पर आधारित दर्जनों ख़बरे़ छाई रहीं. शायद ख़बरें निकालने वालों की मंशा ये हो कि किताब भेंट करना तो एक शिष्टाचार भेंट तक मुलाकात को सीमित रखने का एक पोज़ है.
मुलाकातों को सकारात्मकता के रंग देने और रूटीन औपचारिक भेंट का प्रतीक साबित किया गया है. जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से मिलने जाने के पीछे यूपी की सियासत का निहितार्थ काफी गंभीर और गहरा है.
क्या सच में भाजपा के यूपी नेतृत्व और केंद्रीय नेतृत्व के बीच कोई मनमुटाव है या ये सब कयासबाज़ी है? साफतौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. यदि सचमुच अंदर ही अंदर कुछ पक रहा है तो राज़ की इस किताब के वरक़ किसी बड़े बदलाव की आंधी खोलेगी ही.
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