अब चूंकि लगभग आधा दर्जन से ज्यादा सर्वे एजेंसियों के एक्जिट पोल के आंकड़े सामने आ चुके हैं, इन आंकड़ों की सही परख के लिए 10 मार्च तक का इंतजार करना पड़ेगा. चुनाव भले ही पांच राज्यों में हुए. लेकिन, दिल्ली हो या अन्य राज्य, राजनीतिक पंडितों-विश्लेषकों की नजर उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई थी, और उसके कारण भी स्पष्ट हैं. संक्षेप में कहें, तो ये परिणाम अगले दो साल के देश के राजनीतिक दिशा को तय करने वाले होंगे.
लिहाजा, यह आंकलन भी उत्तर प्रदेश केंद्रित है. मुद्दों की लड़ाई, उन पर बहस और उस आधार पर मतदाताओं का रूझान का वक्त खत्म हो चुका है, क्योंकि मतदान खत्म हो चुका है. किसान आंदोलन, बेरोजगारी, आवारा पशु, महंगाई, कोरोना और धार्मिक धुव्रीकरण जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द विपक्ष ने अपना अभियान शुरू किया था, लेकिन एक्जिट पोल के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि मोदी-योगी ब्रांड, राशन और सुशासन ने बीजेपी को इतिहास रचने के कगार पर ला खड़ा किया है.
इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के आंकड़ों को खंगालें, तो इन आंकड़ों पर रची कहानी को समझना होगा. फिर भी, आंकड़ों को दस बिदुंओं में समझने की कोशिश करें तो पता लगेगा कि आंकड़ों में हैरान कर देने जैसी कोई बात नहीं दिखती.
1. मोदी-योगी ब्रांड का मैजिक कायम- जब बीजेपी 2017 के चुनाव में मैदान में उतरी थी, तब प्रदेश के किसी नेता का चेहरा बतौर मुख्यमंत्री लोगों के सामने नहीं था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इकलौते नेता थे, जिनके चेहरे को सामने पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया था. अमित शाह तब पार्टी के अध्यक्ष थे, लिहाजा रणनीति बनाने औऱ जमीन पर उसे उतारने की कमान उन्होंने स्वयं...
अब चूंकि लगभग आधा दर्जन से ज्यादा सर्वे एजेंसियों के एक्जिट पोल के आंकड़े सामने आ चुके हैं, इन आंकड़ों की सही परख के लिए 10 मार्च तक का इंतजार करना पड़ेगा. चुनाव भले ही पांच राज्यों में हुए. लेकिन, दिल्ली हो या अन्य राज्य, राजनीतिक पंडितों-विश्लेषकों की नजर उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई थी, और उसके कारण भी स्पष्ट हैं. संक्षेप में कहें, तो ये परिणाम अगले दो साल के देश के राजनीतिक दिशा को तय करने वाले होंगे.
लिहाजा, यह आंकलन भी उत्तर प्रदेश केंद्रित है. मुद्दों की लड़ाई, उन पर बहस और उस आधार पर मतदाताओं का रूझान का वक्त खत्म हो चुका है, क्योंकि मतदान खत्म हो चुका है. किसान आंदोलन, बेरोजगारी, आवारा पशु, महंगाई, कोरोना और धार्मिक धुव्रीकरण जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द विपक्ष ने अपना अभियान शुरू किया था, लेकिन एक्जिट पोल के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि मोदी-योगी ब्रांड, राशन और सुशासन ने बीजेपी को इतिहास रचने के कगार पर ला खड़ा किया है.
इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के आंकड़ों को खंगालें, तो इन आंकड़ों पर रची कहानी को समझना होगा. फिर भी, आंकड़ों को दस बिदुंओं में समझने की कोशिश करें तो पता लगेगा कि आंकड़ों में हैरान कर देने जैसी कोई बात नहीं दिखती.
1. मोदी-योगी ब्रांड का मैजिक कायम- जब बीजेपी 2017 के चुनाव में मैदान में उतरी थी, तब प्रदेश के किसी नेता का चेहरा बतौर मुख्यमंत्री लोगों के सामने नहीं था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इकलौते नेता थे, जिनके चेहरे को सामने पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया था. अमित शाह तब पार्टी के अध्यक्ष थे, लिहाजा रणनीति बनाने औऱ जमीन पर उसे उतारने की कमान उन्होंने स्वयं संभाल रखी थी. योगी आदित्यनाथ को लेकर किसी ने दूर-दूर तक कोई अटकल तक नहीं लगाई थी. पर, पांच साल के बाद बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं एक ब्रांड के रूप में उभर कर सामने आए. इसीलिए भले ही उत्तराखंड, मणिपुर या गोवा में पार्टी ने मुख्यमंत्री को कोई चेहरा तय नहीं किया या किसी नाम की घोषणा नहीं की, लेकिन उत्तर प्रदेश में जैसे ही मुहिम ने जोर पकड़ना शुरू किया, पार्टी ने साफ कर दिया कि योगी ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे. पार्टी ने शक-सुबहा की गुंजाइश नहीं छोड़ी औऱ जो नेता कुछ ख्बाव पाले बैठे थे, उन्हें भी मन-मसोसकर पार्टी लाइन के साथ जुड़ना पड़ा. इस योगी ब्रांड या बुलडोजर बाबा का असर चुनावी रैलियों में साफ तौर पर महसूस किया जा रहा था. अमूमन प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में अब तक मोदी-मोदी के नारे सुनने को मिलते थे, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री की रैलियों में भी 'योगी-योगी' के नारे भी सुनने को मिले. इंडिया-टुडे-एक्सिस के सर्वे के मुताबिक, प्रदेश के 45 फीसदी लोग योगी के दोबारा मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में दिखते हैं, जो एक बड़ा नंबर है.
2. शाह का कमांड-कंट्रोल असरदार– 2017 में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब अमित शाह पार्टी के अध्यक्ष थे. रणनीति की पूरी कमान अमित शाह के पास थी और 2017 में जो परिणाम आए, उसके बाद से अमित शाह को भारतीय राजनीति का चाणक्य भी कहा गया, हालांकि बाद में कई राज्यों के परिणाम पार्टी के अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे. हालांकि, इस बार पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा थे, लेकिन कमांड-कंट्रोल अमित शाह के ही हाथ में दिखा. किसान आंदोलन को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की नाराजगी का जब मसला सामने आया, तब शाह ही सामने आए और जाट नेताओं की बड़ी बैठक अपने दिल्ली आवास पर बुलाकर नाराजगी खत्म करने की कोशिश की. इतना ही नहीं, एनडीए से जुड़ी पार्टियों-अपना दल और निषाद पार्टी के साथ सीटों का बंटवारा और तालमेल संबंधित तमाम बैठकें भी शाह के घर पर ही हुईं.
3. बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग- इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के डाटा से पता चलता हैं कि कैसे बीजेपी अपनी सोशल इंजीनियरिंग में कामयाब रह सकती है. मुस्लिम-यादव समीकरण को लाभ समाजवार्दी पार्टी को मिलना लगभग तय था औऱ खास ऐसी स्थिति में जबकि बसपा पूरी ताकत से चुनाव मैदान में कभी दिखी ही नहीं. ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण यह था कि सत्ता के करीब पहुंचने में समाजवादी पार्टी ओबीसी वर्ग में गैर-यादव समूहों में और दलित वोट बैंक में कितनी सेंधमारी कर पाती है. एक्जिट पोल के आंकड़ों के मुताबिक, दलितों में जाटव वोट का 62 फीसदी बसपा को तो मिल रहा है, लेकिन बीजेपी को 21 फीसदी जाटवों का और गैर-जाटव दलितों को 51 फीसदी वोट मिलता दिख रहा है. उधर, समाजवादी पार्टी को 14 फीसदी जाटव वोट और 27 फीसदी गैर-जाटव दलित वोट मिलता दिख रहा है, लेकिन बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच का अंतर बड़ा है और इसका असर सीटों पर भी दिख सकता है. इसकी एक बड़ी वजह, कोरोना काल में महीने में 15 करोड़ लोगों को मिलने वाली मुफ्त राशन योजना का लाभ, 43 लाख लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के मिले आवास, सौभाग्य योजना के तहत डेढ़ करोड़ लोगों को मुफ्त बिजली, या इसी तरह मुफ्त शौचालय, उज्जवला योजना से मिले लाभ को माना जा रहा है.
4. यादव-मुस्लिम सपा के साथ, अन्य OBC वर्ग में बीजेपी का दबदबा- प्रारंभ से यह दिख रहा था कि यादव और मुस्लिम वोट पर समाजवादी की पकड़ मजबूत रहने वाली है. इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एक्जिट पोल के आंकड़ों के मुताबिक, 83 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का वोट सपा को मिलता दिख रहा है, वहीं ओबीसी कैटेगरी में 86 फीसदी यादवों का वोट सपा को मिलने की संभावना है. लेकिन इसके उलट बीजेपी को मिले मतों का आकलन देखें तो इस पार्टी को भी 10 फीसदी यादवों का, और 8 फीसदी मुस्लिम वोट मिलता दिख रहा है. पर साथ ही, 47 फीसदी जाट वोट, 58 फीसदी कुर्मी वोट औऱ 65 फीसदी अन्य ओबीसी मतदाताओं का वोट बीजेपी को मिलता दिख रहा है. हालांकि, सपा-रालोद को भी 44 फीसदी जाट वोट मिलता दिख रहा है.
5. सवर्ण मतदाताओं में बीजेपी का दबदबा कायम- सवर्ण तबके को परंपरागत रूप से बीजेपी का वोट बैंक के रूप में देखा जाता रहा है. एक सोच यह भी रही है कि बीजेपी मूलत शहरी तबके की पार्टी है, लिहाजा ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी को उतनी सफलता नहीं मिलती. इस बार ये सोच भी फैल रही थी कि ब्राह्मण तबका शायद बीजेपी से नाराज है. लेकिन एक्जिट पोल के आंकड़ें कुछ और ही कहानी बताते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, शहरी के साथ-साथ ग्रामीण मतदाताओं का रूझान भी बीजेपी की तरफ दिखी, साथ ही, ब्राह्मण समेत तमाम सवर्ण तबके पर बीजेपी की पकड़ बनी हुई है. इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एक्जिट पोल के आंकड़ों के मुताबिक, शहरी क्षेत्र में बीजेपी को जहां 45 फीसदी वोट मिलता दिख रहा है, वहीं ग्रामीण इलाकों में पार्टी को 49 फीसदी वोट मिलने की संभावना है. कुछ लोगों की इन आंकड़ों से हैरानी हो सकती है लेकिन यहां भी उन्हीं सामाजिक योजनाओं का लाभ पार्टी को मिलता दिख रहा है. दूसरी तरफ, सपा को शहरी क्षेत्र में 36 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 35 फीसदी मत मिलने की संभावना है. अगर, सवर्ण मतदाताओं की बात करें तो 70 फीसदी ब्राह्मणों, 71 फीसदी राजपूतों औऱ 71 फीसदी अन्य सवर्णों का मत बीजेपी को मिलता दिख रहा है, जबकि सपा को 17 फीसदी ब्राह्मण, 15 फीसदी राजपूत औऱ 10 फीसदी अन्य सवर्णों का वोट मिलता दिख रहा है.
6. महिलाओं के रूझान से बीजेपी को निर्णायक लाभ- एक्जिट पोल के रूझान या आंकड़ों में महिला मतदाताओं को लेकर एक दिलचस्प तथ्य है. अगर फेज वाइज मतदान के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2017 के मुकाबले में 2022 में महिला मतदाताओं का मतदान भले ही कम दिख रहा हो, लेकिन जैसे-जैसे फेज में मतदान प्रक्रिया आगे बढ़ती गई, महिला मतदाताओं ने न सिर्फ बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी दिखाई, बल्कि कुछ चरणों में पुरूष और महिला मतदाताओं में मत का प्रतिशत 10 फीसदी से ऊपर दिखा. चौथे फेज से ही महिलाओं मतदाताओं ने पुरूषों से ज्यादा मतदान किया और ये अंतर पांचवें चरण में जहां चार फीसदी से अधिक था, वो छठें चरण में बढ़कर 11 फीसदी के करीब पहुंच गया था. इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एक्जिट पोल के आंकड़ों के मुताबिक, 44 फीसदी पुरूषों ने जहां बीजेपी को वोट दिया है, वहीं 48 फीसदी महिलाओं को वोट बीजेपी को मिलता दिख रहा है. दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी को जहां पुरुषों का 40 फीसदी वोट मिलता दिख है, वहीं मात्र 32 फीसदी महिलाओं का वोट सपा को मिलता दिख रहा है. मतलब महिलाओं द्वारा दिए गए वोट में बीजेपी और सपा के बीच का अंतर लगभग 16 फीसदी का है, जो काउंटिंग के समय निर्णायक साबित हो सकते हैं. औऱ एक बार यहां भी, प्रधानमंत्री आवास योजना, कोरोना काल में मिले मुफ्त राशन योजना, मुफ्त बिजली, मुफ्त सिलेंडर और मुफ्त में मिले शौचालय का लाभ बीजेपी को मिलता दिख रहा है.
7. नए वोटर वर्ग में कड़ा मुकाबला, लेकिन अन्य वर्ग में बीजेपी को बढ़त- उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं में 52 लाख नए वोटर शामिल हुए, इनमें 23.92 लाख पुरूष मतदाता थे, जबकि 28.86 लाख महिला मतदाता पहली बार शामिल हुए. लेकिन इंडिया-टुडे-एक्सिस माई इंडिया के आंकड़ों को देंखे तो 18 से 25 वर्ष आयु वर्ग में काफी कड़ा मुकाबला देखने के मिल रहा है. इस आयु वर्ग में जहां बीजेपी को 41 फीसदी वोट मिलता दिख रहा है, वहीं समाजवादी पार्टी को 40 फीसदी यानि मात्र एक फीसदी का अंतर दिख रहा है. लेकिन अन्य आयु वर्ग में बीजेपी का दबदबा साफ दिख रहा है. 26 से 35 वर्ष आयु वर्ग में बीजेपी को 44 फीसदी मत, जबकि सपा को 38 फीसदी वोट मिलता दिख रहा है. वहीं, 36 से 50 साल आयु वर्ग में दोनों पार्टियों के बीच लगभग 13 फीसदी, 51 से 60 साल आयु वर्ग में 18 फीसदी का अंतर और 61 साल के ऊपर के आयु वर्ग में दोनों पार्टियों के बीच लगभग 24 फीसदी का अंतर दिख रहा है. स्पष्ट है कि बीजेपी की फ्री लैपटॉप और दो करोड़ स्मार्टफोन देने का संकल्प युवाओं को लुभाने में सफल रहा है, हालांकि फ्री लैपटॉप, रूकी पड़ी भर्तियों को शुरू करने का वादा सपा ने भी कर रखा था. एक आंकड़ा यह भी कहता है कि अशिक्षित वर्ग में भी मुकाबला कड़ा है, जहां बीजेपी को 42 फीसदी मत और सपा को 40 फीसदी वोट मिलता दिख रहा है, लेकिन ग्रेजुएट, डिग्री धारी और प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने वाले समूह में बीजेपी को ज्यादा पसंद किया गया है.
8. सुशासन का नारा कामयाब- बीजेपी ने इस चुनाव कानून-व्यवस्था, माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई, अपराधियों के खिलाफ एनकाउंटर और महिला सुरक्षा को सबसे प्रमुख मुद्दा बनाया था. साथ ही, पार्टी ने विकास के नाम पर एक्सप्रेस-वे, डिफेंस कॉरिडोर, राज्य का बढ़ता बजट और प्रदेश में बढ़ रहे निवेश का खाका लोगों को सामने खींचा औऱ ये भी बताने की कोशिश की इन निवेश की वजह से रोजगार के अवसर बढ़ने वाले हैं. साथ ही, हर रैलियों में बीजेपी ने यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ा कि किस तरह पूर्ववती सपा सरकार में कानून-व्यवस्था ताक पर थी, माफियाओं का राज चलता था औऱ घोटालों को बोलबाला था. कैसे उन माफियाओं के चंगुल से जमीन छुड़वाई गई, अवैध कब्जों पर बुलडोजर चला औऱ माफिया-अपराधी जेल के सीखचों के पीछे हैं. एक्जिट पोल के आंकड़ें देंखे तो स्पष्ट दिखता है कि किस तरह लगभग 27 फीसदी लोगों ने विकास के नाम पर बीजेपी को वोट देने की बात कही, बेहतर कानून-व्यवस्था के नाम पर 10 फीसदी और फ्री राशन व अन्य योजनाओं के नाम पर 11 फीसदी लोगों ने बीजेपी को वोट देना पसंद किया. जबकि समाजवादी पार्टी को वोट देने वालों में महंगाई (15 फीसदी) और बेरोजगारी (17 फीसदी) जैसे मुद्दे प्रमुख थे. रहा सवाल बसपा का तो पसंदीदा पार्टी के तौर पर 20 फीसदी लोगों ने, जबकि जाति के आधार पर 26 फीसदी लोगों ने मत दिए. पसंदीदा पार्टी के नाम पर बीजेपी और समाजवादी पार्टी को 12-12 फीसदी लोगों ने मत दिए.
9. बसपा का कमजोर होने का लाभ सपा-बीजेपी को- हालांकि कहने को मायावती ने अपने प्रत्याशियों के पक्ष में कुल 20 रैलियां की, लेकिन अगर इसकी तुलना अगर योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव से की जाए, तो यह स्पष्ट दिख रहा था कि पार्टी पूरी ताकत से मैदान में नहीं थी. हालांकि बसपा ने अपने पुराने समीकरण यानि दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण को उभारने की काफी कोशिश की. चुनावी घोषणाओं से पहले सतीश चंद मिश्रा ने कई ब्राह्मण सम्मेलन भी कराएं, तो पार्टी को इसका ज्यादा लाभ नहीं दिखा. एक्जिट पोल के आंकड़ों बताते हैं कि किस तरह पार्टी को जाटव वोट का 62 फीसदी मत मिलता दिख रहा है लेकिन गैर-जाटव दलित मतदाताओं का मात्र 16 फीसदी, मुस्लिम मतों का मात्र तीन फीसदी और ब्राह्मण-राजपूतों के सात-सात फीसदी वोट बसपा को मिलता दिख रहा है. बसपा के कमजोर होने का लाभ अलग-अलग वर्गों में समाजवादी और बीजेपी को मिलता दिख रहा है.
10. कांग्रेस का दांव विफल- प्रदेश में 164 रैली, नुक्कड़ सभा, रोड शो करने के बाद अगर कांग्रेस का हाल बेहतर नहीं दिख रहा तो इसके लिए प्रदेश की संगठनात्मक स्थिति ही जिम्मेदार कही जा सकती है. प्रियंका गांधी ने प्रदेश में अकेले मोर्चा संभाला लेकिन राहुल गांधी बिल्कुल अंतिम चरण में प्रचार के लिए दिखे. पार्टी द्वारा महिलाओं को लुभाने के मकसद से काफी घोषणाएं हुईं, प्रियंका गांधी ने स्वयं 40 फीसदी सीट महिलाओं को देने की घोषणा की, 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का कैंपेन चलाया, लेकिन बीच में इस कैंपेन के कई चेहरे टिकट न मिलने के कारण बीजेपी का हाथ थाम लिया. एक्जिट पोल के आंकड़ों दर्शाते हैं कि किस तरह पार्टी महिलाओं में भी पैठ बनाने में नाकामयाब रही. पार्टी को महिलाओं का सिर्फ तीन फीसदी वोट मिलता दिख रहा है.
कुल मिलाकर आंकड़े बताते है कि दो गठबंधनों में सीधी टक्कर हुई है, लेकिन जातिगत समीकरण, मोदी-योगी ब्रांड इमेज, राशन और सुशासन के नाम पर बीजेपी को मजबूत बढ़त मिलती दिख रही है. साथ ही, अगर परिणाम एक्जिट पोल के मुताबिक रहे तो प्रदेश में बसपा और कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य पर भी सवालिया निशान लगेगा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.