लोकसभा चुनाव 2019 का सेमीफाइनल माने जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद अब राजनीतिक दलों का पूरा ध्यान भाजपा के खिलाफ बनाए जाने वाले विपक्षी महागठबंधन पर है. और इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के अध्य्क्ष उपेंद्र कुशवाहा विपक्ष के महागठबंधन में शामिल हो गए. इससे पहले उपेंद्र कुशवाहा भाजपा के सहयोगी पार्टी के नेता के अलावा केंद्रीय मंत्री भी थे. लेकिन चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक पार्टियां जीत-हार का आकलन करती हैं और उसी के अनुसार अपना पाला भी बदलती हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने भी वही किया. लेकिन सवाल ये है कि उनके पाला बदलने से उनके पार्टी को कितना फायदा होगा? महागठबंधन को कितना फायदा होगा? वो बिहार की सियासत में कितना असरदार साबित होंगे? क्या महागठबंधन में शामिल होकर वो एनडीए को कमज़ोर कर पाएंगे?
अगर बिहार में इसके बाद सियासी नफा-नुकसान की बात करें तो रालोसपा 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन करके लड़ा था और चार में से तीन सीटों पर जीत भी हासिल की थी. लेकिन इसका वोट प्रतिशत मात्र 3.05 था. वहीं जदयू को जहां 2 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था लेकिन इसका वोट प्रतिशत 16.4 था यानी रालोसपा से पांच गुना से भी ज्यादा. बिहार में कुशवाहा समुदाय का आबादी करीब 6 प्रतिशत है. वैसे भी बिहार में हुए कई उपचुनावों में भी कुशवाहा समाज ने एनडीए का साथ नहीं दिया है. यानी उपेन्द्र कुशवाहा फैक्टर का फायदा एनडीए को अधिक नहीं मिला है. यही नहीं 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बिहार के सियासी पटल पर रालोसपा का ज्यादा नाम नहीं था.
और जब उपेंद्र कुशवाहा ने विपक्षी महागठबंधन में शामिल होने की घोषणा की...
लोकसभा चुनाव 2019 का सेमीफाइनल माने जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद अब राजनीतिक दलों का पूरा ध्यान भाजपा के खिलाफ बनाए जाने वाले विपक्षी महागठबंधन पर है. और इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के अध्य्क्ष उपेंद्र कुशवाहा विपक्ष के महागठबंधन में शामिल हो गए. इससे पहले उपेंद्र कुशवाहा भाजपा के सहयोगी पार्टी के नेता के अलावा केंद्रीय मंत्री भी थे. लेकिन चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक पार्टियां जीत-हार का आकलन करती हैं और उसी के अनुसार अपना पाला भी बदलती हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने भी वही किया. लेकिन सवाल ये है कि उनके पाला बदलने से उनके पार्टी को कितना फायदा होगा? महागठबंधन को कितना फायदा होगा? वो बिहार की सियासत में कितना असरदार साबित होंगे? क्या महागठबंधन में शामिल होकर वो एनडीए को कमज़ोर कर पाएंगे?
अगर बिहार में इसके बाद सियासी नफा-नुकसान की बात करें तो रालोसपा 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन करके लड़ा था और चार में से तीन सीटों पर जीत भी हासिल की थी. लेकिन इसका वोट प्रतिशत मात्र 3.05 था. वहीं जदयू को जहां 2 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था लेकिन इसका वोट प्रतिशत 16.4 था यानी रालोसपा से पांच गुना से भी ज्यादा. बिहार में कुशवाहा समुदाय का आबादी करीब 6 प्रतिशत है. वैसे भी बिहार में हुए कई उपचुनावों में भी कुशवाहा समाज ने एनडीए का साथ नहीं दिया है. यानी उपेन्द्र कुशवाहा फैक्टर का फायदा एनडीए को अधिक नहीं मिला है. यही नहीं 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बिहार के सियासी पटल पर रालोसपा का ज्यादा नाम नहीं था.
और जब उपेंद्र कुशवाहा ने विपक्षी महागठबंधन में शामिल होने की घोषणा की तब उनकी पार्टी में भी टूट पड़ गई. उनकी पार्टी के दो विधायक और एक मात्र एमएलसी ने साथ छोड़ एनडीए को साथ देने का ऐलान कर दिया. मतलब साफ है इन तीनों विधायकों का भी उनके विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव होगा ही. यही नहीं सूत्रों के मुताबिक भाजपा एक सीट उपेंद्र कुशवाहा के सहयोगी अरुण कुमार को दे सकती है. ऐसे में इन जगहों पर पूरा का पूरा कुशवाहा वोट महागठबंधन में जाने की संभावना कम ही दिखती है.
अगर बिहार के 2014 के लोकसभा चुनावों में दोनों ध्रुवों के वोट शेयर को देखें तो तस्वीर साफ दिखती है कि किसको कितना फायदा हो सकता है. अगर सारे दलों के वोट शेयर आने वाले लोकसभा चुनाव में एक हो भी जाएं तो भी.
महागठबंधन: राजद -20.46, कांग्रेस- 8.56, रालोसपा- 3.05, हम- 2.27, एनसीपी-1.22 = 35.56 प्रतिशत वोट शेयर
एनडीए: भाजपा- 29.86, जेडीयू- 16.04, लोजपा- 6.50 = 52.40 प्रतिशत वोट शेयर
ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा का यहां विपक्षी महागठबंधन में शामिल होना यह दर्शाता है कि एनडीए को इससे ज्यादा नुक्सान नहीं होने वाला है और कुशवाहा को इसका राजनीतिक फायदा उतना न मिले जितना उन्हें उम्मीद है. हां, इसका कुछ फायदा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को ज़रूर मिल सकता है.
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