ये दुर्भाग्यपूर्ण संकेत हैं कि ऐसे ही हालात रहे तो वो दिन दूर नहीं कि उत्तर प्रदेश विपक्ष विहीन हो जाए. ये आसार लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चिंता का विषय है. विपक्ष की आहट, आवाज़, सक्रियता, आलोचनात्मक तेवर और मजबूती होना ज़रूरी है. लेकिन यूपी में विपक्ष दिनों दिन हाशिए पर आता दिख रहा है. बसपा गायब, कांग्रेस खामोश और सपा में फूट, कलह, तकरार और बिखराव. और लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ और रामपुर जैसे अपने गढ़ भी हार जाना. कांग्रेस यूपी को अध्यक्ष नहीं दे पा रही, बताया जा रहा है कि कांग्रेस का कोई नेता यूपी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी निभाने के लिए राज़ी ही नहीं हो रहा. बसपा का यूपी अध्यक्ष कौन है? शायद ही किसी को ये पता हो. सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती के ट्वीट मात्र ही बस बताते हैं कि ये लोग यूपी की राजनीति में सक्रिय हैं. सोशल मीडिया या एएनआई. पर मायावती के बयान कभी सपा पर हमला करते हैं तो कभी मुसलमानों को साथ लाने की कोशिश मात्र करते हैं.
कुल मिलाकर बहन जी में अब पहले जैसे विपक्षी तेवर और ज़मीनी संघर्ष जैसा जज्बा-जुनून और विपक्षी भूमिका निभाने जैसी जिम्मेदारी की भावना बिल्कुल भी नहीं रही. सपा का जिक्र हो तो समझ लीजिएगा कि पार्टी में गृहयुद्ध का कोई नया एपीसोड या कोई पुराना रिकार्ड बज रहा होगा.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बसपा की स्थिति देखकर लगने लगा था कि दूसरी बार विधानसभा चुनाव हारने वाली सपा ने बल्क मुस्लिम वोट और ओमप्रकाश राजभर का साथ पाकर अच्छा वोट प्रतिशत हासिल किया, इसलिए कहा जा सकता था कि यूपी में भाजपा से मुकाबले के लिए अकेली सपा खड़ी है. लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद सपा से मुस्लिम समाज...
ये दुर्भाग्यपूर्ण संकेत हैं कि ऐसे ही हालात रहे तो वो दिन दूर नहीं कि उत्तर प्रदेश विपक्ष विहीन हो जाए. ये आसार लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चिंता का विषय है. विपक्ष की आहट, आवाज़, सक्रियता, आलोचनात्मक तेवर और मजबूती होना ज़रूरी है. लेकिन यूपी में विपक्ष दिनों दिन हाशिए पर आता दिख रहा है. बसपा गायब, कांग्रेस खामोश और सपा में फूट, कलह, तकरार और बिखराव. और लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ और रामपुर जैसे अपने गढ़ भी हार जाना. कांग्रेस यूपी को अध्यक्ष नहीं दे पा रही, बताया जा रहा है कि कांग्रेस का कोई नेता यूपी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी निभाने के लिए राज़ी ही नहीं हो रहा. बसपा का यूपी अध्यक्ष कौन है? शायद ही किसी को ये पता हो. सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती के ट्वीट मात्र ही बस बताते हैं कि ये लोग यूपी की राजनीति में सक्रिय हैं. सोशल मीडिया या एएनआई. पर मायावती के बयान कभी सपा पर हमला करते हैं तो कभी मुसलमानों को साथ लाने की कोशिश मात्र करते हैं.
कुल मिलाकर बहन जी में अब पहले जैसे विपक्षी तेवर और ज़मीनी संघर्ष जैसा जज्बा-जुनून और विपक्षी भूमिका निभाने जैसी जिम्मेदारी की भावना बिल्कुल भी नहीं रही. सपा का जिक्र हो तो समझ लीजिएगा कि पार्टी में गृहयुद्ध का कोई नया एपीसोड या कोई पुराना रिकार्ड बज रहा होगा.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बसपा की स्थिति देखकर लगने लगा था कि दूसरी बार विधानसभा चुनाव हारने वाली सपा ने बल्क मुस्लिम वोट और ओमप्रकाश राजभर का साथ पाकर अच्छा वोट प्रतिशत हासिल किया, इसलिए कहा जा सकता था कि यूपी में भाजपा से मुकाबले के लिए अकेली सपा खड़ी है. लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद सपा से मुस्लिम समाज की नाराजगी के संकेत और गठबंधन के बिखराव से लगने लगा कि आगामी लोकसभा में भाजपा को टक्कर देना सपा के लिए भी मुश्किल है.
लोकसभा उपचुनाव की आजमगढ़ और रामपुर जैसे अपने गढ़ को भी जब सपा हारी तो स्थिति और भी नाजुक हो गई. सपा अध्यक्ष के चाचा शिवपाल यादव तो नाराज़ होकर किनारे हो ही चुके थे और अब सबसे सशक्त घटक दल सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने भी गठबंधन से अलग होने के साफ संकेत दे दिए. जबकि सुभासपा और शिवपाल यादव का साथ सपा के लिए बेहद जरूरी था.
शिवपाल को संगठन शिल्पी माना जाता है और यादव वोट बैंक का एक हिस्सा उनके विश्वास से जुड़ा है. और सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर जो यूपि विधानसभा चुनाव में सपा गठबंधन के सबसे मजबूत स्तम्भ थे,उनकी उपयोगिता गैर यादव पिछड़ा वर्ग को जोड़ने की रही है. सपा गंठबंधन ने विधानसभा चुनाव में एम वाई के अतिरिक्त वोट प्रतिशत में जो बढ़त हासिल की थी उसका श्रेय राजभर को जाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी लोकसभा सीट के इर्द-गिर्द पूर्वांचल की कई सीटें हारना भाजपा के लिए बेहद बड़ा झटका था, सपा गठबंधन की पूर्वांचल विजय का भी पूरा श्रेय ओमप्रकाश राजभर को जाता है, जिनका पूर्वांचल में पिछड़े समाज में जबरदस्त जनाधार है. सपा गठबंधन से राजभर का बाहर आना आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को राहत और सपा को आहत कर सकती है.
दिखाई देने वाली इस तमाम सच्चाइयों को आप कुछ भी कह सकते हैं!
भाजपा के विजय रथ के सफर का हमसफर बनने की छोटे विपक्षी दलों की हसरत कहिए, भाजपा के बढ़ते जनसमर्थ का आकर्षण कहिए, मोदी-योगी की लोकप्रियता और गुड गवर्नेस कहिए या जनकल्याणकारी कार्यों को इसकी वजह मानिए. दूसरा सबसे बड़ा कारण विपक्ष का नाकारा होना भी हो सकता है. हांलांकि विपक्षियों का अपना अलग तर्क है, अपने बचाव का बहाना या सत्तारूढ़ भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए विपक्षी कहते हैं कि हमें दबाया जाता है, डराया जाता है.
ईडी, आईटी, सीबीआई...इत्यादि को सरकार ने विपक्ष के खिलाफ हथियार बना लिया है. सरकारी मशीनरी भाजपा को जिताने और विपक्ष को हराने का काम करती है. सत्तारूढ़ भाजपा पर आरोप ऐसे भी लगे कि विपक्ष के समर्थकों को वोट डालने से रोका गया. ख़ासकर रामपुर लोकसभा उपचुनाव को लेकर सपा ने ऐसे आरोप लगाए. तानाशाही चल रही है. इमरजेंसी जैसे हालात हैं.
अपनी हार स्वीकार न करके और ज़मीनी संघर्ष करके जनविश्वास जीतने का प्रयास करने के बजाय मौजूदा वक्त को आपातकाल बताने वाले विपक्षी ऐसे आरोप लगाकर खुद को भी शून्य साबित करने की हिमाकत कर रहे हैं. क्योंकि जब इमरजेंसी जैसे हालात होते हैं तो विपक्ष केवल बयानबाजी नहीं करता जमीनी संघर्ष करता है, ज़मीनी आंदोलन करता है. सारे जेल भरके सरकार को नये अस्थाई जेल बनाने पर मजबूर कर देता है.
कांग्रेस सरकार में जब इमरजेंसी लगी थी तो ऐसा ही हुआ था. हर समाजवादी जेल में था. जेल भर गए थे और अस्थाई जेल बनाए गए थे.लेकिन सपा के अखिलेश यादव जैसे नेता एयरकंडीशनर कमरों से ट्वीट करके कह रहे हैं कि लोकतंत्र खत्म हो रहा है, इमरजेंसी जैसे हालात हैं.
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