यूपी में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से बीजेपी को उतना ही फायदा मिला, जितना पश्चिम बंगाल में नुकसान हुआ था - और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि जातीय राजनीति की बाधायें बीजेपी बड़े आराम से पार करती हुआ आगे बढ़ती चली गयी.
बीजेपी के स्वर्णकाल के लिए परदे के पीछे काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए जातीय राजनीति ही सबसे बड़ा चैलेंज रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के रूप में बीजेपी के M-Y फैक्टर समाजवादी पार्टी के मुस्लिम-यादव फैक्टर को मुकाबले में पीछे छोड़ दिया - और संघ के लिए अपने मिशन को आगे बढ़ाना काफी आसान भी हो गया.
लेकिन अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लोक सभा की राजनीति छोड़ लखनऊ में डेरा डाल लेने से बीजेपी के लिए अब पहला टास्क समाजवादी पार्टी मुक्त उत्तर प्रदेश बनाना हो गया है. बीएसपी और कांग्रेस सहित बाकी छोटे-मोटे नेताओं से तो बीजेपी को करीब करीब मुक्ति मिल ही चुकी है.
जैसे लोहे को लोहा काटता है, जातीय राजनीति को भी कास्ट पॉलिटिक्स ही काटेगी. बीजेपी की ये रणनीति अब तक सफल ही रही है. ऊपर से राष्ट्रवाद का एजेंडा जातीय राजनीति के लोहे को जल्दी गर्म कर देता है. फिर तो होता ये है कि हल्का फुल्का हथौड़ा भी भारी पड़ता है.
यूपी में बीजेपी के लिए बीएसपी और समाजवादी पार्टी दोनों ही की राजनीति बेहद चुनौतीपूर्ण रही है, लेकिन संघ के साये में अपनी रणनीतिक चालों से बीजेपी चुनाव दर चुनाव धीरे धीरे दोनों के वोट बैंक में घुसपैठ काफी आगे तक बढ़ा चुकी है. अखिलेश यादव को तो डैमेज किया ही है - मायावती की राजनीति को तो बीजेपी नेतृत्व ने अपनी तरफ से नेस्तनाबूद करने के प्रयास में कोई कसर बाकी भी नहीं रखी है.
भविष्य में...
यूपी में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से बीजेपी को उतना ही फायदा मिला, जितना पश्चिम बंगाल में नुकसान हुआ था - और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि जातीय राजनीति की बाधायें बीजेपी बड़े आराम से पार करती हुआ आगे बढ़ती चली गयी.
बीजेपी के स्वर्णकाल के लिए परदे के पीछे काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए जातीय राजनीति ही सबसे बड़ा चैलेंज रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के रूप में बीजेपी के M-Y फैक्टर समाजवादी पार्टी के मुस्लिम-यादव फैक्टर को मुकाबले में पीछे छोड़ दिया - और संघ के लिए अपने मिशन को आगे बढ़ाना काफी आसान भी हो गया.
लेकिन अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लोक सभा की राजनीति छोड़ लखनऊ में डेरा डाल लेने से बीजेपी के लिए अब पहला टास्क समाजवादी पार्टी मुक्त उत्तर प्रदेश बनाना हो गया है. बीएसपी और कांग्रेस सहित बाकी छोटे-मोटे नेताओं से तो बीजेपी को करीब करीब मुक्ति मिल ही चुकी है.
जैसे लोहे को लोहा काटता है, जातीय राजनीति को भी कास्ट पॉलिटिक्स ही काटेगी. बीजेपी की ये रणनीति अब तक सफल ही रही है. ऊपर से राष्ट्रवाद का एजेंडा जातीय राजनीति के लोहे को जल्दी गर्म कर देता है. फिर तो होता ये है कि हल्का फुल्का हथौड़ा भी भारी पड़ता है.
यूपी में बीजेपी के लिए बीएसपी और समाजवादी पार्टी दोनों ही की राजनीति बेहद चुनौतीपूर्ण रही है, लेकिन संघ के साये में अपनी रणनीतिक चालों से बीजेपी चुनाव दर चुनाव धीरे धीरे दोनों के वोट बैंक में घुसपैठ काफी आगे तक बढ़ा चुकी है. अखिलेश यादव को तो डैमेज किया ही है - मायावती की राजनीति को तो बीजेपी नेतृत्व ने अपनी तरफ से नेस्तनाबूद करने के प्रयास में कोई कसर बाकी भी नहीं रखी है.
भविष्य में जो भी हो मायावती के बाद अब बीजेपी के सामने दुश्मन नंबर 1 तो समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव ही हैं - यूपी में योगी आदित्यनाथ के कंधे पर बंदूक रख कर मोदी-शाह के निशाने पर आगे अखिलेश यादव ही रहने वाले हैं. चाहे वो चाचा शिवपाल यादव की वजह से हो, या फिर अन्य वजहों से अखिलेश यादव हर रोज कैसे कैसे जूझ रहे हैं हर कोई देख रहा है - और ये तो सिर्फ ट्रेलर है, पिक्चर तो पूरी बाकी ही है.
ब्रांड मोदी को आगे कर अमित शाह ने यूपी चुनाव के लिए जो वॉर-स्ट्रैटेजी तैयार की थी पूरी तरह सफल रही. हद से ज्यादा प्रतिकूल माहौल में भी. मोर्च पर वो खुद तो डटे ही रहे और हर जरूरी रसद की आपूर्ति करते रहे. तभी तो बीजेपी के तीनों जनरल मैदान में अपने अपने मोर्चे पर फतह कर पाये - मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह और यूपी चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान. सबसे बड़े ओबीसी चेहरे मोदी के साथ साथ स्वतंत्रदेव और धर्मेंद्र प्रधान तो लगे ही रहे, मायावती को घेरने के लिए उत्तराखंड की राजभवन से बुलायी गयीं बेबी रानी मौर्य की मौजूदगी का असर तो दिखा ही.
सबको साधने के चक्कर में सब कुछ गवां देने का भी तो खतरा होता है. अखिलेश यादव अगर समाजवादी पार्टी को बचा पाये हैं तो एक वजह यही लगती है. अगर समाजवादी पार्टी बहुत के करीब पहुंच कर चूक गयी होती तो ऐसा कहना मुश्किल होता.
बीजेपी के सामने अगला लक्ष्य अब 2024 का आम चुनाव (General Election 2024) ही है, लिहाजा उसे ऐसे तीन जनरलों की जरूरत है जो टास्क पूरा कर सकें. एक जनरल, योगी आदित्यनाथ तो अपनी सीट संभाल ही चुके हैं - बाकी दो यानी यूपी बीजेपी अध्यक्ष (P BJP President) और चुनाव प्रभारी कौन होता है यही देखना है. सत्ता में वापसी कराने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह हो सकता है, बीजेपी चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान को आगे भी बनाये रखे, लेकिन स्वतंत्रदेव सिंह के कैबिनेट का हिस्सा बन जाने की वजह से किसी को यूपी बीजेपी अध्यक्ष तो बनाना ही होगा.
यूपी में बीजेपी को कैसे अध्यक्ष की जरूरत है?
चर्चाओं में अब तक यूपी बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर एक ही नाम सामने आया है - श्रीकांत शर्मा, लेकिन सवाल ये है जो कारण मथुरा के विधायक के लिए मंत्री पद की राह के कांटे बने क्या वे यूपी बीजेपी अध्यक्ष पद के लिए नजरअंदाज किये जा सकते हैं? श्रीकांत शर्मा को मंत्री न बनाये जाने के पीछे उनके ऊर्जा विभाग में भ्रष्टाचार के आरोप, अपेक्षा के अनुरूप उनका प्रदर्शन न होना - और तमाम वजहों से इलाके के लोगों की नाराजगी मानी गयी है.
श्रीकांत शर्मा की संभावना काफी कम लगती है: श्रीकांत शर्मा को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाये जाने के साथ ही साथ कई और भी संभावनाएं जतायी जा रही हैं और यही वजह है कि उनके समर्थकों के जोश में कोई कमी नहीं आयी है. एक चर्चा ये भी है कि श्रीकांत शर्मा को केंद्र की राजनीति में बीजेपी वापस बुला सकती है और वो राष्ट्रीय महासचिव बनाय जा सकते हैं. हो सकता है, बीजेपी अगले चुनाव में श्रीकांत शर्मा को मथुरा लोक सभा सीट से उम्मीदवार बना डाले.
श्रीकांत शर्मा के यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाये जाने के पीछे एक ही वजह थोड़ी मजबूत लगती है. 2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय को संगठन में यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बना कर भेज दिया था. मिशन पूरा हो जाने के बाद वो मोदी कैबिनेट 2.0 में शामिल कर लिये गये - और फिर उनकी जगह स्वतंत्रदेव सिंह को दे दी गयी. थोड़ा गौर करें तो मालूम होता है कि बीजेपी हाल फिलहाल विधानसभा और लोक सभा चुनावों में अलग अलग प्रयोग करती रही है. महत्वपूर्ण ये भी है कि बीते प्रयोग तब की राजनीति को देखते हुए किये गये थे, आगे ये रणनीति राजनीतिक हालात में बदलाव के चलते बदल भी सकती है.
सुब्रत पाठक मजबूत दावेदार हो सकते हैं: श्रीकांत शर्मा के अलावा जो नाम यूपी बीजेपी अध्यक्ष के लिए मार्केट में चल रहे हैं, सुब्रत पाठक भी एक हैं. सुब्रत पाठक बीजेपी के सांसद हैं और काशी क्षेत्र के प्रभारी हैं. पहले भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं.
सुब्रत पाठक की सबसे बड़ी खासियत है कि वो कन्नौज से सांसद हैं जो समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव का गढ़ रहा है - और 2019 के चुनाव में डिंपल यादव को हरा कर लोक सभा पहुंचे हैं. पहले डिंपल यादव ही कन्नौज से सांसद रहीं और अखिलेश यादव ने पत्नी को अपनी ही सीट दी थी.
सवाल ये है कि बीजेपी अगले आम चुनाव में भी ब्राह्मण ही अध्यक्ष चाहती है या फिर विधानसभा की तरह ओबीसी एक्सपेरिमेंट के साथ ही आगे बढ़ना चाहेगी. योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल के जरिये ने तकरीबन सारे जातीय समीकरण साध लिये हैं - और संगठन का अध्यक्ष पद अभी बाकी ही है. प्रयास तो यही होंगे कि उसके जरिये वो बची खुची कमियों की पूर्ति कर सके.
यूपी बीजेपी अध्यक्ष ठाकुर नहीं होगा ये तो पक्का है क्योंकि योगी आदित्यनाथ पर लगे ठाकुरवाद के आरोपों से बीजेपी पहले से ही परेशान है - और पूर्वांचल, खासकर गोरखपुर और आस पास के योगी आदित्यनाथ के प्रभाव वाले इलाकों में ब्राह्मणों की नाराजगी बीजेपी को कई साल से परेशान करती रही है.
ये ठीक है कि यूपी चुनाव में बड़े मार्जिन से जीतने वाले नेताओं में योगी आदित्यनाथ भी शुमार रहे, लेकिन जिसे हराकर गोरखपुर सदर से जीते उसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता. योगी आदित्यनाथ ने समाजवादी पार्टी उम्मीदवार सुभावती शुक्ला को एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया जरूर, लेकिन उनक भी 62 हजार से ज्यादा वोट मिले थे.
सुभावती शुक्ला, बीजेपी के ही नेता रहे उपेंद्र दत्त शुक्ला की पत्नी हैं. निश्चित तौर पर सुभावती शुक्ला को समाजवादी पार्टी के वोट भी मिले होंगे, लेकिन उसी सीट पर बीएसपी के ख्वाजा शमसुद्दीन और भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद तो 10 हजार वोट भी नहीं पा सके.
मतलब तो यही हुआ कि दिनेश शर्मा की जगह ब्रजेश पाठक को डिप्टी सीएम बना कर बीजेपी ने एक बड़ा कदम तो उठाया है, लेकिन बैलेंस करने के लिए सुब्रत पाठक भी मजबूत दावेदार हो सकते है.
यूपी चुनाव तो अब पांच साल बाद होंगे, ऐसे में अखिलेश यादव भी पहले 2024 में अपनी पोजीशन दुरूस्त करना चाहेंगे. जो टास्क तैयार कर रखे होंगे, उसमें कन्नौज सीट पर डिंपल यादव की हार का बदला भी शामिल होगा ही.
बीजेपी अगर ब्राह्मण अध्यक्ष की जगह यूपी में किसी और कास्ट के बारे में प्लान करती है तो बहुत संभावना है कि यादव समुदाय के नेता को ही तरजीह मिले - बिहार में तो बीजेपी ने अलग अलग तरीके से ऐसे प्रयोग तो किया ही है.
बीजेपी का लक्ष्य तो बिहार जैसा ही होगा
कभी बिहार में भी बीजेपी के लिए यूपी जैसी ही डबल चुनौती हुआ करती थी. यूपी में तो समाजवादी पार्टी और बीएसपी ही दीवार बनी हुई थीं, बिहार में तो एक तरफ लालू यादव की आरजेडी और दूसरी तरफ अपने सुशासन के लिए शोहरत हासिल कर चुके नीतीश कुमार भी रहे - तभी अमित शाह ने अपने सबसे भरोसेमंद बीजेपी नेताओं में से एक भूपेंद्र यादव को बिहार का टास्क सौंपा था.
भूपेंद्र यादव उस दौर में प्रभारी बनाये गये थे जब बीजेपी बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी हुआ करती थी. अब तो मुकेश सहनी के तीन विधायकों को झटक कर बीजेपी बिहार में पहले नंबर की पार्टी बन चुकी है. अभी तक बीजेपी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है, लेकिन काम तो उसी दिशा में चल रहा है.
चार्ज लेते ही भूपेंद्र यादव ने पहला झटका महागठबंधन को ही दिया था और हालात ऐसे बने कि नीतीश कुमार ने लालू यादव का साथ छोड़ कर बीजेपी के साथ एनडीए ज्वाइन कर लिया. बीजेपी की तरफ से ये नीतीश के लिए तो हल्का झटका था, लेकिन लालू यादव की राजनीति के लिए काफी जोरदार रहा. नीतीश के लिए तब हल्का झटका इसलिए क्योंकि बीजेपी के बिछाये जाल में उलझने में नीतीश कुमार ने काफी टाइम ले लिया.
यूपी में टीम वर्क के सहारे बीजेपी ने 2019 का सपा-बसपा गठबंधन तो तोड़ ही दिया था. हालिया विधानसभा चुनावों में बीएसपी की प्रासंगिकता का जुमला उछालने वाले अमित शाह ने ऐसा ताना बाना बुना कि कभी बुलंद इमारत रही मायावती की राजनीति अब खंडहर के रूप में नजर आने लगी है.
बिहार में बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं की मठाधीशी और बिहार की जमीनी स्तर राजनीति की बारीकियों को समझने के बाद भूपेंद्र यादव ने अमित शाह की मंजूरी लेकर एक ऐसा हथियार मोर्चे पर तैनात किया जो बिहार में बीजेपी विरोधी राजनीति के लिए जनसंहारक हथियार जैसा ही रहा - नित्यानंद राय.
भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय की जोड़ी ने जैसे लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति को तहस नहस कर डाला, यूपी में भी बीजेपी को ऐसे ही जोड़ी की दरकार लगती है. हो सकता है महेंद्र नाथ पांडेय की तरह बीजेपी नेतृत्व 2024 के लिए भूपेंद्र यादव को फिर से यूपी का काम देने पर विचार कर रहा हो, फर्क ये होगा कि वो प्रभारी तो बनाये जा सकते हैं, लेकिन राजस्थान से होने के चलते यूपी के अध्यक्ष बनाना ठीक नहीं रहेगा.
अगर बीजेपी नेतृत्व भूपेंद्र यादव या फिर से महेंद्र नाथ पांडेय पर भी भरोसा जताता है या फिर धर्मेंद्र प्रधान को ही काम जारी रखने के लिए कहा जाता है, तो भी प्रभारी के लिए अध्यक्ष जैसे मजबूत साथी की जरूरत तो होगी ही - और ऐसा साथी जो अखिलेश यादव पर नकेल तो कसे ही, योगी आदित्यनाथ पर भी नजर जरूर रखे.
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