मई की तपती गर्मी में मेरी सुबह की शिफ्ट से थोड़ी तसल्ली थी. सुबह 7 बजे दफ्तर में मैंने कदम रखा ही था की असाइन्मेंट डेस्क पर लोगों को चिल्लाते हुए सुना 'अरे मोटरसाइकल से चला गया 4 बजे ...किसी को पता नहीं चला, हां रिपोर्टर पहुंच रहा है, अभी स्ट्रिंगर ने फुटेज भेजा है!" मैंने न्यूज़रूम के दर्जनों टीवी स्क्रीन पर नज़र दौड़ाई तो देखा ...चेहरे पर चिंता और संवेदना का भाव था, किसानों के बीच में घिरे हुए, सफ़ेद कुर्ते पहने और चारपाई पर बैठे राहुल गांधी लोगों से बातचीत कर रहे थे. राहुल भट्टा पारसौल में किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई लड़ने पहुंचे थे.
राहुल गांधी से जब भी भेंट हुई तब-तब एक अलग छवी देखने को मिली |
साल 2011 का ये वो वक्त था जब कांग्रेस के युवराज मीडिया के आंखो के तारे थे. राहुल के आसपास पत्ता भी हिलता तो मधुमक्खी की तरह उनके पीछे कई दर्जन कैमरे और ओबी वैन भिन-भिनाने लगते. राहुल गांधी के भट्टा पारसौल में धूल फांकने से उत्तर प्रदेश की सियासी गणित में जोड़-घटना शुरू हो गया था. राहुल ने भट्टा पारसौल के बाद तमाम गांव में जा कर वही चंद लाईने दोहराई. मैंने भी दफ्तर को सिर्फ गांव का नाम बदल-बदल वही खबर कॉपी पेस्ट कर भेज दी.
राहुल गांधी ने भट्टा पारसौल से जो गति पकड़ी तो समझ लीजिए 2012 के चुनाव में अखिलेश की साईकल और मायावती के हाथी पर कांग्रेस का हाथ हावी था. राहुल ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि वो जीते या हारे यूपी उनका घर है और वो इसे छोड़ कर नहीं जाएगा. पर उस चुनाव में कांग्रेस के लिए नतीजे वही ढाक के तीन पात थे. तबसे अब 5 साल बीत गए पर राहुल ने वादों के विपरीत वहां अपनी खूटी नहीं गाड़ी. तभी से राहुल गांधी खुद अपने...
मई की तपती गर्मी में मेरी सुबह की शिफ्ट से थोड़ी तसल्ली थी. सुबह 7 बजे दफ्तर में मैंने कदम रखा ही था की असाइन्मेंट डेस्क पर लोगों को चिल्लाते हुए सुना 'अरे मोटरसाइकल से चला गया 4 बजे ...किसी को पता नहीं चला, हां रिपोर्टर पहुंच रहा है, अभी स्ट्रिंगर ने फुटेज भेजा है!" मैंने न्यूज़रूम के दर्जनों टीवी स्क्रीन पर नज़र दौड़ाई तो देखा ...चेहरे पर चिंता और संवेदना का भाव था, किसानों के बीच में घिरे हुए, सफ़ेद कुर्ते पहने और चारपाई पर बैठे राहुल गांधी लोगों से बातचीत कर रहे थे. राहुल भट्टा पारसौल में किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई लड़ने पहुंचे थे.
राहुल गांधी से जब भी भेंट हुई तब-तब एक अलग छवी देखने को मिली |
साल 2011 का ये वो वक्त था जब कांग्रेस के युवराज मीडिया के आंखो के तारे थे. राहुल के आसपास पत्ता भी हिलता तो मधुमक्खी की तरह उनके पीछे कई दर्जन कैमरे और ओबी वैन भिन-भिनाने लगते. राहुल गांधी के भट्टा पारसौल में धूल फांकने से उत्तर प्रदेश की सियासी गणित में जोड़-घटना शुरू हो गया था. राहुल ने भट्टा पारसौल के बाद तमाम गांव में जा कर वही चंद लाईने दोहराई. मैंने भी दफ्तर को सिर्फ गांव का नाम बदल-बदल वही खबर कॉपी पेस्ट कर भेज दी.
राहुल गांधी ने भट्टा पारसौल से जो गति पकड़ी तो समझ लीजिए 2012 के चुनाव में अखिलेश की साईकल और मायावती के हाथी पर कांग्रेस का हाथ हावी था. राहुल ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि वो जीते या हारे यूपी उनका घर है और वो इसे छोड़ कर नहीं जाएगा. पर उस चुनाव में कांग्रेस के लिए नतीजे वही ढाक के तीन पात थे. तबसे अब 5 साल बीत गए पर राहुल ने वादों के विपरीत वहां अपनी खूटी नहीं गाड़ी. तभी से राहुल गांधी खुद अपने अक्स से लड़ते नज़र आए.
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राहुल गांधी की रेस सियासी रण में लगभग उसी वक्त शुरू हुई जब मैंने पत्रकार का बिल्ला पहना. मेरे पहले चैनल की नौकरी में मुझे राहुल गांधी को कवर करने की बीट दे दी गई. तो सोते जागते राहुल के छींकने से लेकर राहुल के ढाबे पर चाय पीने और बकरी खिलाने को मैंने कवर किया. मैं ये सब इसलिए बता रही हूँ क्योंकि राहुल के साथ परछाई की तरह बने रहने के बावजूद हर अन-औपचारिक मुलाकात में राहुल को मैं उसी तरह अपना परिचय देती जैसे कोई मुसाफिर ट्रैन के प्लेटफार्म पर अपने बगल में बैठे अंजान राही को. एक बार मैंने एक वरिष्ठ सहयोगी से पूछा की राहुल गांधी ऐसे क्यों मिलते हैं जैसे वो पहले कभी नहीं मिले? तो वो बोले 'राहुल की आँखों में देखा है तुमने कभी वो एक जगह ठहरती नहीं, अगर आप उनसे बात कर रहे हों तो भी नहीं, कभी आपका जूता देखते हैं तो कभी सीधे शून्य में, फिर आप भी इस सोच में पड़ जाते है कि इस शख्स को आपसे बात करने में दिलचस्पी है या नहीं?'
साल दर साल राहुल से मिलने के बाद मैंने उस वरिष्ठ पत्रकार की बात को खुद महसूस किया. खैर राहुल की हममें दिलचस्पी हो ना हो मगर मीडिया की राहुल गांधी में पूरी तरह रूचि थी और है. वह इसलिए क्योंकि वह कांग्रेस के युवराज हैं, देश की सबसे पुरानी पार्टी के भावी प्रधानमंत्री हैं और उनके साथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उम्मीद और विरोधी पार्टीयों की नाउम्मीद भी जुड़ी है. कुल मिलाकर राहुल को ना इतनी जल्दी रूल आउट कर सकते हैं ना राइट ऑफ.
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अब... 'बात निकेलगी तो दूर तलक जाएगी', 2015 के फ्लैशबैक में जाएं तो किस्सा दिल्ली से सटे वल्लभगढ़ का है. एक गांव में दलित परिवार के तीन लोगों को ज़िन्दा जलाने की खबर आई थी. पीढ़ित का घर तमाशबीनों से खचाखच भरा हुआ था. इसी धक्का मुक्की में मैं पीडि़त पिता का इंटरव्यू कर रही थी. उसी दौरान अचानक खींचातनी मच गई, मैंने मुड़कर देखा तो राहुल वहां खड़े थे. मगर भट्टा परसौल के विपरीत राहुल बेसब्र और गुस्से में लग रहे थे. मेरी रिपोर्टिंग जारी थी. मैंने कहा- '...राहुल गांधी यहां पहुंच गए हैं और... '. मुझे वहां देख कर वो भड़क उठे और बीच में बोले 'आप यहां से हटेंगी या मैं जाऊं ...' और वापस मुड़ गए. राहुल के कठोर शब्दों से मैं स्तब्ध थी. ये राहुल की विनम्र छवि से एकदम विपरीत था. उनके शब्दों में एक अहम था और झुंझलाहट भी. इतने शोर में भी राहुल के शब्द गूंज रहे थे. मैंने पलट के जवाब दिया कि 'मैं यहां आपसे पहले आई हूं और अपना काम कर रही हूं. मुझे मालूम नहीं था कि आप यहां आ रहे हैं. पर आप मुझ पर क्यों चिल्ला रहे हैं?' कुछ मिनटों तक ये बेहसा-बहसी चलती रही. राहुल की झुंझलाहट की कोइ भी वजह हो सकती है, ये भी सच है की कांग्रेस उपाध्यक्ष पर 2014 लोक सभा कि चुनावी हार का बोझ था और सियासत की कसौटी में खरा उतरने का दबाव भी. तब से राहुल के भवें और बाहें चढ़ी नज़र आईं.
गलियों से लेकर गांव और सड़क तक राहुल हर जगह खुद को साबित करने की कोशिश कर चुके हैं |
अब चले आइए पिछले साल के 11वें महीने की तीसरी तारीख को. सर्दी का मौसम था पर सियासी तपिश ने दो लोगों के पसीने छुड़ा रखे थे एक तो मीडियाकर्मियों के और दूसरे खाकीवर्दी वालों के. अजब परिस्थितियां थीं. रात 7 बजे का समय था. राहुल हिरासत में थे. खबर मिली थी कि वो मीडिया से बात करना चाहते हैं (ऐसा होता बहुत कम है). सो मैंने फिरोज़शाह रोड पंहुचने के लिए कितनी लंबी दौड़ लगाई ये मैं खुद नहीं जोड़ पाई थी. हांफते हुए मैं पुलिस वैन तक पहुंची तो देखा उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया और युवा कांग्रेस अध्यक्ष राजा बरार बैठे थे. राहुल के चेहरे पर एक जोश के साथ-साथ हलकी मुस्कुराहट भी थी. ये वो वक्त था जब राहुल गांधी पिछले कुछ दिन से सुर्खियों में थे. आरोप के लिए लड़ रहे पूर्वसैनिक रामकृष्ण ग्रेवाल के परिजनों के साथ हुई बदसलूकी को लेकर राहुल दिल्ली की गलियों में सड़क की सियासत कर रहे थे.
राजनीति की कसौटी में हर नेता की तरह राहुल के इरादों की परीक्षा बार-बार होगी. राहुल के सियासी सफर पर नज़र दौड़ाएं तो स्थिरता उनके लिए एक गंभीर चुनौती रही है. किसानों से लेकर कलावती और नियमगिरी से नोटबंदी तक राहुल गांधी ने उम्मीदों के पुल बांधे, पर क्या वो जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे? फिर चाहें विपासना हो या न्यू इयर की छुट्टी... भले ही फ़ॉर्म अच्छा चल रहा हो मगर उनकी टाइमिंग और टिकने पर सवाल और बवाल खड़े होते रहेंगे. हाल ही में राहुल गांधी के कमबैक से पार्टी के नेता काफी उत्सुक नज़र आ रहे हैं. वो ये साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि उनको पत्रकारों से मिलने में दिलचस्पी हो या ना हो पर सियासत के अखाड़े में वो एक गंभीर खिलाड़ी हैं. फिर मेरी समझ से परे है कि राहुल कि छुट्टियों की टाइमिंग खराब है या फिर वह वाकई में एक पार्ट टाइम नेता हैं?
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