मौका कोई भी हो, महत्वपूर्ण होता ही है. राजनीति में तो और भी ज्यादा अहम होता है. और बर्थडे का मौका तो और भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. तभी तो राजस्थान में वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) भी जन्मदिन वैसे ही सेलीब्रेट करती हैं, जैसे तमिलनाडु में एमके स्टालिन.
एमके स्टालिन और वसुंधरा राजे अलग अलग छोर से आते ही नहीं, दोनों की राजनीति भी काफी अलग है. देखा जाये तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे दोनों ने ही अपने बर्थडे को शक्ति प्रदर्शन का मौका बनाया है. फर्क ये है कि स्टालिन विपक्ष में खड़े हैं और बीजेपी (BJP) नेता वसुंधरा अपने पक्ष में. वसुंधरा जहां खड़ी हैं और जहां से लाइन शुरू करना चाहती हैं, वो न तो सत्ता पक्ष है न ही विपक्ष - बल्कि वो वसुंधरा का अपना पक्ष है.
जोर आजमाइश के हिसाब से देखें तो वसुंधरा राजे का स्टैंड भी पहले शिवराज सिंह चौहान जैसा लगता था, लेकिन बाद में महसूस हुआ कि वो कर्नाटक के कद्दावर लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा की तरह खुल कर खेलना चाहती हैं - और अभी वो 70 साल की ही हुई हैं.
मतलब, कम से कम पांच साल का मौका तो उनको मिल ही सकता है. वैसे येदियुरप्पा तो 75 पार करने के बाद भी मैदान में डटे रहे - और अब भी आलम ये है कि 80 साल के हो चुके हैं लेकिन मोदी-शाह के लिए मजबूरी बने हुए हैं.
ज्यादा दिन नहीं हुए, हफ्ता भर पहले ही वसुंधरा ने उसी तेवर में अपने राजनीतिक विरोधियों को संदेश देने की कोशिश की थी. समर्थकों से घिरी वसुंधरा का कहना रहा, 'पोस्टर पर फोटो नहीं लगाने से जनता का प्यार कम नही किया जा सकता... राजनीति होती रहती है - लेकिन जनता जिसके साथ है, नेता वही होता है!'
वसुंधरा राजे की ये प्रतिक्रिया बीजेपी के पोस्टरों में उनकी वापसी पर आयी है. करीब दो साल तो तो यही...
मौका कोई भी हो, महत्वपूर्ण होता ही है. राजनीति में तो और भी ज्यादा अहम होता है. और बर्थडे का मौका तो और भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. तभी तो राजस्थान में वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) भी जन्मदिन वैसे ही सेलीब्रेट करती हैं, जैसे तमिलनाडु में एमके स्टालिन.
एमके स्टालिन और वसुंधरा राजे अलग अलग छोर से आते ही नहीं, दोनों की राजनीति भी काफी अलग है. देखा जाये तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे दोनों ने ही अपने बर्थडे को शक्ति प्रदर्शन का मौका बनाया है. फर्क ये है कि स्टालिन विपक्ष में खड़े हैं और बीजेपी (BJP) नेता वसुंधरा अपने पक्ष में. वसुंधरा जहां खड़ी हैं और जहां से लाइन शुरू करना चाहती हैं, वो न तो सत्ता पक्ष है न ही विपक्ष - बल्कि वो वसुंधरा का अपना पक्ष है.
जोर आजमाइश के हिसाब से देखें तो वसुंधरा राजे का स्टैंड भी पहले शिवराज सिंह चौहान जैसा लगता था, लेकिन बाद में महसूस हुआ कि वो कर्नाटक के कद्दावर लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा की तरह खुल कर खेलना चाहती हैं - और अभी वो 70 साल की ही हुई हैं.
मतलब, कम से कम पांच साल का मौका तो उनको मिल ही सकता है. वैसे येदियुरप्पा तो 75 पार करने के बाद भी मैदान में डटे रहे - और अब भी आलम ये है कि 80 साल के हो चुके हैं लेकिन मोदी-शाह के लिए मजबूरी बने हुए हैं.
ज्यादा दिन नहीं हुए, हफ्ता भर पहले ही वसुंधरा ने उसी तेवर में अपने राजनीतिक विरोधियों को संदेश देने की कोशिश की थी. समर्थकों से घिरी वसुंधरा का कहना रहा, 'पोस्टर पर फोटो नहीं लगाने से जनता का प्यार कम नही किया जा सकता... राजनीति होती रहती है - लेकिन जनता जिसके साथ है, नेता वही होता है!'
वसुंधरा राजे की ये प्रतिक्रिया बीजेपी के पोस्टरों में उनकी वापसी पर आयी है. करीब दो साल तो तो यही देखा जा रहा था कि बीजेपी मुख्यालय पर लगे होर्डिंग में केंद्रीय नेताओं के अलावा राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष सतीश पूनिया, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया (अब असम के राज्यपाल) के चेहरे ही देखे जा सकते थे. तब वसुंधरा राजे के लिए बीजेपी से वनवास के तौर पर समझा जाता रहा.
वैसे बीजेपी की तरफ से तर्क भी दिये जाते रहे कि वसुंधरा न तो प्रदेश अध्यक्ष हैं, न ही विपक्ष की नेता. कहा जाता रहा कि केंद्रीय नेतृत्व का निर्देश है कि जहां सरकार है वहां मुख्यमंत्री और जहां बीजेपी सत्ता में नहीं है वहां प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में नेता की तस्वीर लगायी जाये - लेकिन अब ऐसा क्या हो गया जो नियम बदल दिये गये? जाहिर है चुनाव के लिए ही ऐसा किया गया है.
राजस्थान बीजेपी के उन नेताओं के लिए 4 मार्च का दिन पहले से ही मुश्किल में डाले हुए था. वसुंधरा का जन्म दिन वैसे तो 8 मार्च को होता है, लेकिन जश्न का माहौल होली से पहले ही बन गया है. संयोग से होली भी इस बार उसी दिन है. होली के दिन तो ये सब हो नहीं सकता था.
जो बीजेपी नेता खुलेआम वसुंधरा राजे के सपोर्ट में खड़े रहते हैं, उनको कोई दिक्कत नहीं थी. और उनको भी नहीं जो बीजेपी के उस धड़े के साथ हैं जिसका नेतृत्व सतीश पूनिया करते हैं - उलझन की स्थिति सिर्फ उन नेताओं के लिए रही जो चुपके चुपके दोनों तरफ बने रहना चाहते हैं.
बताते हैं कि वसुंधरा राजे के जन्मदिन के जश्न से जुड़ा कार्यक्रम पहले से तय था, और बीजेपी की तरफ से उसी दिन पेपर लीक, बेरोजगारी भत्ते और अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ तमाम मुद्दे उठाते हुए विधानसभा घेराने की तैयारी कर दी गयी.
एक तरफ बीजेपी का का कार्यक्रम, दूसरी तरफ वसुंधरा राजे का निजी कार्यक्रम. जैसे 2018 के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी, अशोक गहलोत और सचिन पायलट को बाइक पर घूमा रहे थे, बीजेपी को भी वैसा ही कोई एकता का संदेश देना रहा. हकीकत तो सबको पता है, लेकिन परदा तो बस रस्म निभाता है. बाकी जगह की बात और हो सकती है, लेकिन राजनीति में तो बिलकुल ऐसा ही है.
विरोध प्रदर्शन तो भारतीय जनता युवा मोर्चा की तरफ से था, लेकिन सतीश पूनिया और बीजेपी के राजस्थान प्रभारी अरुण सिंह भी शामिल हुए - और उसके बाद अरुण सिंह चुरू रवाना हो गये जहां वसुंधरा का कार्यक्रम चल रहा था, ताकि लोगों के बीच वसुंधरा को लेकर गलत मैसेज न जाये, लेकिन पब्लिक को समझ क्या रखा है?
ये जरूर देखने को मिल रहा है कि बीजेपी नेतृत्व की तरफ से एहतियात तो बरते ही जा रहे हैं, वसुंधरा भी अपनी तरफ से पूरा ख्याल रखती हैं. त्रिपुरा सहित नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी को बधाई देते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व की याद दिलाना नहीं भूलतीं - और न ही चुनाव (Rajasthan Election 2023) अभियान शुरू करते वक्त खुद को मोदी का एक सिपाही बताना.
वसुंधरा का चुनावी बर्थडे और शक्ति प्रदर्शन
राजस्थान में बीजेपी के सामने चुनौती यूपी से मिलती जुलती है. 2022 में वहां योगी आदित्यनाथ भी मोदी-शाह से वैसे ही लोहा ले रहे थे, जैसे वसुंधरा राजे ले रही हैं. योगी आदित्यनाथ परदे के पीछे से विरोध जता रहे थे, वसुंधरा राजे वो सब खुलेआम कर रही हैं - एक फर्क और है... यूपी में बीजेपी पहले से ही सत्ता में थी, राजस्थान में सत्ता में वापसी की कोशिश में है, लिहाजा चुनौती वैसे भी बड़ी हो जाती है.
सालासार बाला जी के दर्शन के लिए देश भर से पूरे साल भर लोग पहुंचते रहते हैं, ताकि संकटमोचन की कृपा से उनको मुश्किलों से निजात नहीं तो कम से कम वे कम तो हो सकें - वसुंधरा राजे को अगर अपनी मुश्किलें आम लोगों जैसी लगती हैं तो वो ठीक ही सोच रही हैं.
पांच साल पहले 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले वसुंधरा राजे ने चारभुजा मंदिर से राजस्थान गौरव यात्रा शुरू की थी. चुनाव हार गयीं. इस बार तो बस बाला जी से ही आस बची लगती है. तब तो यात्रा को रवाना करने बीजेपी नेता अमित शाह भी पहुंचे थे - लेकिन इस बार तो ऐसा कोई स्कोप बचा हुआ नहीं लगता.
चुरू के सालासार से अपना चुनाव कैंपेन शुरू करते हुए वसुंधरा राजे बाला जी के साथ साथ प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का नाम लेना नहीं भूलीं. बाला जी के बहाने अपनी ताकत दिखायी तो मोदी और नड्डा का नाम लेकर नेतृत्व का सार्वजनिक तौर पर लिहाज रखा.
वसुंधरा राजे बोलीं, 'जो बालाजी की आस्था और जनता के आशीर्वाद का दीप जलाया है... वो किसी आंधी-तूफान से बुझने वाला नहीं हैं.'
और ये भी कहा कि 'मैं संगठन के सिपाही के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के मार्गदर्शन और राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जेपी नड्डा जी के नेतृत्व में विचारधारा की मशाल लेकर आगे बढ़ रहीं हूं.'
ऐसे बयान तो वसुंधरा राजे की तरफ से एक दो मौकों को छोड़ दें तो अक्सर ही दिये जाते रहे हैं. त्रिपुरा में बीजेपी की जीत पर ट्वीट भी वसुंधरा ने वैसे ही किया था जैसे बाकी बीजेपी नेता - 'त्रिपुरा में आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी और राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जेपी नड्डा जी के नेतृत्व में भाजपा ने धरा से शिखर तक का सफर तय किया है. पूर्वोत्तर में भाजपा का बड़ी पार्टी बनकर उभरना हमारे भाजपा कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों का परिणाम है.'
मंदिर में बेटे दुष्यंत सिंह के साथ हनुमान चालीसा के पाठ और हवन के बाद मंच से भी वसुंधरा राजे ने कुछ अंश पढ़े. वसुंधरा राजे ने अपने भाषण का समापन भी उसी भक्ति भाव से किया, 'राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे... सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू कोर डरना.'
वसुंधरा राजे के समर्थकों की तरफ से मीडिया से बातचीत में दावा किया गया है कि चुरू में 14 सांसद, 55 विधायक और 118 पूर्व विधायक पहुंचे थे - अगर ये दावा सही है तो बीजेपी नेतृत्व के लिए चिंता की बात है.
वसुंधरा राजे के तेवर देख कर कई सवाल उठते हैं... क्या वसुंधरा राजे, येदियुरप्पा जैसा तेवर दिखा पाएंगी? या शिवराज सिंह चौहान की तरह यूटर्न ले लेंगी? जैसे वाजपेयी-आडवाणी युग के खात्मे के बाद मोदी-शाह का दौर आते ही बीजेपी के कई नेताओं ने खुद को ऐडजस्ट कर लिया था.
मध्य प्रदेश में तो वैसे भी बीजेपी के पास कोई विकल्प नहीं था, और राजस्थान में भी वसुंधरा का असर कम किये बगैर कोई फायदा नजर नहीं आ रहा है. राजस्थान में भी मध्य प्रदेश जैसा ही मौका रहा, लेकिन वसुंधरा राजे ने कभी ऑपरेशन लोटस में दिलचस्पी नहीं दिखायी. बल्कि, माना ये गया कि वो चुपचाप पांच साल इंतजार करने के पक्ष में रहीं - और इसी वजह से सचिन पायलट दोनों की दोस्ती का मुद्दा भी उछालते रहे हैं.
2018 में बहुमत न मिल पाने के बावजूद येदियुरप्पा शपथ ले लिये थे. येदियुरप्पा का दबदबा आज भी ऐसा है कि मोदी-शाह उनको हाथों हाथ लेते हैं, लेकिन वसुंधरा के पास कुछ खास इलाकों में कुछ नेताओं का साथ है, बाकी सब तो बस वैसे ही है.
अगली सरकार कांग्रेस की या बीजेपी की या...
चुरू में वसुंधरा राजे का जलवा देखते ही बन रहा था. वसुंधरा राजे अभी स्टेज की सीढ़ियों पर ही कदम बढ़ा रही थीं कि महिलाएं हाथों से घूंघट संभाले सम्मान में खड़ी हो गयीं. हौसलाअफजाई के हाव भाव और नारेबाजी से जो माहौल बना था, वो बीजेपी नेतृत्व को अंदर तक झकझोर रहा होगा - 'अबकी बार, वसुंधरा सरकार.' 2014 के आम चुनाव मं भी ऐसे ही नारे लगते रहे, अबकी बार मोदी सरकार.
जैसे देश की राजनीति में कांग्रेस और उससे जुड़े विपक्षी खेमे के नेता तीसरे मोर्चे को लेकर थर्रा उठते हैं, राजस्थान में वसुंधरा राजे का ये प्रदर्शन देख कर बीजेपी नेतृत्व भी थोड़ा बहुत तो सहम ही जाता होगा, लेकिन जब तक चीजें हाथ में नहीं आ जातीं मन मसोस कर रहना ही पड़ेगा - बीजेपी और कांग्रेस की लड़ाई में वसुंधरा राजे तीसरी ताकत के रूप में भी नजर आने लगी हैं.
मुश्किल ये है कि वसुंधरा राजे कोई उद्धव ठाकरे तो हैं नहीं कि उनके बीच से किसी एकनाथ शिंदे को खोज लिया जाये. संघ के भीतर भी वसुंधरा राजे के मजबूत कनेक्शन हैं, ऐसे में बीजेपी नेतृत्व के सामने फूंक फूंक कर कदम बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं बचा है.
ये ठीक है कि राजस्थान में परंपरा रही है कि जनता बारी बारी सत्ता सौंपती रही है. ऐसी परंपरा तो हिमाचल प्रदेश की जनता ने भी निभायी है, लेकिन वोट शेयर का फर्क तो मामूली ही रहा. फर्ज कीजिये अनुराग ठाकुर भी उसी शिद्दत और ताकत से चुनाव मुहिम में जुटे होते जैसे बाकी बीजेपी नेता तो तस्वीर अलग भी तो हो सकती थी. अनुराग ठाकुर ने ऊपर से कोई लापरवाही तो नहीं दिखायी, लेकिन पिता के साथ दुर्व्यवहार का कामकाज पर कुछ न कुछ तो असर होना ही था.
ये सवाल तो चुनाव नतीजे आने तक बना रहेगा कि जनता कमान किसे सौंपती है, लेकिन ये भी देखना होगा कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही एक ही तरह के अंदरूनी झगड़े से जूझ रहे हैं - और ये भी नहीं भूलना चाहिये कि 2019 के बाद से ज्यादातर राज्यों में सत्ताधारी दल को ही दोबारा मैंडेट मिला है.
हिमाचल प्रदेश में हुई हार जीत में 0.9 फीसदी वोट शेयर का फर्क भी करीब करीब सत्ता में वापसी ही समझी जाएगी. हां, 2019 के बाद से देखें तो झारखंड, तमिलनाडु और पंजाब के नतीजे अपवाद जरूर रहे हैं - और अपवाद को सभी जगह होते हैं.
अभी अभी त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के नतीजे देखें तो पैटर्न सत्ता में वापसी का ही रहा है. गुजरात से पहले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के नतीजे भी तो सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में ही आये.
दिल्ली, पश्चिम बंगाल, असम और केरल विधानसभा के चुनाव नतीजे भी उसी पार्टी के पक्ष में आये जो पहले से सत्ता में रही. नतीजे तो महाराष्ट्र और बिहार के भी वैसे ही रहे, अब गठबंधन तोड़ कर या पाला बदल कर कोई अलग अलग सरकार बना ले, वो तो अलग बात है.
मतलब, अगर लोग मौजूदा व्यवस्था में कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी नहीं देखते तो पक्के यकीन के साथ संदेह का लाभ देने लगे हैं. मतलब, छोटी-मोटी गलतियों को नजरअंदाज कर सत्ता दोबारा सौंप दे रहे हैं - तब तक जब तक कि कोई मजबूत विकल्प सामने न दिखायी दे रहा हो, जैसा 2022 में पंजाब में लोगों ने देखा. राजस्थान में भी ये जरूरी तो नहीं कि लोग परंपरा न तोड़ दें.
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