जयपुर शहर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिरसी रोड के निमेड़ा गांव के मोड़ पर एक चाय की थड़ी है. उस थड़ी पर दिन के 12 बजे से लेकर दोपहर तीन बजे तक के बीच में सन्नाटा रहता है, बाकी के समय में किसानों का जमघट होता है. नाम के किसान बचे हैं, खेतीबाड़ी में दम नहीं बचा सो मन नहीं लगता. आधे व्यापारी रह गए हैं आधी किसानी भी इनमें बाकी है. माहौल चुनाव का है तो चुनाव पर चर्चा का दौर घंटो चलता है. शनिवार को इस दौर में हम भी शामिल हुए. चर्चा इस बात पर हो रही थी कि इस बार बीजेपी चुनाव में हार रही है या जीत रही है.
ज्यादतर लोग समझाने के अंदाज में बताने में लगे थे कि कैसे वसुंधरा राजे वापस नहीं आ रही हैं, तो कुछ लोग बीच -बीच में अपना मत प्रकट कर रहे थे कि रानी को हल्के में मत लेना. कुछ कह रहे थे कि अजी, मोदी प्रचार की शुरुआत करेगा तो बाजी पलट जाएगी. लेकिन चर्चा का यह दौर बेहद दिलचस्प था क्योंकि जिस तरह के तर्क दोनों ही तरफ से दिए जा रहे थे उसे सुनकर लगता है इस देश की जनता भले ही गांव में रहती है लेकिन सूचना के स्तर पर पूरी तरह से सूचित है.
लोगों का आकलन था कि इस बार रानी खुद ही चुनाव हार रही हैं. वसुंधरा की वजह से हीं बीजेपी भी हार रही है. वसुंधरा के खिलाफ लोगों में इतनी नाराजगी है कि कोई वोट देने के लिए तैयार नहीं है. सामने बैठे 70 साल के एक बुजुर्ग ने कहा कि वसुंधरा ने ऐसा क्या बिगाड़ा है जो लोग नाराज हैं, कोई काम नहीं किया? बगल में बैठे अपेक्षाकृत युवा सहभागी ने कहा कि पांच साल में केवल मलाई खाई है. बीच में टोकते हुए मैं भी इस चर्चा में शामिल हो गया और लोगों से पूछा कहां और क्या मलाई खाई है. कोई भी आरोप तो नहीं है जिसे दमदारी के साथ कांग्रेस वसुंधरा राजे के खिलाफ लगा रही हो. यह सुनते ही...
जयपुर शहर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिरसी रोड के निमेड़ा गांव के मोड़ पर एक चाय की थड़ी है. उस थड़ी पर दिन के 12 बजे से लेकर दोपहर तीन बजे तक के बीच में सन्नाटा रहता है, बाकी के समय में किसानों का जमघट होता है. नाम के किसान बचे हैं, खेतीबाड़ी में दम नहीं बचा सो मन नहीं लगता. आधे व्यापारी रह गए हैं आधी किसानी भी इनमें बाकी है. माहौल चुनाव का है तो चुनाव पर चर्चा का दौर घंटो चलता है. शनिवार को इस दौर में हम भी शामिल हुए. चर्चा इस बात पर हो रही थी कि इस बार बीजेपी चुनाव में हार रही है या जीत रही है.
ज्यादतर लोग समझाने के अंदाज में बताने में लगे थे कि कैसे वसुंधरा राजे वापस नहीं आ रही हैं, तो कुछ लोग बीच -बीच में अपना मत प्रकट कर रहे थे कि रानी को हल्के में मत लेना. कुछ कह रहे थे कि अजी, मोदी प्रचार की शुरुआत करेगा तो बाजी पलट जाएगी. लेकिन चर्चा का यह दौर बेहद दिलचस्प था क्योंकि जिस तरह के तर्क दोनों ही तरफ से दिए जा रहे थे उसे सुनकर लगता है इस देश की जनता भले ही गांव में रहती है लेकिन सूचना के स्तर पर पूरी तरह से सूचित है.
लोगों का आकलन था कि इस बार रानी खुद ही चुनाव हार रही हैं. वसुंधरा की वजह से हीं बीजेपी भी हार रही है. वसुंधरा के खिलाफ लोगों में इतनी नाराजगी है कि कोई वोट देने के लिए तैयार नहीं है. सामने बैठे 70 साल के एक बुजुर्ग ने कहा कि वसुंधरा ने ऐसा क्या बिगाड़ा है जो लोग नाराज हैं, कोई काम नहीं किया? बगल में बैठे अपेक्षाकृत युवा सहभागी ने कहा कि पांच साल में केवल मलाई खाई है. बीच में टोकते हुए मैं भी इस चर्चा में शामिल हो गया और लोगों से पूछा कहां और क्या मलाई खाई है. कोई भी आरोप तो नहीं है जिसे दमदारी के साथ कांग्रेस वसुंधरा राजे के खिलाफ लगा रही हो. यह सुनते ही सभी लोग चुप हो गए. किसी ने कुछ भी नहीं कहा मगर कुछ लम्हों की खामोशी के बाद एक ने निर्णायक अंदाज में कहा कुछ भी कह लो रानी तो नहीं आएगी, आप देख लेना.
यह महज निमेड़ा मोड़ की चर्चा नहीं है. आप कहीं भी बैठे हैं तो इस तरह की बातें राजस्थान में सुनाई पड़ती हैं. लोगों के जहन में बैठा है कि वसुंधरा फिर मुख्यमंत्री नहीं बनेंगी. इसकी कई वजह हैं. एक तो वसुंधरा राजे ने पिछले चुनाव में मिले अपार जनसमर्थन को अपनी रियाया समझकर 13 सिविल लाइंस में कैद कर दिया. लोगों में यह छवि बनती चली गई कि वसुंधरा कोई काम नहीं कर रही हैं, लोगों से मिलती नहीं हैं, लोगों की जमीनों पर कब्जे करती हैं, पैसे लेकर ट्रांसफर हो रहे हैं, पैसे लेकर आयोग और बोर्ड के चेयरमैन बनाए जा रहे हैं, वसुंधरा के आसपास डील करने वाले बैठे हैं. यह परसेप्शन एक दिन या कुछ महीनों में नहीं बना बल्कि पिछले साढे तीन साल से बनता जा रहा है. साढ़े तीन साल इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले चुनाव जीतने के डेढ़ साल तक वसुंधरा राजे अनापेक्षित अपार जनसमर्थन के बोझ तले दबी रहीं और जनता की नेता बनने की ललक लिए लगातार दौरे करती रहीं. सवाई माधोपुर से ट्रेन की यात्रा या फिर संभाग स्तर पर लोगों से मिलने जुलने का कार्यक्रम हो, सभी जगह वसुंधरा की मौजूदगी एक जन नेता के रूप में दिख रही थी.
वसुंधरा राजे ने केजरीवाल इफेक्ट के बाद अपनी गाड़ी से लाल बत्ती उतार दी. आगे पीछे चलने वाले सुरक्षा गाड़ियों का काफिला कम कर लिया. उनके प्रेस सलाहकार के दफ्तर से इस तरह की तस्वीरें आने लगीं जिसमें वसुंधरा राजे रेड लाइट पर रुक कर आम जनता के साथ हरी बत्ती का इंतजार करती थीं. वक्त बीतता गया और वसुंधरा लोकतंत्र की रानी से वापस हो धौलपुर की महारानी के रूप में ढलती चली गईं. पब्लिक रिलेशन सुधारने का जिम्मा लिए लोगों से बात करने पर सब के सब यही कहते रहे कि हम क्या करें, हम तो समझा-समझा कर थक गए सुनती ही नहीं है. अनायास या संयोगवश किसी पत्रकार से मिल जाएं या किसी नेता से मिल जाएं या फिर किसी पदाधिकारी से मिल जाएं तो अलहदा राय सामने आते थी. मिलनेवाला मिलकर बस मुरीद बना आता था और कहता था कि मैडम ऐसी नहीं है, मैडम तो बहुत ही अच्छी हैं, आस-पास वालों ने अपनी दुकान बचाने के लिए घेर रखा है, डराते रहते हैं कि आप किसी से बात मत करो, आप कुछ बोलो मत, आप कहीं पर जाओ मत. और धीरे-धीरे डर के मारे बोल्ड वसुंधरा खुद में कैद होती चली गईं.
वसुंधरा राजे करिश्माई नेतृत्व की नेता थीं. एक मिडास टच था. वसुंधरा राजे का किसी के कंधे पर हाथ रखकर उसके परिवार के बारे में पूछ लेना, राह चलते किसी बुजुर्ग के आंख से चश्मा उतार कर अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछ कर उसे वापस पहना देना, किसी कॉलेज के प्रोग्राम में जाने पर लड़कियों के साथ ठुमक-ठुमक कर डांस करने लगना सम्महोन का अंदाज था. लोगों को एक महरानी के ये अंदाज बेहद आत्मीयता वाले लगते थे. महारानी का आम जनता के साथ यूं मिलना जैसे उन्हीं में से एक हों सबको लुभाता था. बीजेपी के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन अक्सर कहा करते थे कि वसुंधरा राजे की आंखों में एक आकर्षण है, अगर वो किसी की आंखों में आंख डालकर बात कर लें तो वो अपना हो जाता है. यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि इन चीजों को तब लोग ज्यादा शिद्दत से याद करने लगते हैं तब यह चीजें कहीं मिसिंग होती हैं, लोग ढूंढते हैं मगर दिखती नहीं है. वसुंधरा राजे को आज देखें तो चेहरे पर तनाव रहता है. मैडम का एक बेहद जबरा फैन दिवाली शुभकामनाएं देकर लौटा तो कहा कि मैडम के चेहरे पर वैसी चमक नहीं थी. फीकी थी. पिछले एक डेढ़ साल से ऐसा लग रहा है कि वसुंधरा राजे का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ है.
ये सच है. गौरव यात्रा में वसुंधरा वापसी करती दिखाई दीं मगर वह क्षणभंगुर निकला. वसुंधरा राजे आधे-अधूरे मन से कभी कभार प्रयास करती दिखती हैं लेकिन उनको प्रयास करते हुए देख कर लगता है जैसे क्रिकेट के सफलतम कप्तान रहे सौरव गांगुली वापसी का दूसरा प्रयास कर रहे हों. अपनी खोई फॉर्म को वापस पाने के कोशिश कर रहा हो जिसके बल पर उसने भारतीय टीम को शिखर पर पहुंचाया था. लेकिन काश वक्त लौट पाता.
वसुंधरा राजे जिद्दी हैं. अपनी जिद्द की वजह से इस मुकाम तक पहुंची हैं. जिस कुल खानदान में पैदा हुई हैं वहां जिद्द और जुनून दोनों ही विरासत में मिलते हैं. कभी इतना परिश्रम नहीं करना पड़ा कि अभाव भी घुट-घुट कर स्वभाव मृदुल हो गया हो या पसीना बहा-बहा कर मिजाज कांईयां बन गया हो. मुखौटा लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. जो है वह दिखती हैं. और जो है वह दिखना चाहती हैं. यह उन्हें दूसरे राजनीतिज्ञों से अलग करती है और वही इनकी सफलता और असफलता का वजह भी है. वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी के बीच अदावत कोई नई नहीं है वसुंधरा राजे सार्वजनिक मंच से भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना भाई कहती हैं और मोदी वसुंधरा को अपनी बहना कहें, लेकिन भाई-बहन का यह रिश्ता खांटी राजनीतिक है. इसमें संबंधों की मिठास नहीं है. वसुंधरा को लगता रहा कि उन्हें मोदी और शाह की जोड़ी ने कभी खुलकर शासन नहीं करने दिया. हर बार बाधा पहुंचाने की कोशिश करते दिखते रहे.
मोदी जब भी राजस्थान के दौरे पर आए एक तंग दिल इंसान दिखे, जहां वसुंधरा राजे के लिए उनके होठों पर एक मुस्कुराहट तक नहीं दिखी. लेकिन अनुशासित सिपाही की तरह वसुंधरा जहर के उस घूंट को पांच साल तक पीती रहीं. मोदी वसुंधरा राजे से जब भी मिले ऐसे मिले जैसे पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह रास्ते में मिल गए हों. न ढंग से बात करने और न ढंग से मिलते हुए कोई तस्वीर छपती थी. इस तरह नजरअंदाज भरे अंदाज में मिलने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर आग ही तरह वायरल हो जाती थीं. संबंधो की कड़वाहट को झुठलाने की कोशिश ना तो कभी अमित शाह और मोदी कैंप की तरफ से हुई और न ही वसुंधरा राजे की तरफ से. एक छवि बनती चली गई कि मोदी और वसुंधरा राजे के बीच रिश्ते ठीक नहीं है. अमित शाह राजस्थान दौरे पर आए तो तेवर भी ऐसे थे जैसे कि वसुंधरा राजे किसी आम नेता की तरह हो. मोदी-अमित शाह ने बेवजह राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष को बदलने की ठानी और इस लड़ाई में वसुंधरा का ढ़ाई महीने का वक्त बर्बाद हुआ. इससे बीजेपी को भारी नुकसान हुआ. आखिर में एक ऐसे व्यक्ति को बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया जो कि वसुंधरा के लिए किसी काम के नहीं हैं.
वसुंधरा राजे को जो जानते हैं वो जानते हैं कि वसुंधरा पीछे की पंक्ति में खड़ा होना नहीं जानतीं. वसुंधरा ताल ठोककर मैदान में उतर गईं और मोदी-अमित शाह के नेतृत्व को सीधी टक्कर देते हुए उनके पसंद का प्रदेशअध्यक्ष नहीं बनने दिया. उसके बाद की गौरव यात्राओं में भी साथ में पुराने प्रदेशअध्यक्ष अशोक परनामी को ही साथ रखा. ये एक सच्चाई है कि जो काम मोदी ने बीजेपी के लिए केंद्र में राष्ट्रीय स्तर पर किया है वो वसुंधरा राजस्थान में बीजेपी के लिए उनसे पहले कर चुकी हैं. बीजेपी राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत जैसे कद्दावर नेता के होते हुए भी अपनी बदौलत कभी भी पूर्ण बहुमत से नहीं आ पाई थी. अगर दो बार आई है तो इसमें वसुंधरा की ताकात और मेहनत रही है. पहली बार 120 सीटों के साथ बीजेपी को लाना और दूसरी बार 165 सीटों का इतिहास बनाना बीजेपी के किसी दूसरे नेता के बूते की बात नहीं थी.
वसुंधरा 2008 का चुनाव हार गईं लेकिन वह हार खुद रानी ने अपने लिए चुनी थी, ना कि कांग्रेस ने हराया था. मात्र 12 सीटों के अंतर से हार इस वजह से हुई कि महरानी ने अपनों पर कभी भरोसा नही किया. किरोड़ी लाल मीणा, विश्वेंद्र सिंह, हनुमान बेनिवाल जैसे नेता साथ छोड़कर चले गए. जसवंत सिंह जैसे नेता नाराज रहे. सत्यनारायण गुप्ता जैसे भरोसेमंद को निकाल फेंका. और इन सब का असर 20 सीटों पर पड़ा. वसुंधरा की छवि पर भी पड़ी. अपनों के यूज एन्ड थ्रो की छवि महरानी की बन गई. मगर तब भी वसुंधरा ने 2008 में 78 सीटें जीतीं. हालात विपरीत थे. 100 से ज्यादा मौतें गुर्जर आंदोलन में पुलिस की गोलियों से हुई थीं, घड़साना और सोहेला में पानी मांग रहे किसान मारे गए थे, जोधपुर में मंदिर में भगदड़ में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, राज्य में कई बार पुलिस फायरिंग हुई थी लेकिन इसके बावजूद महारानी का करिश्मा पूरी तरह कम नहीं हुआ. वसुंधरा राजे पर सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. विपक्ष ने ललित मोदी को डिफेक्टो सीएम बताया था और आरोप लगाया था कि ललित मोदी सरकार की फाइलें शहर के पांच सितारा होटल रामबाग में बैठकर क्लियर करते हैं. इस सबके बावजूद वसुंधरा का करिश्मा खत्म नहीं हुआ था बल्कि खुद की वजह से कम हुआ था. थोड़ी बहुत राजनीतिक कुशलता दिखाई होती तो सरकार अशोक गहलोत की नहीं बनती. रानी तब भी कांग्रेस से नहीं खुद से हारी थीं.
इस बार तो कोई बड़ा आरोप भी वसुंधरा राजे पर नहीं लगा है. काम की बात करें तो गांव से लेकर शहर तक में विकास के ढेर सारे काम गिनाने को हुए हैं. लेकिन वसुंधरा की एक छवि बनती चली गई कि काम नहीं हो रहा है और उसे तोड़ने के लिए कभी बाहर नहीं आईं. अपने कवच में सिमटी वसुंधरा राजे ने कभी लोगों के बीच जाकर बताने की जहमत नहीं उठाई कि मैंने क्या-क्या काम किए हैं. चुनाव महीने भर भी नहीं बचे हैं मगर वसुंधरा राजे अपनी योजनाओं को ठीक से बता नहीं पातीं. सोच रही हैं कि जनता उनके काम के भरोसे वापस लेकर आएगी तो इस तरह की सोच रखकर कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत अब तक पछता रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वसुंधरा राजे का खेल खत्म हो गया है लेकिन देखकर ऐसा लगता है कि वसुंधरा राजे में जीतने की ललक कम पड़ गई है. 2003 में भी और 2013 में भी कहा जा रहा था कि अशोक गहलोत की सरकार वापस आ रही है लेकिन दोनों ही समय वसुंधरा राजे धूम-धड़ाके के साथ सत्ता में वापसी की. बीजेपी के पास ग्राउंड वर्कर हैं. अगर सही ढंग से अपने कामों को पहुंचाकर अपनी योजनाओं के लाभार्थियों तक भी वसुंधरा पहुंच जाए तो वापसी की पूरी गुंजाइश बाकी है. वसुंधरा को लोग चाहते हैं और पुराना प्यार इतनी आसानी से नहीं जाता है. लोगों का बस यही कहना है कि रानी का गुरूर अगर रानी के सिर चढ़कर ना बोले तो वसुंधरा का जादू चुनाव में फिर चल सकता है.
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