पूरी दुनिया ईद की तैयारी कर रही है, और श्रीनगर में शुजात बुखारी का परिवार मातम मना रहा है. शुजात न आतंकी थे, न सेना के जवान. वे न किसी पर पत्थर फेंक रहे थे और न ही किसी को जबरदस्ती इसके लिए मना कर रहे थे. पेशे से पत्रकार शुजात से आखिर कौन नाराज हो सकता है? यदि वे निशाना हैं, तो किसका? और यदि वे किसी क्रॉस-फायर (गलतफहमी या साजिश) का शिकार हुए हैं तो समझ लीजिए कि ये शुरुआत है. और भी शुजात मरेंगे. क्योंकि कश्मीर की कुछ खास सच्चाइयों पर कोई नजर नहीं डालना चाहता है.
1. कश्मीर घाटी का एक ही सच है- 'हत्यााएं'
इस इलाके में अमन, विकास, कारोबार आदि की बातें सिर्फ दिखावा हैं. सीमा पर हत्याएं. नागरिकों की हों, चाहें सैनिकों कीं. इन्हें शहादत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह नाहक युद्ध के लिए व्यर्थ में गंवाई जा रही जिंदगियां हैं. इन मौतों पर कोई परिवार फक्र नहीं कर रहा है. सिर्फ वो ही आंदोलित हो रहे हैं, जो इन मौतों से कोसों दूर बैठे हैं. चाहे सीमा के इस पार, या उस पार.
2. न अखंड भारत है, न निजाम-ए-मुस्तफा
अभी कुछ ही दिन पहले नौहट्टा इलाके में सीआरपीएफ की जीप के नीचे आकर जान गंवाने वाले कैसर अहमद के एक भाई ने हुर्रियत नेताओं के सामने अपनी भड़ास निकाली थी. वो कह रहा था कि ऐसे जिहाद से निजाम-ए-मुस्तफा (इस्लाम का राज) कैसे आएगा? उस जेहादी ने तो जीप के नीचे आकर अपनी मौत खुद चुनी थी, लेकिन शुजात बुखारी का तो कोई दोष नहीं था. उन्हें नाहक क्यों शिकार बनाया गया. इस मौत पर गौर तो भारत सरकार को भी करना पड़ेगा. आम नागरिकों को भेड़-बकरी मानने की रवायत पुरानी है. सीमा पर क्रॉस फायरिंग में मरने वाले निर्दोष नागरिकों की...
पूरी दुनिया ईद की तैयारी कर रही है, और श्रीनगर में शुजात बुखारी का परिवार मातम मना रहा है. शुजात न आतंकी थे, न सेना के जवान. वे न किसी पर पत्थर फेंक रहे थे और न ही किसी को जबरदस्ती इसके लिए मना कर रहे थे. पेशे से पत्रकार शुजात से आखिर कौन नाराज हो सकता है? यदि वे निशाना हैं, तो किसका? और यदि वे किसी क्रॉस-फायर (गलतफहमी या साजिश) का शिकार हुए हैं तो समझ लीजिए कि ये शुरुआत है. और भी शुजात मरेंगे. क्योंकि कश्मीर की कुछ खास सच्चाइयों पर कोई नजर नहीं डालना चाहता है.
1. कश्मीर घाटी का एक ही सच है- 'हत्यााएं'
इस इलाके में अमन, विकास, कारोबार आदि की बातें सिर्फ दिखावा हैं. सीमा पर हत्याएं. नागरिकों की हों, चाहें सैनिकों कीं. इन्हें शहादत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह नाहक युद्ध के लिए व्यर्थ में गंवाई जा रही जिंदगियां हैं. इन मौतों पर कोई परिवार फक्र नहीं कर रहा है. सिर्फ वो ही आंदोलित हो रहे हैं, जो इन मौतों से कोसों दूर बैठे हैं. चाहे सीमा के इस पार, या उस पार.
2. न अखंड भारत है, न निजाम-ए-मुस्तफा
अभी कुछ ही दिन पहले नौहट्टा इलाके में सीआरपीएफ की जीप के नीचे आकर जान गंवाने वाले कैसर अहमद के एक भाई ने हुर्रियत नेताओं के सामने अपनी भड़ास निकाली थी. वो कह रहा था कि ऐसे जिहाद से निजाम-ए-मुस्तफा (इस्लाम का राज) कैसे आएगा? उस जेहादी ने तो जीप के नीचे आकर अपनी मौत खुद चुनी थी, लेकिन शुजात बुखारी का तो कोई दोष नहीं था. उन्हें नाहक क्यों शिकार बनाया गया. इस मौत पर गौर तो भारत सरकार को भी करना पड़ेगा. आम नागरिकों को भेड़-बकरी मानने की रवायत पुरानी है. सीमा पर क्रॉस फायरिंग में मरने वाले निर्दोष नागरिकों की बेशकीमती जान जाने का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता है. लेकिन बुखारी जैसे पत्रकारों की मौत यह जताने के लिए काफी है कि कश्मीर की 'क्रॉस-फायरिंग' की यह कीमत बहुत भारी पड़ने वाली है.
3. रमजान सीज़फायर बेमानी है
मुस्लिम समुदाय में ईद की तैयारियां जोरों पर हैं. और शुजात बुखारी का परिवार मातम मना रहा है. जिस खूनखराबे से निजात पाने के लिए भारत सरकार की ओर से रमजान में सीजफायर की बात कही गई थी, उसके जवाब में ऐसा 'थैंक-यू' आएगा, इसकी कल्पना नहीं की थी. पत्रकार होने के नाते शुजात इस भरोसे पर रहे होंगे कि जब किसी सैनिक ऑपरेशन की गुंजाइश नहीं है तो वे कम से कम अपने लोगों के बीच तो महफूज हैं ही. लेकिन कहते हैं न, गोली अपना पराया नहीं देखती. शुजात को किसने मारा, इस पर आरोप-प्रत्यारोप, साजिशों कहानी आती रहेंगी. लेकिन शुजात नहीं आएंगे.
रमजान में, एलओसी और आसपास के इलाकों में 18 आतंकवादी मारे गए, जबकि दक्षिणी कश्मीर में दो पुलिसकर्मी आतंकवादियों द्वारा मारे गए. बल द्वारा की गई फायरिंग में एक नागरिक मारा गया जबकि आतंकवादियों द्वारा किए गए 12 ग्रेनेड हमलों में सरकारी बल के 17 लोगों समेत 56 लोग घायल हुए. आतंकवादी सात बार पुलिस से हथियार छीनने में भी सफल हुए. यदि रमजान का सीजफायर कामयाब भी हुआ तो क्या फायदा? हो सकता है यह नकारात्मक लगे, लेकिन जब आखिर में सब बर्बाद ही होना है तो किसी भी तरह की खुशफहमी क्यों ?
4. सिर्फ कश्मीरी हार रहे हैं
हो सकता है कि भारत सरकार आतंकियों के खात्मे को लेकर आशावान हो कि उसका फॉर्मूला काम कर रहा है. उधर, सीमा पार से पाकिस्तान इस बात पर खुश हो कि सुरक्षा बलों पर हमले करवाकर उसने भारत को चुनौती दी हुई है. कश्मीर के कुछ अलगाववादी और आतंकी भी यह सोच कर खुश हो सकते हैं कि उनकी भारत से आजाद होने की तंजीम ताकतवर हो रही है. पाकिस्तान और आईएसआईएस के झंडे लहराने वाले पत्थरबाज सोचें कि ऐसा करने से उनका हेतु हल हो रहा है. तो ये जान लीजिए कि कोई कहीं आगे नहीं बढ़ रहा है. सब वहीं के वहीं खड़े हैं. और खड़े-खड़े मर रहे हैं. जी हां, सब मर रहे हैं. मरते जा रहे हैं. शुजात जैसे भी. बच्चे मर रहे हैं. बच्चियां मर रही हैं. जवान-बूढ़े सब. और जान लीजिए ये सब अपनी मौत नहीं मर रहे हैं. सब अपनी जिंदगी फिजूल में हार कर मर रहे हैं.
5. एजेंडा चलाने वाले जीतते आए हैं, जीतते रहेंगे
ऐसा नहीं है कि इस जंग में सबका नुकसान हो रहा है. ये बात भी हर खासो-आम को जान लेनी चाहिए कि 'कश्मीर किसी इलाके का नहीं, इंडस्ट्री का नाम है.' ये डायलॉग तो किसी फिल्मी का है लेकिन शुजात की मौत पर बार-बार याद आ रहा है. शुजात की मौत के बाद भी देखिए, संवेदनाओं को किनारे रखकर ट्विटर पर कैसी-कैसी टिप्पणियां की जा रही हैं. सब अपनी-अपनी मुहिम में लगे हैं. उसमें कोई हारना नहीं चाहता. और हारेगा भी क्यों. शुजात कौन-सा सगा था. मरना था, सो मर गया. एजेंडा नहीं मरना चाहिए. जी हां, इस एजेंडे की जंग में एजेंडा और उसे चलाने वाले दोनों अमर हैं.
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