विकास दुबे (Vikas Dubey Encounter) का अंत तो वैसा ही हुआ है, जैसा किसी भी वैसे अपराधी का होना चाहिये - जो नहीं होना चाहिये था वो रहा 'एनकाउंटर' का तरीका. अपराध के मामले में जैसा कुख्यात विकास दुबे रहा, एनकाउंटर के मामले में यूपी पुलिस की भी तकरीबन वैसी ही छवि रही है, लेकिन P Police STF फर्जी एनकाउंटर से दो कदम आगे नजर आ रही है.
विकास दुबे को कस्टडी में लेने के बाद यूपी एसटीएफ की जिम्मेदारी उसे जिंदा रखने की थी. हर हाल में उसे जिंदा रखना जरूरी था, ताकि पूछताछ में उसके नेक्सस का पता चल सके और मालूम हो सके कि वो कौन सी जमात है जो पुलिस के पल पल की जानकारी से उसे लगातार अपडेट करती रही है. ये ठीक है कि यूपी एसटीएफ ने चौबेपुर थाने के SO रहे विनय तिवारी और SI केके शर्मा को मुखबिरी के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. दोनों को सस्पेंड भी कर दिया गया, लेकिन ऐसे अनगिनत विनय तिवारी और केके शर्मा पुलिस में भरे पड़े हैं वे तो मालूम होने रहे. अब भला कौन बताएगा कि विकास दुबे के कानपुर के बिकरू गांधी से फरीदाबाद, नोएडा, कोटा होते और ठहरते हुए उसके उज्जैन पहुंचने तक कितने लोग मददगार बने रहे?
विकास दुबे के आपराधिक इतिहास को सिर्फ उसके खिलाफ दर्ज मुकदमों की फेहरिस्त को जोड़ कर देखा जाता रहा, लेकिन परदे के पीछे वे कौन लोग थे जो उसे बचाते रहे - ये राज तो हमेशा के लिए दफन हो गया. अब तो ये भी मालूम होने से रहा कि वो अपने इलाके में होने वाले खनन और उससे जुड़े घोटालों में किसके लिए काम करता रहा? किसके ठेकों की निगरानी करता रहा? वे कौन कारोबारी रहे जिनके गैरकानूनी कामों को वो अंजाम देता रहा? पुलिस और प्रशासन के वे कौन अफसर रहे जिनका हिस्सा वो पहुंचाता रहा और बदले में उसके खिलाफ एक्शन रोक दिया जाता रहा - और वे कौन लोग हैं जिनके लिए वो चुनावों में जरूरी इंतजाम करता रहा और बदले में बाकी वक्त वे उसे हर तरह से प्रोटेक्शन देते रहे?
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के पास सूबे को अपराध मुक्त करने का ये सबसे बड़ा और आखिरी मौका...
विकास दुबे (Vikas Dubey Encounter) का अंत तो वैसा ही हुआ है, जैसा किसी भी वैसे अपराधी का होना चाहिये - जो नहीं होना चाहिये था वो रहा 'एनकाउंटर' का तरीका. अपराध के मामले में जैसा कुख्यात विकास दुबे रहा, एनकाउंटर के मामले में यूपी पुलिस की भी तकरीबन वैसी ही छवि रही है, लेकिन P Police STF फर्जी एनकाउंटर से दो कदम आगे नजर आ रही है.
विकास दुबे को कस्टडी में लेने के बाद यूपी एसटीएफ की जिम्मेदारी उसे जिंदा रखने की थी. हर हाल में उसे जिंदा रखना जरूरी था, ताकि पूछताछ में उसके नेक्सस का पता चल सके और मालूम हो सके कि वो कौन सी जमात है जो पुलिस के पल पल की जानकारी से उसे लगातार अपडेट करती रही है. ये ठीक है कि यूपी एसटीएफ ने चौबेपुर थाने के SO रहे विनय तिवारी और SI केके शर्मा को मुखबिरी के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. दोनों को सस्पेंड भी कर दिया गया, लेकिन ऐसे अनगिनत विनय तिवारी और केके शर्मा पुलिस में भरे पड़े हैं वे तो मालूम होने रहे. अब भला कौन बताएगा कि विकास दुबे के कानपुर के बिकरू गांधी से फरीदाबाद, नोएडा, कोटा होते और ठहरते हुए उसके उज्जैन पहुंचने तक कितने लोग मददगार बने रहे?
विकास दुबे के आपराधिक इतिहास को सिर्फ उसके खिलाफ दर्ज मुकदमों की फेहरिस्त को जोड़ कर देखा जाता रहा, लेकिन परदे के पीछे वे कौन लोग थे जो उसे बचाते रहे - ये राज तो हमेशा के लिए दफन हो गया. अब तो ये भी मालूम होने से रहा कि वो अपने इलाके में होने वाले खनन और उससे जुड़े घोटालों में किसके लिए काम करता रहा? किसके ठेकों की निगरानी करता रहा? वे कौन कारोबारी रहे जिनके गैरकानूनी कामों को वो अंजाम देता रहा? पुलिस और प्रशासन के वे कौन अफसर रहे जिनका हिस्सा वो पहुंचाता रहा और बदले में उसके खिलाफ एक्शन रोक दिया जाता रहा - और वे कौन लोग हैं जिनके लिए वो चुनावों में जरूरी इंतजाम करता रहा और बदले में बाकी वक्त वे उसे हर तरह से प्रोटेक्शन देते रहे?
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के पास सूबे को अपराध मुक्त करने का ये सबसे बड़ा और आखिरी मौका था, लेकिन वो चूक गये. अब तक जिन पुलिसकर्मियों की वो पीठ ठोकते रहे वे तो चार कदम आगे ही चल रहे थे - विकास दुबे का 'फर्जी एनकाउंटर' कौन कहे, ये तो लगता है सारे सबूत ही मिटा डालने की कोशिश हुई हो.
क्या ये सबूत मिटाने की कोशिश जैसा नहीं है?
विकास दुबे ने यूपी पुलिस को लाख चकमा देने की कोशिश की हो, बचाव की जितनी भी तरकीबें अपनायी हो - शक तो इस बात का जताया ही जा रहा था कि जैसे पुलिस ने उसके साथी प्रभात का हाइवे पर एनकाउंटर किया विकास दुबे के साथ भी वैसा ही हो सकता है. हुआ भी वही. पुलिस की कहानी में प्रभात ने भी हथियार लेकर भागने की कोशिश की और विकास ने भी. दोनों मारे भी वैसे ही गये. बस पुलिस ने अपना दोष मिटाने के लिए दोनों को सरेंडर करने की सलाह जरूर दी. प्रभात ने तो नहीं, विकास तो खुद ही गिरफ्तार होने पहुंचा था. फिर कितनी बार सरेंडर करता भला.
एक टीवी चैनल पर एक वीडियो दिखाया जा रहा था - वीडियों में कुछ पुलिस अफसर आपस में बात कर रहे होते हैं. बातचीत साफ साफ सुनी जा सकती है. वीडियो में एक पुलिसकर्मी पूछता है कि क्या विकास दुबे कानपुर पहुंच जाएगा - जिस पर दूसरा हंसते हुए शक जाहिर करता है.
ऐसा लगता है जिस बात का शक जताया जा रहा है, हुआ भी वैसा ही होगा - और यही वजह है कि पुलिस की कहानी पर एक बार फिर वही सवाल उठ रहे हैं जो किसी भी फर्जी एनकाउंटर के बाद उठते हैं. लेकिन विकास दुबे का मामला बाकी अपराधियों से कहीं ज्यादा गंभीर रहा है.
विकास दुबे का केस बाकी अपराधियों से काफी अलग लगता है. ऐसा लगता है जैसे यूपी में राजनीति, नौकरशाही और अपराध का कोई बड़ा नेक्सस काम कर रहा हो - और विकास दुबे उसी के लिए अपने इलाके में काम कर रहा था. फिर तो ऐसे विकास दुबे दूसरे इलाकों में भी होंगे और उसी तरीके से नेक्सस का हिस्सा होंगे. अगर विकास दुबे से पूछताछ में उस नेक्सस के मॉडल का पता चलता तो बाकियों के बारे में भी पता लग सकता था - मगर, अफसोस की बात है कि ऐसा हुआ नहीं.
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी टीआर का भी एक टीवी डिबेट में सवाल यही था कि विकास दुबे का जिंदा रहना जरूरी है, लेकिन उनको शक भी था कि कोई उससे राज खुलवाना चाहेगा ये भी तो जरूरी नहीं है. यूपी पुलिस के डीजीपी रहे विक्रम सिंह ने भी ऐसे ही खुलासों की उम्मीद लगायी थी.
विक्रम सिंह का कहना था कि विकास से पूछताछ की जाये तो बड़े-बड़े नाम सामने आएंगे - आईएएस, आईपीएस और नेताओं के नाम सामने आ सकते हैं.
फिर तो पूछताछ से जो भी जानकारियों पुलिस के हाथ लगतीं. अपराध और राजनीति का नेटवर्क सामने आता, वो सब एक झटके में खत्म हो गया. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिसके पास इतने महत्वपूर्ण राज हों - जो सीधे सरकार से आपराधिक तरीके से मुकाबले करने की अपनी हैसियत समझता हो. जो पुलिस के डीएसपी सहित 8 पुलिसकर्मियों को मारने के बाद पेट्रोल से जला देने का का इरादा रखता हो - क्या उसका जिंदा नहीं बच पाना सबूतों के मिट जाने जैसा नहीं है? विकास दुबे को मारने नहीं जिंदा रखने की जिम्मेदारी यूपी पुलिस की थी क्योंकि मध्य प्रदेश की पुलिस ने उसे जिंदा ही सौंपा था.
एक लोचा विकास दुबे को मध्य प्रदेश पुलिस की हिरासत से यूपी एसटीएफ की कस्टडी में जाने तक भी देखने को मिल रहा है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, विकास दुबे को मध्य प्रदेश पुलिस ने हिरासत में लिया जरूर था, लेकिन कानूनी तरीके से गिरफ्तार नहीं किया था और सीधे यूपी पुलिस को सौंप दिया था. तरीका तो ये है कि मध्य प्रदेश पुलिस को गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना चाहिये था और फिर ट्रांजिट रिमांड पर यूपी पुलिस उसे कानपुर लेकर आती जहां उसके खिलाफ मुकदमे दर्ज हैं. मध्य प्रदेश पुलिस की ये दलील रही होगी कि चूंकि उसके खिलाफ उज्जैन में कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं था, इसलिए उसने गिरफ्तारी की जरूरत नहीं समझी और यूपी पुलिस को सौंप दिया. ऐसा करने का फायदा ये हुआ कि यूपी पुलिस उस झंझट से बच गयी जिसमें न्यायिक हिरासत होने पर विकास दुबे की मौत को लेकर उसे अदालत में रिपोर्ट पेश करनी पड़ती.
विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र कह भी रहे थे कि उनकी पुलिस ने तो उसे जिंदा अपनी सीमा तक पहुंचा भी दिया था. सही बात है आगे की जिम्मेदारी तो यूपी पुलिस की ही रही - लेकिन अगर पुलिस वालों का वो वीडियो सही है तो साफ है सब कुछ साफ साफ नहीं है जैसा बताने की कोशिश हो रही है.
बहुत बड़ा मौका गवां बैठे योगी आदित्यनाथ
परदा जो उठ जाता तो सारे राज ही खुल जाते लिहाजा मार डाला - विकास दुबे एनकाउंटर को लेकर लोगों की जो राय बन रही है उसका लब्बोलुआब यही है. यूपी पुलिस और उसकी एसटीएफ चाहे जो भी कहानी गढ़ रखी हो सुनाती रहे. फर्क किसे पड़ता है. कुछ नेताओं के लिए इसी बहाने एनकाउंटर के पुराने मामलों पर सवाल उठाने का मौका जरूर मिला है.
ये मामला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक कॅरियर के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता था, लेकिन वो गंवा बैठे. विपक्ष हमलावर हो गया है. सबसे ज्यादा आक्रामक तो कांग्रेस नजर आ रही है. योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कोई भी मौका न छोड़ने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ने तो सवाल भी वही पूछा है जो हर किसी के मन में चल रहा है - एक अपराधी तो खत्म हो गया, उनका क्या जो उसे बरसों से पाले हुए थे और ऐसे न जाने कितनों को पाल-पोस रहे हैं. राहुल गांधी ने तो बस प्रियंका गांधी की बातों को मनमोहन सिंह वाली स्टाइल में एनडोर्स किया है.
जिस तरह मीडिया रिपोर्ट विकास दुबे के खिलाफ 60 से ज्यादा मामले होने के जिक्र से भरी पड़ी हैं, उनमें ही एक खास जिक्र और भी है, विकास दुबे के राजनीतिक संबंधों को लेकर. बताते हैं विकास दुबे के 25 साल के आपराधिक-राजनीति के सफर में 15 साल बीएसपी नेताओं का संरक्षण रहा और पांच पांच साल समाजवादी पार्टी और बीजेपी के स्थानीय नेताओं का. विकास दुबे के जो दो वीडियो सामने आये हैं वे भी यही बता रहे हैं. विकास दुबे की मां सरला देवी का भी कहना है - वो भाजपा में तो था नहीं, वो तो सपा में था. वैसे सरला देवी के बयान भी बदलते देखे गये हैं और ऐसा भी लगता है जैसे किसी की सलाह पर वो ऐसा कर रही हैं.
यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अब उन मुठभेड़ों पर भी नये सिरे से सवाल उठा रहे हैं जिनको लेकर उनका आरोप रहा कि बेकसूरों को मार दिया गया. आज तक टीवी पर अखिलेश यादव हिरासत में होने वाली मौतों को लेकर मानवाधिकार आयोग के नोटिसों का भी हवाला देते रहे.
एक वीडियो में विकास दुबे ने बीएसपी शासन में विधानसभा अध्यक्ष रहे हरिकिशन श्रीवास्तव को अपना राजनीतिक गुरु बताते हुए सियासत में लाने का श्रेय देता है. एक वीडियों में वो बीजेपी विधायकों का भी नाम लेता है लेकिन दोनों ने उसके आरोपों को खारिज कर दिया है.
अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी की बात और है, मगर मालूम नहीं मायावती को यूपी पुलिस पर किस बात का शक है और वो भी अब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में उच्चस्तरीय जांच की बात करने लगी हैं.
अब तक तो वो यूपी पुलिस को हैदराबाद पुलिस से सीख लेने की सलाह दे रही थीं, फिर अचानक क्या हो गया. याद कीजिये उन्नाव रेप को लेकर मायावती ने यही बयान दिया था. ये तब की बात है जब हैदराबाद पुलिस ने रेप के एक आरोपी को सीन रीक्रिएट करने के दौरान हथियार छीन कर भागने की कोशिश में एनकाउंटर में मार डाला था. यूपी एसटीएफ ने भी तो बिलकुल वही किया है - फिर दिक्कत क्या है?
विकास दुबे के एनकाउंटर पर जब कानपुर के आईजी पुलिस टीम की पीठ थपथपाते हुए 'नजीर' पेश करने की बात कर रहे थे तो यूपी के पुलिस के एडीजी प्रशांत कुमार की बातें अचानक याद आ गयी हैं - एडीजी ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि विकास दुबे के खिलाफ ऐसा एक्शन होगा जो देश के सामने नजीर होगा.
विकास दुबे के एनकाउंटर की पुलिस जो भी कहानी सुनाये, लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब न पुलिस दे रही है न देना चाह रही है - और शायद ही कभी इनके जवाब मिलें भी.
1. जिस दुर्दांत अपराधी को उज्जैन के महाकाल मंदिर के निहत्थे सिक्योरिटी गार्ड ने पकड़ लिया, वो अचानक एसटीएफ से हथियार छीन कर कैसे भाग सकता है? वो इतना मूर्ख तो था भी नहीं क्योंकि एनकाउंटर से बचने के लिए उसने जितने भी जतन किये थे वो भला एसटीएफ से हथियार लेकर क्यों भागेगा, जबकि अंजाम उसे पहले से पता था. आखिर उसके एक साथी प्रभात का एनकाउंटर भी तो उसी तरीके से हुआ था और जिस तरह पुलिस की गतिविधियों से वो अपडेट रहा, लगता नहीं कि प्रभात के एनकाउंटर वाली बात उसे मालूम न हो.
2. प्रभात के एनकाउंटर के बाद पुलिस ने इसी तरह का घटनाक्रम बताया था कि पहले पुलिस की गाड़ी पंक्चर हो गयी थी. फिर प्रभात पुलिसकर्मियों से पिस्टल छीनकर भागने की कोशिश करने लगा और एनकाउंटर में मारा गया. विकास के मामले में भी वही स्क्रिप्ट सुना डाली गयी बस किरदार और लोकेशन बदल दिया गया - आखिर ऐसे अपराधियों को लेकर पुलिस इतनी लापरवाह क्यों रहती है कि कभी पंक्चर हो जाती है तो कभी पलट जाती है और जब भी ऐसा होता है अपराधी पुलिस के हथियार छीन कर भागने लगता है.
3. विकास दुबे लगातार 7 दिन से इधर उधर भागता फिर रहा धा. क्या वो इतना ताकतवर रहा कि एसटीएफ के तेज तर्रार पुलिसकर्मियों हथियार लेकर भागने लगा? मान लेते हैं कि उसने घायल पुलिसकर्मी का हथियार छीन लिया, तो बाकी लोग क्या तमाशा देख रहे थे. रास्ते में कहीं हल्का सा जाम लग जाता है तो अनजान लोग भी गाड़ी से उतर कर देखने लगते हैं कि हुआ क्या है - जब एसटीएफ की टीम एक दुर्दांत अपराधी को लेकर चल रही हो और रास्ते में हादसा हो जाये तो क्या बाकी लोग अपनी अपनी गाड़ियों में बैठ कर इंतजार कर रहे थे - क्या उनको पहले से मालूम था कि आगे क्या होने वाला है?
4. सवाल ये है कि छुटभैये अपराधियों को जब पुलिस हथकड़ी लगाकर कहीं भी ले जाती है तो विकास दुबे के हाथ हाथ खुले क्यों थे? क्या उसे हथकड़ी नहीं लगाई गई थी? अगर ऐसा था तो क्या इसके पीछे भी कोई रणनीति रही? 5. सवाल तो ये भी है कि मीडिया की गाड़ियों को पूरे रास्ते पीछे पीछे चलने दिया गया, लेकिन एनकाउंटर वाली जगह से कई किलोमीटर पहले ही क्यों रोक दिया गया? क्या उस वक्त गाड़ी की स्पीड ऐसी हो चली थी कि पलटने और ये सब होने का अंदेशा हो गया था?
एसटीएफ के लिए तो ये बेहतरीन मौका था जब वो विकास दुबे का लाइव एनकाउंटर शूट होने देती. मीडिया के कैमरे भी विकास दुबे को घायल पुलिसकर्मी का हथियार लूटते और पुलिस पर फायरिंग करने कैद कर लेते - और फिर हमेशा के लिए यूपी पुलिस फर्जी एनकाउंटर के दाग से बाइज्जत बरी भी हो जाती.
ज्यादा कुछ तो नहीं लेकिन चिंता वाली एक बात जरूर लग रही है, जब भी यूपी पुलिस किसी अपराधी को एक जगह से दूसरी जगह ले जा रही होती है तो इतनी लापरवाह कैसे हो जाती है कि वो अचानक पिस्टल छीन लेता है - और फिर मजबूरन पुलिस को उसे आत्मसमर्पण करने को बोलने के साथ ही गोली मारनी पड़ती है. बेहतर यही होगा कि पुलिसवाले या तो अलर्ट रहें या फिर पिस्टल की जगह कोई ऐसा हथियार रखें जिसे छीन पाना अपराधियों के लिए आसान न हो.
लगता है कवि कुमार विश्वास भी यूपी पुलिस की स्क्रिप्ट का लोहा मानने लगे हैं - आइए, कुमार विश्वास की टिप्पणी भी देखते हैं -
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