राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है. ये नारा अचानक से लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था. बुलेट मोटर साइकिल पर सवार इलाहाबाद की सड़कों पर घूमते राजा मांडा सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र का भ्रमण नहीं कर रहे थे बल्कि हिन्दुस्तान की सियासत को बदलने का इतिहास लिख रहे थे. एक आदमी ने अकेले दम पर भारत सरकार को हिला दिया था. राजीव गांधी की मज़बूत हुकूमत आंधियों में सूखे पत्ते सा हिल रही थी.
राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री से इस्तीफ़ा देकर चुनाव मैदान में उतरे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स में दलाली के मुद्दे पर राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया था. विश्वनाथ प्रताप सिंह को सियासत में ईमानदारी की मिसाल माना जाता था. वह राजघराने से थे, पढ़े-लिखे थे, इन्दिरा गांधी के करीबियों में थे, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रहे थे. राजीव गांधी से खटपट के बाद जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपना खुद का सियासी दल बनाया तो उसमें आरिफ मोहम्मद खान भी थे. ताऊ देवीलाल भी थे, मुलायम सिंह यादव भी थे, डॉ. संजय सिंह और ज़फर अली नकवी भी थे. उस दौर में वीपी सिंह जिधर से गुज़र जाते थे एक आंधी सी आ जाती थी.
राजीव गांधी की हुकूमत गिर गई थी. जनता दल की सरकार जोड़तोड़ से बननी थी क्योंकि बहुमत का आंकड़ा अकेले दम पर नहीं आया था. चुनाव क्योंकि वीपी सिंह के चेहरे पर लड़ा गया था इसलिए सभी एकमत थे कि वीपी सिंह ही प्रधानमंत्री बनें.
प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देवीलाल भी देख रहे थे मगर सियासी हवाओं को भांपना वह बहुत अच्छे से जानते थे. देवीलाल ने ड्रामा रचा. तय किया कि उन्हें संसदीय दल का नेता चुना जाये. शपथ ग्रहण के समय वह प्रधानमंत्री का ताज वीपी सिंह के सर पर रख देंगे तो कहीं से विरोध का...
राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है. ये नारा अचानक से लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था. बुलेट मोटर साइकिल पर सवार इलाहाबाद की सड़कों पर घूमते राजा मांडा सिर्फ एक संसदीय क्षेत्र का भ्रमण नहीं कर रहे थे बल्कि हिन्दुस्तान की सियासत को बदलने का इतिहास लिख रहे थे. एक आदमी ने अकेले दम पर भारत सरकार को हिला दिया था. राजीव गांधी की मज़बूत हुकूमत आंधियों में सूखे पत्ते सा हिल रही थी.
राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री से इस्तीफ़ा देकर चुनाव मैदान में उतरे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स में दलाली के मुद्दे पर राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया था. विश्वनाथ प्रताप सिंह को सियासत में ईमानदारी की मिसाल माना जाता था. वह राजघराने से थे, पढ़े-लिखे थे, इन्दिरा गांधी के करीबियों में थे, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रहे थे. राजीव गांधी से खटपट के बाद जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपना खुद का सियासी दल बनाया तो उसमें आरिफ मोहम्मद खान भी थे. ताऊ देवीलाल भी थे, मुलायम सिंह यादव भी थे, डॉ. संजय सिंह और ज़फर अली नकवी भी थे. उस दौर में वीपी सिंह जिधर से गुज़र जाते थे एक आंधी सी आ जाती थी.
राजीव गांधी की हुकूमत गिर गई थी. जनता दल की सरकार जोड़तोड़ से बननी थी क्योंकि बहुमत का आंकड़ा अकेले दम पर नहीं आया था. चुनाव क्योंकि वीपी सिंह के चेहरे पर लड़ा गया था इसलिए सभी एकमत थे कि वीपी सिंह ही प्रधानमंत्री बनें.
प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देवीलाल भी देख रहे थे मगर सियासी हवाओं को भांपना वह बहुत अच्छे से जानते थे. देवीलाल ने ड्रामा रचा. तय किया कि उन्हें संसदीय दल का नेता चुना जाये. शपथ ग्रहण के समय वह प्रधानमंत्री का ताज वीपी सिंह के सर पर रख देंगे तो कहीं से विरोध का स्वर नहीं उठेगा. यही हुआ भी. लेकिन शपथ ग्रहण के वक्त देवीलाल ने उप प्रधानमंत्री के बजाय प्रधानमन्त्री की शपथ ले ली बाद में दोबारा से उप प्रधानमंत्री की शपथ ली.
यह उनके दिल की बात थी जो ज़बान पर आ गई थी. कुछ दिन सरकार स्मूथली चली भी मगर देवीलाल तरीका ढूढ़ रहे थे कि कैसे भी वीपी सिंह को हटाकर प्रधानमंत्री बन जाएं. वीपी सिंह भी इस्तीफ़ा देने में माहिर समझे जाते थे. देवीलाल को लगा था कि वीपी सिंह तो ज़रा सा छेड़ने पर नाराज़ होकर इस्तीफ़ा दे आयेंगे लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी को वह भी छोड़ने को तैयार नहीं थे.
देवीलाल ने सरकार से किनारा कर लिया. सरकार गिराने की तैयारियां शुरू हो गईं. वीपी सिंह ने ऐसे वक्त पर बोतल में बंद मंडल के जिन्न को बाहर निकाल दिया. मंडल कमीशन लागू होते ही सड़कों पर छात्रों का प्रदर्शन शुरू हो गया. तमाम नौजवानों ने अपनी जान दे दी.
वीपी सिंह ने मंडल के ज़रिये कुर्सी से चिपक जाने का जो फार्मूला ढूंढा था वही उन्हें आम राजनेता में बदल गया, वर्ना अगर उन्होंने उसी दिन प्रधानमंत्री की कुर्सी से इस्तीफ़ा दे दिया होता तो वह दूसरे गांधी बन गए होते. हर शहर में उनकी मूर्तियां लग गई होतीं. मगर चंद दिनों के लिए उस कुर्सी पर बैठे रहने के जतन ने यह हालात बना दिए कि आज बताना पड़ रहा है कि वीपी सिंह होते तो आज 90 बरस के हो गए होते.
वीपी सिंह को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका मिला है. वीपी सिंह को ईमानदारी की मिसाल के रूप में देखा है. प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटने के बाद हाथ में झोला लिये अकेले लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर देखा है. लखनऊ के राजभवन कालोनी वाले मकान में रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री वीपी सिंह से कभी भी मुलाक़ात की जा सकती थी. राजीव गांधी के खिलाफ जब वह माहौल बना रहे थे तब बोफोर्स के दलालों को हर कोई जेल में देखना चाहता था.
सियासत में झूठ का यह पहला प्रयोग था जो अब हर राजनेता कर रहा है. चुनावी सभाओं में वीपी सिंह जेब से एक पर्ची निकालते थे और बताते थे कि इस पर्ची में वह नाम लिखे हैं जो बोफोर्स की दलाली में शामिल थे. वह कहते थे कि इधर प्रधानमन्त्री पद की शपथ लूंगा उधर बोफोर्स दलालों को जेल भेजने का काम करुंगा.
चुनाव हो गया. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए. देवीलाल ने विद्रोह कर दिया. सरकार खतरे में आ गई. सरकार गिर गई. वीपी सिंह पूर्व प्रधानमंत्री बन गए. उन्होंने अपनी सुरक्षा लौटा दी. आम आदमी की तरह से टहलने लगे मगर वह पर्ची उनकी जेब में ही न जाने कहाँ गुम हो गई.
वीपी सिंह के बाद गठबन्धनों की सरकारें बनीं. राजीव गांधी की हत्या हो गई. उसी बोफोर्स की तोप ने करगिल की जंग जीती. दलाली के धब्बे को देखकर अमिताभ बच्चन सियासत छोड़कर वापस मुम्बई लौट गए.
वीपी सिंह आज नहीं हैं. राजीव गांधी भी नहीं हैं. चन्द्रशेखर भी नहीं हैं. यह संसार का नियम है कि जो आज है वो कल नहीं होगा. मगर राजीव गांधी ने अगर बोफोर्स में दलाली खाई थी तो वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनकर एक्शन क्यों नहीं लिया? और अगर झूठा आरोप लगाया था तो यह चरित्र हनन का अपराध था. चरित्र हनन की जिस परम्परा की सियासत में शुरुआत हुई है उसने ही इसे काजल की कोठरी बनाया है.
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