आ गये चुनाव परिणाम. अब ख़ुशी से सड़क पर मत निकल आइएगा. पॉपकॉर्न की तरह उछलने की आदत आसानी से नहीं जाएगी लेकिन सड़कें श्मशान बनी हुई हैं. वैसे भी इन चुनावों में मुझ जैसों के लिये हार-जीत का कोई औचित्य नहीं था लेकिन आप जीते, ख़ुश हैं, मुबारक हो, घर में रहें. लेफ़्ट वाले भाजपा के हारने पर ख़ुश हो रहे हैं ये अपने आप में दिलचस्प है, आप हैं कहां जनाब इस फ़ाइट में? बंगाल में तो हुआ करते थे, वहां भी नहीं बचे और ख़ुश इस बात पर होंगे कि भाजपा भी नहीं टिकी? वो आपका गढ़ हुआ करता था, भाजपा का कभी रहा नहीं.
भाजपा समर्थक हताश न हों, आपने ख़ूब मेहनत की, आपके फ़ुलटाइम प्रचारक जो बाय-मिस्टेक हमारे प्रधानमंत्री भी हुआ करते हैं, ने जान लगा दी जीतने में. लाशों के ऊपर एम्बुलेंस की नहीं ईवीएम की बत्ती जल रही थी. अब जो मिला है उसे स्वीकार लें. आप तो नहीं निकलेंगे घर से बाहर लेकिन मन हो तो भी न निकलें. ख़त्म कीजिए चुनाव परिणाम वाला माहौल, मर रहे हैं लोग चारों तरफ़. यह लोकतंत्र का उत्सव नहीं था, जनता का जनाज़ा और निर्वाचन आयोग का दिवालियापन था.
अमित शाह ने एक साक्षात्कार में नाविका कुमार को कहा था कि कैसे रोक देंगे चुनाव? संविधान में कोई प्रावधान ही नहीं है, निर्वाचन आयोग कैसे स्थगित कर देगा?
सर भूल गये होंगे कि 1950 में संविधान लागू हुआ था और 1952 में पहले चुनाव हुए थे, तबतक महामारी जैसी विकट विपदा थी ही नहीं तो उल्लेख कैसे होता. प्रावधानों की बातें वो कर रहे हैं जो रातोंरात कानून बदलते रहते हैं. ख़ैर, ज़ख़्म पर टाटा सॉल्ट लगाना उद्देश्य नहीं है. ममता बनर्जी भी कोई बहुत बढ़िया विकल्प नहीं हैं, उनके समूचे कार्यकाल में बंगाल के विकास पर ग़ौर करेंगे तो समझ आयेगा...
आ गये चुनाव परिणाम. अब ख़ुशी से सड़क पर मत निकल आइएगा. पॉपकॉर्न की तरह उछलने की आदत आसानी से नहीं जाएगी लेकिन सड़कें श्मशान बनी हुई हैं. वैसे भी इन चुनावों में मुझ जैसों के लिये हार-जीत का कोई औचित्य नहीं था लेकिन आप जीते, ख़ुश हैं, मुबारक हो, घर में रहें. लेफ़्ट वाले भाजपा के हारने पर ख़ुश हो रहे हैं ये अपने आप में दिलचस्प है, आप हैं कहां जनाब इस फ़ाइट में? बंगाल में तो हुआ करते थे, वहां भी नहीं बचे और ख़ुश इस बात पर होंगे कि भाजपा भी नहीं टिकी? वो आपका गढ़ हुआ करता था, भाजपा का कभी रहा नहीं.
भाजपा समर्थक हताश न हों, आपने ख़ूब मेहनत की, आपके फ़ुलटाइम प्रचारक जो बाय-मिस्टेक हमारे प्रधानमंत्री भी हुआ करते हैं, ने जान लगा दी जीतने में. लाशों के ऊपर एम्बुलेंस की नहीं ईवीएम की बत्ती जल रही थी. अब जो मिला है उसे स्वीकार लें. आप तो नहीं निकलेंगे घर से बाहर लेकिन मन हो तो भी न निकलें. ख़त्म कीजिए चुनाव परिणाम वाला माहौल, मर रहे हैं लोग चारों तरफ़. यह लोकतंत्र का उत्सव नहीं था, जनता का जनाज़ा और निर्वाचन आयोग का दिवालियापन था.
अमित शाह ने एक साक्षात्कार में नाविका कुमार को कहा था कि कैसे रोक देंगे चुनाव? संविधान में कोई प्रावधान ही नहीं है, निर्वाचन आयोग कैसे स्थगित कर देगा?
सर भूल गये होंगे कि 1950 में संविधान लागू हुआ था और 1952 में पहले चुनाव हुए थे, तबतक महामारी जैसी विकट विपदा थी ही नहीं तो उल्लेख कैसे होता. प्रावधानों की बातें वो कर रहे हैं जो रातोंरात कानून बदलते रहते हैं. ख़ैर, ज़ख़्म पर टाटा सॉल्ट लगाना उद्देश्य नहीं है. ममता बनर्जी भी कोई बहुत बढ़िया विकल्प नहीं हैं, उनके समूचे कार्यकाल में बंगाल के विकास पर ग़ौर करेंगे तो समझ आयेगा लेकिन चुनना था एक को सो चुन लिया.
पहली बार ऐसा है कि चुनाव में न उत्सव है, न जश्न है. लाशों की ढेर पर उल्लास नहीं मना सकता अपना देश. उम्मीद है अब सभी महानुभावों को अपने काम याद आयें और थोड़ा काम हो. फ़िलहाल जनता ही जनता के लिये खड़ी है, लोकतंत्र की इतनी नींव बची है अपने भारत में, जब कर्णधार कर्त्तव्यविमुख हो गये तो भारत भाग्य विधाता ख़ुद खड़े हुए कि नहीं टूटने देंगे, बचा लेंगे जितना बचा सकें, देश है ये अपना, सिर्फ़ नक्शा भर नहीं है.
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