बीजेपी (BJP) के लिए पश्चिम बंगाल अब तो सियासी मनोरंजन का साधन भर होना चाहिये था, लेकिन वो सिर्फ भारी ही नहीं पड़ रहा बल्कि बोझ बढ़ता ही जा रहा है - जिस सूबे में सत्ता हासिल न हो भला वो बीजेपी के लिए क्या मायने रखता होगा?
बीजेपी के लिए बंगाल में अब तो बस एक ही आकर्षण बचा है - कैसे वो ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और उनकी सरकार को परेशान कर सकती है? और अगर ऐसा न हो तो उसका पार्टी को कोई फायदा नहीं है - और अगर इसका उलटा होने लगे, फिर तो ये बहुत भारी नुकसान है. पश्चिम बंगाल की चुनावी हार से भी बड़ा नुकसान!
कहां बीजेपी को आने वाले चुनावों के चैलेंज पर काम करना चाहिये और कहां वो बंगाल में ऐसी फंसती जा रही है कि लगता है जैसे इज्जत पर आ पड़ी हो. अगर मुकुल रॉय को बीजेपी बोझ समझ रही थी तो अब नेतृत्व को राहत महसूस करनी चाहिये, लेकिन लगता है शुभेंदु अधिकारी नये बोझ साबित होने वाले हैं.
गवर्नर से मुलाकात में करीब दो दर्जन बीजेपी विधायकों की गैरहाजिरी के तमाम कारण मालूम हो रहे हैं - और एक है विधायकों को शुभेंदु अधिकारी का नेतृत्व बर्दाश्त न होना.
पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष को तो मुकुल राय भी नहीं पसंद आते थे, लेकिन शुभेंदु अधिकारी के साथ तो छत्तीस का आंकड़ा भी मजबूत ही होता जा रहा है. लिहाजा दिलीप घोष को दिल्ली में ऐडजस्ट करने पर भी विचार किया जा चुका है. वैसे भी शुभेंदु अधिकारी को तो बीजेपी ने कोलकाता में सेट कर ही दिया है - पश्चिम बंगाल में विपक्ष का नेता बना कर.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह के सामने बंगाल का बोझ बढ़ने की एक बड़ी वजह प्रशांत किशोर के बूते ममता बनर्जी का सुपर एक्टिव होना भी है - अब तो साफ साफ लगने लगा है कि एक पैर से बंगाल जीतने के बाद ममता बनर्जी...
बीजेपी (BJP) के लिए पश्चिम बंगाल अब तो सियासी मनोरंजन का साधन भर होना चाहिये था, लेकिन वो सिर्फ भारी ही नहीं पड़ रहा बल्कि बोझ बढ़ता ही जा रहा है - जिस सूबे में सत्ता हासिल न हो भला वो बीजेपी के लिए क्या मायने रखता होगा?
बीजेपी के लिए बंगाल में अब तो बस एक ही आकर्षण बचा है - कैसे वो ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और उनकी सरकार को परेशान कर सकती है? और अगर ऐसा न हो तो उसका पार्टी को कोई फायदा नहीं है - और अगर इसका उलटा होने लगे, फिर तो ये बहुत भारी नुकसान है. पश्चिम बंगाल की चुनावी हार से भी बड़ा नुकसान!
कहां बीजेपी को आने वाले चुनावों के चैलेंज पर काम करना चाहिये और कहां वो बंगाल में ऐसी फंसती जा रही है कि लगता है जैसे इज्जत पर आ पड़ी हो. अगर मुकुल रॉय को बीजेपी बोझ समझ रही थी तो अब नेतृत्व को राहत महसूस करनी चाहिये, लेकिन लगता है शुभेंदु अधिकारी नये बोझ साबित होने वाले हैं.
गवर्नर से मुलाकात में करीब दो दर्जन बीजेपी विधायकों की गैरहाजिरी के तमाम कारण मालूम हो रहे हैं - और एक है विधायकों को शुभेंदु अधिकारी का नेतृत्व बर्दाश्त न होना.
पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष को तो मुकुल राय भी नहीं पसंद आते थे, लेकिन शुभेंदु अधिकारी के साथ तो छत्तीस का आंकड़ा भी मजबूत ही होता जा रहा है. लिहाजा दिलीप घोष को दिल्ली में ऐडजस्ट करने पर भी विचार किया जा चुका है. वैसे भी शुभेंदु अधिकारी को तो बीजेपी ने कोलकाता में सेट कर ही दिया है - पश्चिम बंगाल में विपक्ष का नेता बना कर.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह के सामने बंगाल का बोझ बढ़ने की एक बड़ी वजह प्रशांत किशोर के बूते ममता बनर्जी का सुपर एक्टिव होना भी है - अब तो साफ साफ लगने लगा है कि एक पैर से बंगाल जीतने के बाद ममता बनर्जी दोनों पैरों से दिल्ली की तरफ दौड़ लगाने की जोर शोर से तैयारी कर रही हैं.
बीजेपी को उसी की भाषा में ममता का जवाब
गवर्नर के दिल्ली रवाना होने से पहले, पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी बीजेपी विधायकों के साथ राजभवन पहुंच कर जगदीप धनखड़ से मुलाकात की और बताते हैं कि राज्य में जारी हिंसा और दलबदल कानून के मुद्दे को भी उठाया. दिल्ली पहुंच कर जगदीप धनखड़ प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पश्चिम बंगाल को लेकर ग्राउंड रिपोर्ट पेश करने वाले हैं.
शुभेंदु अधिकारी के साथ राजभवन सिर्फ 50 विधायक ही पहुंचे और बाकी दो दर्जन नदारद रहे - बड़ा सवाल यही है कि ऐसा हुआ तो हुआ क्यों?
चर्चा तो ये है कि गैरहाजिर विधायकों का बीजेपी से मोहभंग हो चुका है और अब उनका रुख बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की तरफ है. बचाव में बीजेपी की तरफ से कोविड 19 का हवाला देते हुए कहा गया है कि सारे विधायकों को राजभवन के लिए बुलाया भी नहीं गया था. फिर तो सवाल ये भी उठेगा कि कोविड 19 से बचना ही था तो शुभेंदु अधिकारी के साथ प्रतिनिधिमंडल में चार-पांच विधायक भी तो जा सकते थे.
जैसे 2019 के आम चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री मोदी टीएमसी विधायकों के बड़ी संख्या में बीजेपी के संपर्क में होने का दावा कर रहे थे, टीएमसी नेता कुणाल घोष का भी दावा है कि बीजेपी के करीब आधे विधायक और कुछ सांसद तृणमूल कांग्रेस के संपर्क में हैं. प्रधानमंत्री मोदी का दावा तो 2021 के विधानसभा चुनाव में सही साबित हो चुका है - क्या टीएमसी भी बीजेपी का वैसा ही हाल करने वाली है?
मुकुल रॉय के टीएमसी फिर से ज्वाइन करने से पहले से ही राजीब बनर्जी भी घरवापसी वाली चर्चाओं का हिस्सा रहे और सोनाली गुहा तो ममता बनर्जी से सरेआम माफी मांगते हुए कहने लगी थीं कि बीजेपी में उनका दम घुटने लगा है.
मुकुल रॉय के टीएमसी में वापस चले जाने के बाद बीजेपी के जिन विधायकों के वही रास्ता अख्तियार करने की चर्चा है, शुभेंदु अधिकारी गवर्नर से मिल कर दल बदल का मुद्दा उठाते हैं - तो क्या ऐसा करके वो उन चर्चाओं को ही बल नहीं दे रहे हैं? और अब टीएमसी नेताओं की तरफ से शुभेंदु अधिकारी को दलबदल कानून का मुद्दा उठाने से पहले अपना घर संभालने की जो सलाह दी जा रही है - वो भी तो उसी तरफ इशारा कर रहा है.
क्या बंगाल में बीजेपी में ही तोड़फोड़ की आशंका है?
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की तारीख नजदीक आती जा रही है, लेकिन बीजेपी का वो स्वाभाविक अंदाज नहीं नजर आ रहा है जो चुनावों से पहले किसी भी राज्य में अब तक देखने को मिलता रहा है. हो सकता है ये भी पश्चिम बंगाल से मिले सबक का ही रिजल्ट हो. पश्चिम बंगाल में बाहर से आये नेताओं को टिकट देने का अनुभव बीजेपी के लिए बिलकुल अच्छा नहीं रहा.
यूपी में तो ऐसा लगता है जैसे तोड़ फोड़ के मामले में बीजेपी की जगह अखिलेश यादव ने ले ली है, ऐसा लगता है. फिलहाल बीजेपी के लिए जैसे भी संभव हो, यूपी की सत्ता में वापसी महत्वपूर्ण है, लेकिन योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रदर्शन, सत्ता विरोधी लहर और कई चीजों के चलते बीजेपी की चुनावी तैयारियां जोर नहीं पकड़ पा रही हैं.
ऐसे भी समझ सकते हैं कि मायावती से नाराज बीएसपी के नेता अखिलेश यादव से मुलाकात कर रहे हैं - क्या उनको बीजेपी के सत्ता में लौटने का भरोसा नहीं रह गया है?
अव्वल तो कोई पार्टी छोड़ने वाला नेता उसी पार्टी में जाने की कोशिश करता है जिसके सत्ता में आने की संभावना नजर आती है, लेकिन यूपी में फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है. हाल के दिनों में कई बीएसपी नेता अखिलेश यादव से मुलाकात कर चुके हैं. मायावती ने जिन दो बड़े नेताओं को निकाला था वे भी अखिलेश यादव के ही संपर्क में बताये गये थे.
2017 के चुनाव से पहले तो ये सब बीजेपी की तरफ से ही हुआ करता रहा. रीता बहुगुणा जोशी, स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक जैसे नेता बीजेपी में उसी रास्ते आये थे. हो सकता है बात नहीं बन पायी हो वरना वे समाजवादी पार्टी में भी तो जा सकते थे - क्योंकि तब तो अखिलेश यादव की ही सरकार हुआ करती थी? हालांकि, रीता बहुगुणा जोशी जैसे नेताओं को बीजेपी ने 2019 के चुनाव में सांसद बना कर योगी सरकार के मंत्री पद से भी वंचित कर दिया. केंद्र में तो मंत्री बनने के लिए पहले से ही कड़ा संघर्ष है.
कायदे से तो बंगाल के बोझ से मुक्त होकर बीजेपी को यूपी और बाकी के विधानसभा चुनावों पर ज्यादा जोर लगाना चाहिये था, लेकिन अभी तक तो लगता है बीजेपी की सारी ऊर्जा वहीं जाया हो रही है जो अब तक पीछे छूट जाना चाहिये था.
मान भी लेते हैं कि बीजेपी पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह फिलहाल ऑपरेशन लोटस से परहेज कर रही होगी, लेकिन अब ऐसा भी तो नहीं कि उलटी गंगा बहने लगे - भले ही बीजेपी चुनावों में सीटों का आंकड़ा सौ पार नहीं करा सकी, लेकिन अपने विधायकों का टूट कर टीएमसी में चले जाना कैसे बर्दाश्त कर पाएगी?
देखा जाये तो शुभेंदु अधिकारी एक तरीके से शक्ति प्रदर्शन ही कर रहे थे कि बीजेपी के सभी विधायक एकजुट हैं. वो दलबदल का मुद्दा जरूर उठा रहे थे लेकिन संदेश तो एकजुटता की ही देने की कोशिश रही होगी - और ये सब भी वो दिल्ली में मिले दिशानिर्देशों के बाद ही कर रहे होंगे.
शुभेंदु अधिकारी हाल ही में दिल्ली दौरे पर थे और प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के अलावा भी कई नेताओं से मुलाकात किये. ममता बनर्जी को नंदीग्राम में शिकस्त देने के बाद से शुभेंदु अधिकारी का कद बीजेपी में काफी बढ़ा हुआ माना जा रहा है, लेकिन ये सब बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष को फूटी आंख भी नहीं सुहा रहा है.
शुभेंदु अधिकारी के साथ जाने से विधायकों के परहेज की एक वजह दिलीप घोष की अंदर से नाराजगी भी हो सकती है. पहले भी खबरें आती रही हैं कि जब भी दिलीप घोष ने बीजेपी विधायकों की मीटिंग बुलायी शुभेंदु अधिकारी ने शक्ल तक न दिखायी, जब तक कि ऐसी किसी मीटिंग में जेपी नड्डा या कोई बड़ा नेता न शामिल हो रहा हो.
दिलीप घोष अकेले नहीं हैं शुभेंदु अधिकारी को नापसंद करने वालों में. बीजेपी में ऐसे कई विधायक बताये जा रहे हैं जो शुभेंदु अधिकारी के नेतृत्व में कोई निष्ठा नहीं रखते.
शुभेुंद अधिकारी और दिलीप घोष के टकराव को खत्म करने के लिए दोनों को अलग अलग करने की चर्चा होती है. अब जबकि ममता बनर्जी को हराने के बाद भी उनसे लगातार दो दो हाथ करने की जिम्मेदारी औपचारिक रूप से शुभेंदु अधिकारी को सौंपी जा चुकी है, दिलीप घोष को दिल्ली भी बुलाया जा सकता है. बंगाल बीजेपी में एक धड़ा अब भी मानने को तैयार नहीं है कि शुभेंदु अधिकारी का कोई योगदान भी है, सिवा नंदीग्रास की जीत के. वो भी 50 हजार से ज्यादा का दावा किये थे और नतीजे आये तो मालूम हुआ कि सिर्फ एक हजार से ज्यादा वोटों से जीते हैं. बीजेपी का शुभेंदु विरोधी खेमा यही मानता है कि बंगाल में पार्टी की जो कुछ भी उपलब्धि रही वो या तो दिल्ली से पहुंचे मोदी-शाह के चलते या फिर दिलीप घोष की वजह से.
राजभवन नहीं पहुंचे विधायकों से बाततीत के आधार पर बीबीसी ने एक रिपोर्ट की है. ऐसे विधायक कुछ ठोस बताने की जगह निजी कारण बता कर मुद्दे को टाल जाते हैं.
बीबीसी के सवाल पर उत्तर 24-परगना के बागदा विधानसभा सीट से विधायक विश्वजीत दास का जवाब रहा, 'अचानक तबीयत खराब होने की वजह से ही मैं कोलकाता नहीं जा सका... कोई और बात नहीं है.'
विश्वजीत दास की बातों पर आंख मूंद कर यकीन भी किया जा सकता था - अगर उनको मुकुल रॉय का करीबी नहीं समझा जाता.
अब तक तो बीजेपी पर ही विरोधी दलों के विधायकों को तोड़ने के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन लगता है अब पीके की मदद से ममता बनर्जी को भी ऐसे इल्जाम मजेदार लगने लगे हैं. आधिकारिक तौर पर अभी बतौर विधायक सिर्फ मुकुल रॉय ही ममता बनर्जी के पाले में गये. टीएमसी में बीजेपी से गये तो मुकुल रॉय के बेटे शुभ्रांशु भी हैं, लेकिन वो विधानसभा चुनाव हार गये थे. अब शुभ्रांशु की अपने पिता की सीट से विधानसभा पहुंचने की तैयारी है.
ये तो ऐसा लगता है ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने प्रशांत किशोर की कंपनी I-PAC के साथ कॉन्ट्रैक्ट को 2026 तक बढ़ाया भी इसीलिये है - और शरद पवार से एक बड़ी मुलाकात के साथ ही प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी की मंशा के मुताबिक टीएमसी का मिशन आगे बढ़ा दिया है.
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