जम्मू-कश्मीर में शाह फैसल 17 मार्च को अपनी राजनीतिक पार्टी लॉन्च करने जा रहे हैं. दस साल पहले आईएएस की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान हासिल करने वाले शाह फैसल ने 9 जनवरी, 2019 को सरकारी सेवा से इस्तीफा दे दिया था. शुरू में माना जा रहा था कि शाह फैसल किसी राजनीतिक पार्टी का दामन थामेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
शाह फैसल की ओर से अभी ये तो नहीं बताया गया है कि उनकी पार्टी का नाम क्या होगा या कौन लोग उनके साथ होंगे, लेकिन मीडिया रिपोर्ट से कई बातें सामने आई हैं. एक चर्चा ये भी है कि जेएनयू की छात्र नेता शेहला रशीद श्रीनगर में पार्टी के ऐलान के वक्त ज्वाइन कर सकती हैं.
शाह फैसल को मिला है शेहला राशिद का साथ
जेएनयू छात्र संघ की उपाध्यक्ष रह चुकीं शेहला रशीद शोरा फिलहाल पीएचडी कर रही हैं - और कहा जा रहा है कि शाह फैसल के साथ मिल कर वो कुछ महीनों से काम कर रही हैं. शाह फैसल के राजनीतिक दल की घोषणा के साथ शेहला रशीद को बड़ी भूमिका में देखने को मिल सकता है.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार शाह फैसल 17 मार्च को श्रीनगर में नये राजनीतिक दल का ऐलान करने वाले हैं जिसमें करीब 20 हजार लोगों की मौजूदगी की अपेक्षा की जा रही है. अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने के लिए शाह फैसल काफी दिनों से घाटी में यात्रा कर रहे हैं और समान विचारधारा के लोगों से संपर्क कर रहे हैं. इस मिशन में शेहला रशीद की भी खासी हिस्सेदारी बतायी जा रही है.
आउटलुक पत्रिका के सवाल पर शाह फैसल ने पार्टी का नाम तो नहीं बताया लेकिन रविवार को पार्टी लॉन्च करने की पुष्टि की है. शाह फैसल ने लोक सभा चुनाव में भागीदारी के भी संकेत दिये हैं. जम्मू-कश्मीर में लोक सभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराये जाने की अपेक्षा थी लेकिन चुनाव आयोग ने इसके लिए अनुकूल हालात नहीं होने की वजह बतायी. वैसे अब खबर है कि लोक सभा चुनाव के बाद जम्म-कश्मीर विधानसभा चुनाव कराये जाने की कोशिश हो रही है.
AISA के बैनर तले छात्र संघ चुनाव जीतीं शेहला रशीद मोदी सरकार की नीतियों का विरोध करती आयी हैं.
शाह फैसल ने एक और खास बात की ओर इशारा किया है - उनकी पार्टी किसी राजनीतिक फोरम का विकल्प नहीं बनने जा रही है, बल्कि मौजूदा दलों के साथ ही मिल कर काम करने के इरादे के साथ आ रही है.
केजरीवाल और शाह फैसल
दिल्ली और श्रीनगर में बहुत सारे फर्क हैं, लेकिन शाह फैसल और अरविंद केजरीवाल की तुलना करें तो दोनों ही ब्यूरोक्रेटिक बैकग्राउंड से आते हैं. जिस तरह दिल्ली और देश भर के लोगों को अरविंद केजरीवाल ने एक बड़ी उम्मीद दिखायी थी, शाह फैसल भी जम्मू-कश्मीर के लोगों को वैसे ही सपने दिखा रहे होंगे.
अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हुए राजनीति को नयी दिशा देने के वादे के साथ आये थे. केजरीवाल की राजनीति में आंदोलन वाला तेवर तो अब भी बरकरार है - लेकिन कई मामलों में निराशा ही हाथ लगी है. सबसे ज्यादा ताज्जुब तो होता है कि जिस कांग्रेस शासन के खिलाफ लड़कर केजरीवाल राजनीति में आये उसी के साथ पहली सरकार बनायी और अब उसी के साथ गठबंधन के लिए बेताब हैं.
शाह फैसल आईएएस छोड़कर राजनीति में आ रहे हैं. वो नौजवानों की बात तो कर रहे हैं. ये भी बता रहे हैं उनको ऐसे नौजवानों का सपोर्ट मिल रहा है जो अब तक किसी भी राजनीतिक दल के साथ नहीं हैं. जाहिर है ऐसे नौजवानों को एक सही मार्गदर्शक की महती जरूरत है.
कश्मीरी नौजवानों के सामने चुनौतियां भी बहुत हैं. जिन नौजवानों ने अपना भविष्य तय कर लिया है उनकी बात अलग है, लेकिन जिन्होंने अपना कोई खास करियर प्लान नहीं है उन्हें मुख्यधारा की राजनीति ही सही रास्ता दिखा सकती है. कश्मीर के मौजूदा राजनीतिक दलों की मुश्किल ये है कि पहले वो अपना अस्तित्व बचाये या फिर नौजवानों के भविष्य की फिक्र करें. लिहाजा वो मार्केट में बने रहने के जोड़-घटाव में उलझे रहते हैं.
ऐसी सूरत में नौजवानों के सामने अलगाववाद की राह सबसे आसान है - और यही वजह है कि वे ऐसे लोगों के चंगुल में आ जाते हैं जो पहले पत्थरबाजी कराते हैं और बाद में उन्हें आत्मघाती हमलावर बना दे रहे हैं. पुलवामा की घटना इसकी सबसे सटीक मिसाल है.
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में शाह फैसल ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी - घाटी में आतंकवाद को सोशल सपोर्ट मिलना. उससे भी अहम बात इसे लेकर उनकी फिक्र रही. शाह फैसल ने कहा था कि ये सबसे बड़ी चिंता की बात है. यही वो सबसे खास बात है जो शाह फैसल के नजरिये से उम्मीद की किरण दिखाती है.
कश्मीरी राजनीतिक दलों से कितने अलग
जमात ए इस्लामी के सपोर्ट में पीडीपी नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती सड़क पर उतर आयी हैं. खुल कर तो नहीं लेकिन शाह फैसल भी ऐसी पाबंदी और अलगाववादी नेताओं के खिलाफ सरकार के एक्शन को ठीक नहीं मानते. इस बातचीत से शाह फैसल की अलगाववादियों को लेकर राय समझी जा सकती है.
बातचीत में शाह फैसल का कहना है कि कश्मीर को मन की मौज पर नहीं चलाया जा सकता कि आज इसको तो कल उसको बैन कर दिया जाये. जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों को लेकर शाह फैसल की राय है कि उनमें बदलाव आ रहा था और वो मानवता के लिए काम कर रहे थे - स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह. देखा जाय तो जमात के बारे में ऐसी ही राय महबूबा मुफ्ती की भी है - और इसी वजह से वो उसके सपोर्ट में खड़ी हैं.
महबूबा मुफ्ती की ही तरह शाह फैसल हर किसी से बातचीत के पक्षधर लगते हैं - मीरवाइज उमर फारूक जैसे अलगाववादियों के खिलाफ एक्शन को भी सही नहीं मानते.
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के प्रति जो नजरिया महबूबा मुफ्ती का रहा है, शाह फैसल भी उसी से इत्तेफाक रखते लगते हैं. इमरान खान को वो नोबल पुरस्कार का हकदार बताने के लिए सोशल मीडिया पर ट्रोल भी हो चुके हैं.
शाह फैसल जब तक खुल कर अपने पत्ते नहीं खोलते उनकी राजनीतिक विचारधारा ठीक से नहीं समझा जा सकता. कश्मीरियत को लेकर उनकी जो भी चिंताएं हैं वे अपनी जगह हैं, लेकिन घाटी में आतंकवाद को सामाजिक समर्थन को लेकर उनकी फिक्र उम्मीद जरूर बंधाती है. काफी हद तक वैसी ही जैसी अरविंद केजरीवाल से रही है.
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