जीतने की कोई दूसरी तस्वीर नहीं होती. जीत चाहे एक लाख मत से हो या सिर्फ एक ही मत से. जीत बस जीत होती है. ठीक उसी तरह हार भी. भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव शानदार ही जीता है. मगर, भाजपा को मिली जीत का श्रेय किसे दिया जाएगा? और ऐतिहासिक जीत मिलने के बावजूद इसमें जो दरारें पड़ी नजर रही हैं क्या उसे भरने के लिए भाजपा आने वाले दिनों में अपनी रणनीतियों से चौंका सकती है? क्या सच में भाजपा यूपी में नेतृत्व बदलने की भी सोच सकती है जिसकी चर्चा चुनाव के दौरान खूब सुनने को मिल रही थी. योगी के साथ कुछ नए चेहरों को लेकर पार्टी आगे बढ़ती है. या फिर ऐसा कुछ भी ना हो जिसके कयास लगाए जा रहे हैं.
यूपी के चुनाव को लेकर जो तमाम सवाल हैं वो ठीक दो साल बाद 2024 में लोकसभा चुनाव की वजह से अहम बन जाते हैं. चुनाव की घोषणा से पहले तक योगी के नेतृत्व पर बहुत सवाल नहीं थे. लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य एपिसोड के बाद सबकुछ इतना तेज हुआ कि भाजपा के नीति नियंताओं को भी उस वक्त शायद ही कुछ समझ आया होगा. जब चुनाव की घोषणा हुई अखिलेश के नेतृत्व में विपक्ष ने भाजपा को उसी तरह घेरने का व्यूह रचा जिस तरह भाजपा ने साल 2017 में पूर्व मुख्यमंत्री को हराने के लिए घेरा डाला था.
हिंदुत्व ठीक है पर मंडल पॉलिटिक्स के आगे कमजोर दिखता है
भाजपा ने गैरयादव मोर्चा तैयार किया था और जाति विशेष को मिले सत्ता संरक्षण, गुंडई को मुद्दा बनाया. 2022 में अखिलेश ने गैरठाकुर राजनीतिक मोर्चा बनाने की कोशिश की और योगीराज में ठाकुरों को मिले कथित सत्ता संरक्षण और उनकी गुंडई को मुद्दा बनाना चाहा. स्वामी प्रसाद एपिसोड के बाद भाजपा ने प्रतिक्रिया देने में लंबा वक्त लिया. जाहिर है उसे तकलीफ ज्यादा हुई होगी और हिंदुत्व की थियरी में इसका इलाज...
जीतने की कोई दूसरी तस्वीर नहीं होती. जीत चाहे एक लाख मत से हो या सिर्फ एक ही मत से. जीत बस जीत होती है. ठीक उसी तरह हार भी. भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव शानदार ही जीता है. मगर, भाजपा को मिली जीत का श्रेय किसे दिया जाएगा? और ऐतिहासिक जीत मिलने के बावजूद इसमें जो दरारें पड़ी नजर रही हैं क्या उसे भरने के लिए भाजपा आने वाले दिनों में अपनी रणनीतियों से चौंका सकती है? क्या सच में भाजपा यूपी में नेतृत्व बदलने की भी सोच सकती है जिसकी चर्चा चुनाव के दौरान खूब सुनने को मिल रही थी. योगी के साथ कुछ नए चेहरों को लेकर पार्टी आगे बढ़ती है. या फिर ऐसा कुछ भी ना हो जिसके कयास लगाए जा रहे हैं.
यूपी के चुनाव को लेकर जो तमाम सवाल हैं वो ठीक दो साल बाद 2024 में लोकसभा चुनाव की वजह से अहम बन जाते हैं. चुनाव की घोषणा से पहले तक योगी के नेतृत्व पर बहुत सवाल नहीं थे. लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य एपिसोड के बाद सबकुछ इतना तेज हुआ कि भाजपा के नीति नियंताओं को भी उस वक्त शायद ही कुछ समझ आया होगा. जब चुनाव की घोषणा हुई अखिलेश के नेतृत्व में विपक्ष ने भाजपा को उसी तरह घेरने का व्यूह रचा जिस तरह भाजपा ने साल 2017 में पूर्व मुख्यमंत्री को हराने के लिए घेरा डाला था.
हिंदुत्व ठीक है पर मंडल पॉलिटिक्स के आगे कमजोर दिखता है
भाजपा ने गैरयादव मोर्चा तैयार किया था और जाति विशेष को मिले सत्ता संरक्षण, गुंडई को मुद्दा बनाया. 2022 में अखिलेश ने गैरठाकुर राजनीतिक मोर्चा बनाने की कोशिश की और योगीराज में ठाकुरों को मिले कथित सत्ता संरक्षण और उनकी गुंडई को मुद्दा बनाना चाहा. स्वामी प्रसाद एपिसोड के बाद भाजपा ने प्रतिक्रिया देने में लंबा वक्त लिया. जाहिर है उसे तकलीफ ज्यादा हुई होगी और हिंदुत्व की थियरी में इसका इलाज भी नहीं दिख रहा होगा उनके पास. मंडल के सामने हिंदुत्व हमेशा पंगु हो जाता है तभी तो बड़े भाजपा नेता भगोड़े नेताओं की मनुहार करते दिख रहे थे. यह स्थापित होने लगा कि योगी के नेतृत्व में चुनावी अभियान नाजुक मोड़ पर है. योगी और केशव मौर्य के बीच की अनबन साथ ही ब्राह्मणों की नाराजगी के दावे भी परेशान कर रहे थे.
यूपी में जब यह सबकुछ घाट रहा होता है फ्रेम में अमित शाह और नरेंद्र मोदी दिखने लगते हैं. चीजें अचानक से बदलती हैं. शायद याद ही होगा कि उस वक्त नैरेटिव चला कि योगी की वजह से ठाकुरवाद का मुद्दा भाजपा के साथ गैरयादव ओबीसी मतों को जोड़े रखने में मुश्किल पैदा कर रहा है. चर्चाओं में बिना नाम का उल्लेख किए संघ नेताओं के हवाले से चुनावी जमीन पर चार तरह के नैरेटिव चलने लगे. और इसी दौरान मोदी ने योगी और केशव मौर्य से अलग अलग मुलाकातें कर तमाम कयासों को फलने फूलने का पर्याप्त मौका दिया. चुनाव से पहले योगी के कंधे पर हाथ रखे मोदी की तस्वीरें याद तो होंगी ही. मोदी केशव की इत्मीनान से हुई बैठक भी.
चुनाव के दौरान यूपी में भाजपा के भविष्य को लेकर जमीन पर किस तरह के नैरेटिव थे
जमीन पर जो चार नैरेटिव थे- उनमें एक था कि यूपी में सत्ता वापसी के बाद योगी की ताजपोशी मुश्किल है. किसी पिछड़े चेहरे को (केशव मौर्य भी) आगे किया जाएगा. दूसरे में कहा जा रहा था कि योगी चाहे मोदी की जगह लें या किसी दूसरी भूमिका में जाएं, उन्हें केंद्र ले जाया जाएगा और उनकी जगह किसी पिछड़े नेता को यूपी की कमान मिलेगी. तीसरा- बेबी रानी मौर्य और आईपीएस असीम अरुण जैसे दलित चेहरों को आगे बढ़ाने की बातें सामने आईं. चौथा यह भी कहा गया कि योगी की ताजपोशी होगी भी तो यूपी में सियासी शक्ति का बराबर बंटवारा मातहत उपमुख्यमंत्रियों के बीच होगा.
भाजपा की जीत भले ऐतिहासिक है पर पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 49 से ज्यादा सीटों का नुकसान झेलना केंद्रीय नेताओं को परेशान कर रहा होगा. खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को जिन्हें 2024 में यूपी की जमीन से विपक्षी नेता के रूप में अखिलेश यादव की तगड़ी चुनौती मिलती दिख रही होगी. पिछले कई चुनावों के मुकाबले इस बार अखिलेश को मुस्लिम-यादव गठजोड़ और आंशिक रूप से मंडल की सिम्पैथी ने काफी हद तक मजबूत किया है. सपा की सीटें तो बेशुमार बढ़ी हैं वोट शेयरिंग भी बढ़ा है. यूपी चुनाव के बाद अखिलेश, ओबीसी राजनीति को लेकर ज्यादा स्पष्ट नजरिए से आगे बढ़ सकते हैं जो चुनाव के दौरान नहीं दिखा. हिंदुत्व को पछाड़ने के लिए उन्हें भाजपा में दरार नजर आई होगी.
भाजपा को अभी खोजना है अखिलेश की मंडल राजनीति का जवाब, दरार भरने की चुनौती
अगर अखिलेश को दरार नजर आई है तो वह मंडल की राजनीति ही है जिसके जरिए सपा चीफ निर्णायक हमला कर सकते हैं. हालांकि इस बार सर्व समाज का साथ लेने के चक्कर में अखिलेश गैर यादव ओबीसी का भरोसा नहीं जीत पाए, जो 2017 में उनके साथ था. अब लोकसभा चुनाव से पहले वे गैरयादव ओबीसी का भरोसा जीतने की कोशिश करेंगे. निश्चित करेंगे. अब सवाल है कि बीजेपी इसके मुकाबले देश के सबसे बड़े राज्य में क्या करने जा रही?
अगर यूपी चुनाव नतीजों के श्रेय की बात है तो यह सीधे मोदी के नाम दर्ज होगा. जो बच-बचाकर अमित शाह के हिस्से में जाता दिख रहा है उसे भी मोदी का ही हिस्सा मां लेना चाहिए. असल में मोदी-शाह दो जिस्म एक राजनीति ही हैं. योगी के खाते में बुलडोजर से ज्यादा श्रेय तो फिलहाल नहीं दिख रहा. श्रेय होगा भी तो मोदी की मौजूदगी में कम से कम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जाने वाला है. लखनऊ दिल्ली का एक फर्क बराबर मौजूद रहेगा. चुनाव बाद दिल्ली-लखनऊ में यह दिखा भी.
लखनऊ-दिल्ली में योगी-मोदी का अलग-अलग मीडिया के सामने आना क्या संकेत दे रहा है
अब ऐसी स्थितियों में जो दरार दिख रही है उसे भरने के लिए के लिए भाजपा सत्ता के बंटवारे का कोई फ़ॉर्मूला बनाए जो उसके लिए लोकसभा चुनाव में मददगार साबित हो. वैसे इस बात की संभावना कम ही है कि मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी ना की जाए. उनकी ताजपोशी जरूर होगी. लेकिन यह आशंका भी है कि शायद सत्ता के इकलौते केंद्र सिर्फ योगी ना रहें. लखनऊ में जीत की घोषणा करते वक्त योगी और उनके आसपास मौजूद भाजपा नेताओं की टोली को देखकर कुछ हैरानी हुई होगी. यह अनूठा संयोग है कि जब मोदी के नेतृत्व में विराट जीत के बाद एक मुख्यमंत्री ने मीडिया के सामने बात रखी. जबकि दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में भी कार्यक्रम आयोजित है जहां तमाम केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में मोदी ने अपनी बात रखी.
यह पार्टी में नेतृत्व के स्तर पर संदेश देने की कोशिश है. योगी के साथ लखनऊ में अन्य नेताओं (स्वतंत्र देव सिंह, केशव मौर्य, दिनेश शर्मा, लक्ष्मीकांत वाजपेयी और तमाम अन्य) की मौजूदगी इशारा है कि पार्टी अपने सभी नेताओं को बराबर देखती है और जीत का सेहरा सबके सिर बंधेगा. उधर, दिल्ली पार्टी दफ्तर में मोदी का प्रेस से बात करने आना संकेत है कि अभी भी पार्टी में मोदी से बड़ा कोई और चेहरा नहीं. लोकसभा चुनाव उनके जादुई नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. यानी साफ है कि योगी मुख्यमंत्री तो रहेंगे, मगर उनके डिप्टी के रूप में कोई पिछड़ा या दलित चेहरा भी हो. यह भी हो सकता है कि लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस बार योगी कैबिनेट वृहद गैरयादव ओबीसी और दलित चेहरों से भरी हो.
ऐसे चेहरे जो खराब सियासी मौसम में लाइट हाउस की तरह सजातीय वोटों से भरे जहाज को रास्ता दिखाते रहें.
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