चौबीस साल बाद इरोम शर्मिला को वोट देने का मौका तो मिला लेकिन उसे भी वो अपनी पार्टी प्रजा - पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलाएंस को नहीं दे पाईं. इरोम ने ये बात खुरई में अपना वोट डालने के बाद बताई.
इरोम खुद भी पहले खुरई से चुनाव लड़ने वाली थीं, लेकिन चुनाव प्रचार में लोगों का साथ न मिलने के कारण उन्हें इरादा बदलना पड़ा. फिलहाल वो मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के खिलाफ थाउबल से चुनाव मैदान में हैं.
संघर्ष
नामांकन दाखिल करने भी इरोम अपने समर्थकों के साथ 20 किलोमीटर साइकिल चला कर पहुंची थीं - और चुनाव प्रचार के सिलसिले में साइकिल से ही रोजाना इतनी दूरी नापती रही हैं.
मुश्किल ये है कि इरोम ने चुनाव से पहले ही अपनी नयी पार्टी बनायी है और कैंपेन के लिए जरूरत भर फंड भी नहीं है. फंड को लेकर एक बार विवाद भी खड़ा हो गया जब इरोम ने दावा किया कि बीजेपी की ओर से उन्हें 36 करोड़ रुपये का ऑफर किया गया था.
फंड की कमी के चलते ही इरोम की पार्टी ज्यादा सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतार पायी - और लोगों के छोटे छोटे समूह में जाकर इरोम और उनके साथ चुनाव प्रचार करते हैं जिसमें कोशिश यही रहती है कि कम से कम खर्च में काम हो जाये.
ये तो सिर्फ इरोम ही महसूस कर पा रही होंगी कि 16 साल तक बगैर कुछ खाये संघर्ष मुश्किल था या अभी वो जिस राह पर चल रही हैं. उनका लक्ष्य मणिपुर से AFSPA हटवाना है और इसके लिए उन्होंने आंदोलन से राजनीति का रास्ता अख्तियार किया है.
AFSPA
इरोम की इस राजनीतिक सक्रियता को इसी रूप में देखा जा सकता है कि चुनाव लड़े जाते हैं और कई बार उसमें हार जीत का भी मतलब नहीं होता. शायद इसे 2014 में तब बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के...
चौबीस साल बाद इरोम शर्मिला को वोट देने का मौका तो मिला लेकिन उसे भी वो अपनी पार्टी प्रजा - पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलाएंस को नहीं दे पाईं. इरोम ने ये बात खुरई में अपना वोट डालने के बाद बताई.
इरोम खुद भी पहले खुरई से चुनाव लड़ने वाली थीं, लेकिन चुनाव प्रचार में लोगों का साथ न मिलने के कारण उन्हें इरादा बदलना पड़ा. फिलहाल वो मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के खिलाफ थाउबल से चुनाव मैदान में हैं.
संघर्ष
नामांकन दाखिल करने भी इरोम अपने समर्थकों के साथ 20 किलोमीटर साइकिल चला कर पहुंची थीं - और चुनाव प्रचार के सिलसिले में साइकिल से ही रोजाना इतनी दूरी नापती रही हैं.
मुश्किल ये है कि इरोम ने चुनाव से पहले ही अपनी नयी पार्टी बनायी है और कैंपेन के लिए जरूरत भर फंड भी नहीं है. फंड को लेकर एक बार विवाद भी खड़ा हो गया जब इरोम ने दावा किया कि बीजेपी की ओर से उन्हें 36 करोड़ रुपये का ऑफर किया गया था.
फंड की कमी के चलते ही इरोम की पार्टी ज्यादा सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतार पायी - और लोगों के छोटे छोटे समूह में जाकर इरोम और उनके साथ चुनाव प्रचार करते हैं जिसमें कोशिश यही रहती है कि कम से कम खर्च में काम हो जाये.
ये तो सिर्फ इरोम ही महसूस कर पा रही होंगी कि 16 साल तक बगैर कुछ खाये संघर्ष मुश्किल था या अभी वो जिस राह पर चल रही हैं. उनका लक्ष्य मणिपुर से AFSPA हटवाना है और इसके लिए उन्होंने आंदोलन से राजनीति का रास्ता अख्तियार किया है.
AFSPA
इरोम की इस राजनीतिक सक्रियता को इसी रूप में देखा जा सकता है कि चुनाव लड़े जाते हैं और कई बार उसमें हार जीत का भी मतलब नहीं होता. शायद इसे 2014 में तब बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल की चुनौती से जोड़ा जा सकता है.
मणिपुर के मैदान में इरोम और इबोबी सिंह आमने सामने कहने भर को हैं, पलड़ा हर तरह से मौजूदा सीएम का ही भारी है. मजे की बात ये है कि दोनों एक ही समुदाय मैती से आते हैं. जो फैक्टर इबोबी का प्लस प्वाइंट है वही इरोम का माइनस प्वाइंट. जिस मैती समुदाय के भरोसे इबोबी तीन बार से मुख्यमंत्री बनते आये हैं वही इरोम को एक तरीके से बेदखल कर चुका है.
वोटिंग के हिसाब से देखें तो पहले फेज में रिकॉर्ड 84 फीसदी मतदान हुआ है. 4 मार्च को 38 सीटों के लिए वोट डाले जा चुके हैं जबकि बाकी 22 सीटों के लिए 8 मार्च का दिन तय है. मणिपुर में सत्ता की प्रबल दावेदार बीजेपी भी है, लेकिन इतने जबरदस्त मतदान क्या इरोम के हिस्से कुछ भी नहीं होगा - अगर दूसरे फेज में भी वोट प्रतिशत ऐसा ही रहता है तो.
इरोम का संघर्ष मणिपुर से AFSPA हटाने को लेकर है - और फिलहाल अगर किसी तरीके से सिर्फ अपनी सीट भी निकाल लेती हैं तो भी आगे की राह आसान नहीं होगी. हां, इबोबी को शिकस्त देने के बाद खुद उनका हौसला बुलंद जरूर होगा. साथ ही, उन सभी के बीच एक मजबूत मैसेज जरूर जाएगा जिन्होंने या जिनके चलते इरोम को घर परिवार से बेदखल कर दिया गया है.
नतीजा कुछ भी हो ये चुनाव इरोम को नया अनुभव और आगे की लड़ाई के लिए हौसला जरूर देगा, इतना तो तय है.
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