समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन एक मायने में बीजेपी के लिए फायदेमंद हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक तीर से दो निशाने साधने की जरूरत नहीं होती - क्योंकि दोनों एक ही टारगेट में फिट हो जाते हैं.
मोदी के ताबड़तोड़ हमलों से गठबंधन की 'यूपी के लड़के' मुहिम की धार भी अब उतनी तेज नहीं दिख रही है, जबकि मोदी स्कैम से लेकर विकास के नाम से एक के बाद एक नये जुमले गढ़ रहे हैं.
जुमले की काट जुमला
अखिलेश और मोदी के सीधे टकराव की एक वजह दोनों का तरक्कीपसंद होना भी है जो बात तो सबका साथ सबका विकास की करते हैं लेकिन हकीकत में वो बातें जुमलों से आगे शायद ही बढ़ पाती हों.
एक अरसे से अखिलेश यादव जब कभी भी भीड़ से मुखातिब हुए, 'अच्छे दिन...' पर कटाक्ष जरूर किया. फिर काले धन से लेकर नोटबंदी तक तमाम मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की.
बीच में चर्चा रही कि गठबंधन के लीड स्लोगन 'यूपी को ये साथ पसंद है' के अलावा 'यूपी के लड़के' बनाम 'बाहरी' के बीच लड़ाई की धारणा बनाने की कोशिश की जाये. इस मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी को बाहरी साबित करने का मकसद रहा जबकि मोदी यूपी की ही वाराणसी लोक सभा सीट से सांसद हैं.
बीच बीच में अखिलेश यादव ने रैलियों में लोगों से सवाल-जवाब करते हुए पूछा भी - पलायन किसने किया? अखिलेश का इशारा मोदी की ही तरफ था. मौके की नजाकत को भांपते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जुमले को जुमलों में ही उलझा देने की रणनीति अपनायी. जो पीके यानी प्रशांत किशोर फिलहाल कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं उनकी पहली सक्सेस स्टोरी मोदी ही हैं. यही वजह है कि मोदी भी पीके के हर घर-घात से पूरी तरह वाकिफ हैं.
मेरठ में स्कैम की बात तो अलीगढ़ में विकास की नई...
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन एक मायने में बीजेपी के लिए फायदेमंद हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक तीर से दो निशाने साधने की जरूरत नहीं होती - क्योंकि दोनों एक ही टारगेट में फिट हो जाते हैं.
मोदी के ताबड़तोड़ हमलों से गठबंधन की 'यूपी के लड़के' मुहिम की धार भी अब उतनी तेज नहीं दिख रही है, जबकि मोदी स्कैम से लेकर विकास के नाम से एक के बाद एक नये जुमले गढ़ रहे हैं.
जुमले की काट जुमला
अखिलेश और मोदी के सीधे टकराव की एक वजह दोनों का तरक्कीपसंद होना भी है जो बात तो सबका साथ सबका विकास की करते हैं लेकिन हकीकत में वो बातें जुमलों से आगे शायद ही बढ़ पाती हों.
एक अरसे से अखिलेश यादव जब कभी भी भीड़ से मुखातिब हुए, 'अच्छे दिन...' पर कटाक्ष जरूर किया. फिर काले धन से लेकर नोटबंदी तक तमाम मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की.
बीच में चर्चा रही कि गठबंधन के लीड स्लोगन 'यूपी को ये साथ पसंद है' के अलावा 'यूपी के लड़के' बनाम 'बाहरी' के बीच लड़ाई की धारणा बनाने की कोशिश की जाये. इस मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी को बाहरी साबित करने का मकसद रहा जबकि मोदी यूपी की ही वाराणसी लोक सभा सीट से सांसद हैं.
बीच बीच में अखिलेश यादव ने रैलियों में लोगों से सवाल-जवाब करते हुए पूछा भी - पलायन किसने किया? अखिलेश का इशारा मोदी की ही तरफ था. मौके की नजाकत को भांपते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जुमले को जुमलों में ही उलझा देने की रणनीति अपनायी. जो पीके यानी प्रशांत किशोर फिलहाल कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं उनकी पहली सक्सेस स्टोरी मोदी ही हैं. यही वजह है कि मोदी भी पीके के हर घर-घात से पूरी तरह वाकिफ हैं.
मेरठ में स्कैम की बात तो अलीगढ़ में विकास की नई परिभाषा गढ़ना भी मोदी की खास रणनीति रही. गठबंधन टीम अपनी मुहिम बीच में छोड़ कर मोदी के जुमलों का जवाब देने में जुट गयी.
जुमलों से सियासी दुश्मन को पटखनी तो दी जा सकती है, लेकिन हर बार चुनाव नहीं जीता जा सकता.
पश्चिमी बाधायें...
2013 के मुजफ्फरनगर दंगे का भूत समाजवादी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का अब तक पीछा नहीं छोड़ रहा है. कैराना में बीजेपी के पलायन की बात के जवाब में अखिलेश यादव ने मोदी के गुजरात से पलायन पर बगैर नाम लिये सवाल जरूर पूछा, लेकिन मुजफ्फरनगर पर तकरीबन खामोश ही हो गये. ये मुजफ्फरनगर दंगे ही थे कि वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और लोक सभा चुनाव में बीजेपी को भरपूर फायदा मिला जिसमें जाटों ने दिल खोल कर सपोर्ट किया. जिस जाट वोटों की बदौलत बीजेपी को 2014 में पश्चिम यूपी की सारी सीटें मिलीं - वो अब मन बदल चुका है. फिलहाल वो आरएलडी के साथ जाता दिख रहा है.
2014 में बीजेपी का साथ देने वाले जाटों का लगता है बीजेपी से अब मोहभंग हो चुका है. जाटों के इस कदर खफा होने की बड़ी वजहें भी हैं. वे जाटों के आरक्षण पर मोदी सरकार के रवैये से नाखुश तो थे ही हरियाणा में बीजेपी सरकार द्वारा जाट आंदोलन को कुचलना उन्हें काफी नागवार गुजरा. दिल्ली में आरएलडी नेता अजीत सिंह का घर खाली कराना तो उन्हें अखर ही गया.
पश्चिम यूपी की 140 सीटों पर 11 और 15 फरवरी को चुनाव होने हैं. 2012 में बीजेपी को इस इलाके से 21 सीटें मिली थीं. यहां सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी को 58, उसके बाद बीएसपी को 42 सीटें मिलीं. हां, अजित सिंह की आरएलडी को सिर्फ नौ सीटें ही मिल पाई थीं.
इस मुस्लिम बहुल इलाके का वोट भले ही समाजवादी गठबंधन और बीएसपी में बंटने जा रहा हो लेकिन आरएलडी के प्रति जाटों का रुझान बीजेपी की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है.
पूर्वी झंझटें
पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरब में भी बीजेपी के सामने झंझटों का पहाड़ खड़ा है. बीजेपी की सबसे बड़ी मुश्किल तो टिकट बंटवारे को लेकर कार्यकर्ताओं का असंतोष है. यूपी बीजेपी अध्यक्ष केशव मौर्या की कार के आगे लेट जाने से लेकर विरोध में पुतला जलाने से लेकर मुंडन कराने जैसी घटनाएं इसकी मिसाल हैं.
बीजेपी की सबसे ज्यादा मुश्किलें बढ़ाने वाला तो हिंदू युवा वाहिनी और शिव सेना का संयुक्त रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश की 150 सीटों पर मिल कर चुनाव लड़ने की घोषणा है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता शिव सेना के सिंबल पर चुनाव लड़ने जा रहे हैं जिसका मकसद बीजेपी को सबक सिखाना है. शिव सेना ने स्थानीय चुनावों में जहां बीजेपी से नाता तोड़ लिया है, वहीं हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता योगी आदित्यनाथ को बीजेपी का सीएम कैंडिडेट नहीं बनाये जाने से नाराज हैं. दरअसल, योगी आदित्यनाथ ही हिंदू युवा वाहिनी के संस्थापक और संरक्षक हैं. गोरखपुर और आस पास के इलाकों में हिंदू युवा वाहिनी का खासा असर है.
पश्चिम यूपी में आरएलडी सारी सीटें तो नहीं लेकिन कुछ तो जीत ही सकती है, लेकिन पूर्वी यूपी में शिव सेना और हिंदू युवा वाहिनी को एक भी सीट मिलना मुश्किल है. बावजूद इसके ये बीजेपी का खेल तो बिगाड़ ही सकते हैं.
सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर नोटबंदी तक बीजेपी ने जो मिला जुला असर अनुभव किया है, उसे आगे बढ़ा रहे हैं संघ के दो नेताओं मनमोहन वैद्य और चीफ मोहन भागवत के बयान. भागवत की तरह इस बार वैद्य ने आरक्षण खत्म करने की वकालत तो संघ प्रमुख ने फिर से बताया है कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं.
जिस तरह चुनावी घोषणा पत्र में राम मंदिर के मुद्दे पर बीजेपी 'कभी हां कभी ना' के बीच झूलती रही, उसी तरह वोटर नतीजों में उसे कहीं 'कहीं खुशी कहीं गम' का लॉलीपॉप न थमा दें. लोग पंचायत चुनावों में बीजेपी को ट्रेलर दिखा चुके हैं, पिक्चर तो अभी 2019 में पूरी होनी है.
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