क्या भारत में हिन्दी और संस्कृत का प्रयोग या हिन्दू होना अब अपराध की श्रेणी में माना जाएगा? संकेत तो कुछ इसी तरह के मिल रहे हैं. इसका एक ताजा उदाहरण सामने आया है. एक मानसिक रूप से विक्षिप्त इंसान ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना हिंदुत्व को बढ़ावा देती है. ये प्रार्थना देश और देश से बाहर चल रहे सभी केन्द्रीय विद्लायों में पिछले लगभग साठ दशक से प्रयोग में है. जब केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना हुई, उस वक्त जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे. अब यह प्रार्थना पूरी तरह असंवैधानिक बताई जा रही है.
राष्ट्रीय एकता पर बल
केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना 15 दिसम्बर 1963 को हुई थी. उस वक्त शिक्षा मंत्री महान शिक्षाविद् मोहम्मद करीम छागला थे. केन्द्रीय विद्यालयों में गायी जानेवाली प्रार्थना है- "असतो माऽ सद्गमयs, तमसो मा ज्योतिर्गमयऽ, मृत्योर्मामृतमगमयऽ." अर्थात् "(हमें) असत्य से सत्य की ओर ले चलो. अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो॥” इस प्रार्थना में हिन्दू या हिन्दुत्व कहां से आ गया है? यह समझ नहीं आता.
इतनी गंभीर और गहन विचार लिए प्रार्थना में मध्यप्रदेश के एक निवासी विनायक शाह जी को हिन्दुत्व दिखाई दे रहा है. मैंने इस लेख को लिखने से पहले केन्द्रीय विद्लायों में पढ़े कई पूर्व छात्रों और शिक्षकों से बात की. सबका कहना था कि उनके माता-पिता ने कभी भी इस प्रार्थना पर आपत्ति नहीं जताई या उनकी तथाकथित वैज्ञानिक सोच इससे बाधित नहीं हुई. ऐसा भी नहीं कि 1128(ग्यारह सौ अठाईस) केन्द्रीय विद्यालयों में से पढ़कर निकला कोई साईंटिस्ट, डॉक्टर, इंजीनियर, आईटी प्रोफेशनल या जर्नलिस्ट, आईएएस, आईपीएस, जज नहीं निकला जिसे प्रार्थना समझ में न आई हो?
फिर समझ नहीं आ रहा कि एकाएक यह मुद्दा क्यों उठाया गया? यदि किसी भी व्यक्ति विशेष को कोई आपत्ति है भी तो यह उसका निजी मामला है और वह चाहे तो अपने बच्चे को केन्द्रीय विद्यालय न...
क्या भारत में हिन्दी और संस्कृत का प्रयोग या हिन्दू होना अब अपराध की श्रेणी में माना जाएगा? संकेत तो कुछ इसी तरह के मिल रहे हैं. इसका एक ताजा उदाहरण सामने आया है. एक मानसिक रूप से विक्षिप्त इंसान ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना हिंदुत्व को बढ़ावा देती है. ये प्रार्थना देश और देश से बाहर चल रहे सभी केन्द्रीय विद्लायों में पिछले लगभग साठ दशक से प्रयोग में है. जब केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना हुई, उस वक्त जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे. अब यह प्रार्थना पूरी तरह असंवैधानिक बताई जा रही है.
राष्ट्रीय एकता पर बल
केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना 15 दिसम्बर 1963 को हुई थी. उस वक्त शिक्षा मंत्री महान शिक्षाविद् मोहम्मद करीम छागला थे. केन्द्रीय विद्यालयों में गायी जानेवाली प्रार्थना है- "असतो माऽ सद्गमयs, तमसो मा ज्योतिर्गमयऽ, मृत्योर्मामृतमगमयऽ." अर्थात् "(हमें) असत्य से सत्य की ओर ले चलो. अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो॥” इस प्रार्थना में हिन्दू या हिन्दुत्व कहां से आ गया है? यह समझ नहीं आता.
इतनी गंभीर और गहन विचार लिए प्रार्थना में मध्यप्रदेश के एक निवासी विनायक शाह जी को हिन्दुत्व दिखाई दे रहा है. मैंने इस लेख को लिखने से पहले केन्द्रीय विद्लायों में पढ़े कई पूर्व छात्रों और शिक्षकों से बात की. सबका कहना था कि उनके माता-पिता ने कभी भी इस प्रार्थना पर आपत्ति नहीं जताई या उनकी तथाकथित वैज्ञानिक सोच इससे बाधित नहीं हुई. ऐसा भी नहीं कि 1128(ग्यारह सौ अठाईस) केन्द्रीय विद्यालयों में से पढ़कर निकला कोई साईंटिस्ट, डॉक्टर, इंजीनियर, आईटी प्रोफेशनल या जर्नलिस्ट, आईएएस, आईपीएस, जज नहीं निकला जिसे प्रार्थना समझ में न आई हो?
फिर समझ नहीं आ रहा कि एकाएक यह मुद्दा क्यों उठाया गया? यदि किसी भी व्यक्ति विशेष को कोई आपत्ति है भी तो यह उसका निजी मामला है और वह चाहे तो अपने बच्चे को केन्द्रीय विद्यालय न भेजे. केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह पर एक ध्येय वाक्य है, “ततत्वं पूषण अपावृणु”. मैंने इस ध्येय वाक्य पर कुछ शोध किया. यह ध्येय वाक्य यजुवेद के ईशावास्योपनिषद के 15वें श्लोक से लिया गया है. यह पूरा श्लोक इस प्रकार है, “हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्यापिहितं मुखम. तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये..” इसका अर्थ है कि “हे सबका भरण पोषण करने वाले, परमेश्वर! सत्य स्वरुप हिरण्यमय (ज्योर्तिमय) पात्र जो ढका हुआ है, मुझे उस पात्र का ढक्कन उठाकर मुझे सत्य का दर्शन करा दीजिये.”
जिस संगठन का ध्येय वाक्य ही सत्य दर्शन पर आधारित हो, उसे हिन्दुत्वादी कहने का अर्थ है कि बाकी सभी असत्यवादी है?
केन्द्रीय विद्यालय की स्थापना के मूल में एक अहम विचार यह भी था कि यहां के बच्चों में राष्ट्रीय एकता और 'भारतीयता' की भावना का विकास हो. क्या नई या पुरानी प्रार्थनाएं दोनों विचारों के विरूद्ध खड़ी होती है? याचिकाकर्ता यह बताएंगे कि क्या पिछले 54 वर्षों में केन्द्रीय विद्यालयों में प्रतिवर्ष 12 लाख से ज्यादा पढ़ रहे कितने बच्चों ने हिंदी/संस्कृत प्रार्थना करके धर्म परिवर्तित कर लिया? क्या प्रार्थना हिंदी/संस्कृत मे न करवा के लैटिन/अरबी या इतालवी में करवाई जाए? क्या सर्वधर्म सम:भाव का अर्थ बहुमत को नीचा दिखाना ही है? सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्र सरकार और केन्द्रीय विद्यालयों को नोटिस जारी कर जवाब भी मांगा है.
एक प्रश्न यह भी पूछना है कि राम जन्मभूमि जैसे अतिमहत्वपूर्ण मामले को दशकों तक झूला झुलाने वाले सुप्रीम कोर्ट को सब काम छोड़कर इसी याचिका की सुनवाई का वक्त मिल गया? सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ये बड़ा गंभीर संवैधानिक मुद्दा है, जिस पर विचार जरूरी है. याचिकाकर्ता ने कहा है कि केन्द्रीय विद्यालय में जिस प्रार्थना को बच्चे गाते हैं, वो संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ है और इसे इजाजत नहीं दी जा सकती है. राज्यों के फंड से चलने वाले संस्थानों में किसी धर्म विशेष को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता.
सेक्यूलरिज़्म का ओवरडोज-
दरअसल ये सेक्युलरिज़्म के ओवरडोज का परिणाम है जो अंततः "...लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई" में परिवर्तित हो सकता है. हर एक चीज में मीन मेख निकालना कहां तक उचित माना जाएगा. देशभर में 1128 केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें एक जैसी यूनिफॉर्म और एक जैसा ही पाठ्यक्रम होता है. इस तरह से ये दुनिया की सबसे बड़ी स्कूल चेन बन जाती है. रोज 12 (बारह लाख) बच्चे यही प्रार्थना करते हैं. पिछले 54 वर्षों में करोड़ों छात्र केन्द्रीय विद्यालय से यही प्रार्थना करके निकले और देश और विदेशों में भी नाम कमा रहे हैं. वे भावनात्मक रूप से इस प्रार्थना से जुड़ें हुए हैं.
क्या याचिकाकर्ता ने करोड़ों नागरिकों की भावना पर ठेस नहीं पहुंचाया है? क्या उन पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? ये स्कूल पिछले 54 वर्षों से भी अधिक समय से चल रहे हैं. इन्होंने देश को एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं दी हैं. इसे शुरू करने के मूल में विचार ही यह था ताकि केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को विशेषकर सेना, रेलवे, अनुसंधानशालाओं आदि में कार्यरत कर्मियों की ट्रांसफर की स्थिति में नए शहर में जाने पर केन्द्रीय विद्यालय में दाखिला आसानी से मिल जाए.
अगला निशाना ध्येय वाक्य-
मानकर चलिए अब वह दिन भी आने वाला है, जब केन्द्रीय विद्यालय के ध्येय वाक्य- 'तत् त्वं पूषन् अपावृणु' (हे ईश्वर, आप ज्ञान पर छाए आवरण को कृपापूर्वक हटा दें) पर भी प्रशन चिन्ह लगेंगे. वेदों को भी असंवैधानिक कह दिया जाय तो आश्चर्य नहीं है. क्योंकि, यह ध्येय वाक्य संस्कृत में है, इसलिए इसमें भी धर्मनिरपेक्षता आड़े आएगी.
केन्द्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना में हिन्दुत्व देखना या इसका संविधान सम्मत न मान लेना और साल 2005 की मांग, राष्ट्रगान से सिंध शब्द को निकाल देना चाहिए, में कोई बहुत फर्क नहीं है. सिंध शब्द के स्थान पर राष्ट्रगान में कश्मीर को शामिल करने की मांग की गई थी. तर्क ये दिया गया था कि चूंकि सिंध अब भारत का हिस्सा नहीं रहा, तो इसे राष्ट्रगान में नहीं होना चाहिए. शायद ही संसार के किसी अन्य देश में राष्ट्रगान का इस तरह से अपमान होता हो, जैसा हमारे देश में होता आया है. राष्ट्रगान पर रोक लगाने से लेकर इसमें संशोधन करने के प्रयास लगातार चलते रहते हैं.
राष्ट्रगान पर रोक-
कुछ साल पहले इलाहाबाद से एक बेहद शर्मनाक मामला सामने आया था. वहां पर एमए कॉन्वेंट नामक स्कूल में राष्ट्र गान पर रोक थी. जब मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस ने स्कूल प्रबंधक जिया उल हक को गिरफ्तार कर लिया. क्या इस तरह का उदाहरण किसी दूसरे देश में मिलेगा? कतई नहीं. स्कूल में राष्ट्रगान बंद करने के पीछे प्रबंधक जिया उल हक का तर्क था कि राष्ट्रगान में “भारत भाग्य विधाता”शब्दों का गलत प्रयोग किया गया है. उन्हें इन शब्दों से घोर आपत्ति है. उनके अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोगों के भाग्य का विधाता भारत कैसे हो सकता है? यह इस्लाम के विरुद्ध है.
हमारे यहां पहले भी राष्ट्रगान में संशोधन की मांग उठती रही है. पर क्या राष्ट्रगान में संशोधन हो सकता है? क्या राष्ट्रगान में अधिनायक की जगह मंगल शब्द होना चाहिए? क्या राष्ट्रगान से सिंध शब्द के स्थान पर कोई और शब्द जोड़ा जाए? पहले भी सिंध शब्द को हटाने की मांग हुई थी. इसके पीछे कारण ये दिया गया कि चूंकि सिंध अब भारत का भाग नहीं है, तो इसे राष्ट्र गान से हटा देना चाहिए.
ऐसी बात क्यों की जाती है. अरबी लोग जब हिंदुस्तान आये तो सिन्धु नदी को पार कर आये. अरबी में 'स' को 'ह' बोलते हैं, इसलिए सिन्ध की जगह हिन्द कहकर उच्चारण किया. हिन्द की जगह सिंध कैसे नहीं होगा. साल 2005 में संजीव भटनागर नाम के एक शख्स ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी, इसमें सिंध का भारतीय प्रदेश में न होने के आधार पर जन-गण-मन से निकालने की मांग की गयी थी. इस याचिका को 13 मई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर.सी. लाखोटी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सिर्फ खारिज ही नहीं किया था, बल्कि संजीव भटनागर की याचिका को “छिछली और बचकानी मुकदमेबाजी” मानते हुए उन पर दस हजार रुपए का दंड भी लगाया था.
अब केन्द्रीय विद्यालयों की प्रार्थना में सिरे से कमियां निकाली जा रही है. चूंकि ये मामला न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए मैं अधिक न बोलते हुए इतना तो अवश्य ही कहना चाहूंगा कि देश में कुछ शक्तियां देश को खोखला करने की दिशा में संलग्न हैं. इन्हें कभी भी माफ नहीं किया जा सकता. जरूरत इस बात की है कि संविधान से “धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी” शब्दों को जो इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जोड़ी थीं, निकाल बाहर किया जाये.
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