राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार के रूप में नामांकित करने के बाद से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा की नजर 2019 के लोकसभा चुनावों पर है. और ये दांव भी उसे नजर में रखते हुए ही चला गया है. रामनाथ कोविंद, उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के देरपुर तहसील में एक छोटे से गांव से आते हैं. उनता संबंध एक किसान परिवार से है और दलित समुदाय से आते हैं. लेकिन फिर भी कोविंद किसी भी चुनाव को जीतने के सारे मसाले को पूरा करते हैं: किसान, दलित और उत्तर प्रदेश.
जेडी (यू) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष का हाथ छोड़कर बीजेपी के उम्मीदवार कोविंद को वोट देने का फैसला किया है. कांग्रेस, वामपंथ, तृणमूल कांग्रेस और राजद को छोड़कर बाकी सारे लोग इस लीक को ही पकड़कर चलेंगे. इसी बीच बीजेपी उत्तर-पूर्व, पश्चिम बंगाल और दक्षिण में अपने पैर जमाने की जुगत में लगी हुई है.
इसी क्रम में हिंदू ध्रुवीकरण भी एक सच्चाई है. इसके अलावा गरीब भाजपा के स्थाई वोटबैंक हैं. इसी कारण से कोविंद की पृष्ठभूमि भाजपा के लिए तुरूप का इक्का है. अगर ऊंची जाति वाले हिंदू, दलित, ओबीसी, किसान और गरीब आपके साथ हैं तो फिर कोई भी पार्टी चुनाव कैसे हार सकती है? इसका साफ सा जवाब है: आप कर सकते हैं, अगर लोगों का मोहभंग हो जाए तो.
अभी तक भाजपा इस क्षेत्र में फायदे में है. भाजपा से मोहभंग सिर्फ अपर मिडिल क्लास और मिडिल क्लास के लोगों का ही हुआ है. ये लोग रोजाना बढ़ते टैक्स को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, हमारे यहां नौकरशाही में अभी भी उतनी सुस्ती और घमंड भरा है, बीफ पर राज्य सरकारों का फैसला, पाकिस्तान और चीन पर एक असंगत नीति, गाय जागरूकता के मामले और एलजीबीटी अधिकारों के मामले में लगने वाले सेंसरशिप हर बात का फल मध्यम वर्ग को ही भुगतना पड़ रहा है.
ये मुद्दे ऐसे नहीं हैं जो भारत के गढ़ों में चुनाव जीतने या हारने अहम भूमिका निभाते हों. लेकिन अगर पीएम मोदी 2019 के चुनावों को जीतना चाहते हैं तो फिर उन्हें ओवर-कॉन्फिडेंस से बचने...
राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार के रूप में नामांकित करने के बाद से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा की नजर 2019 के लोकसभा चुनावों पर है. और ये दांव भी उसे नजर में रखते हुए ही चला गया है. रामनाथ कोविंद, उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के देरपुर तहसील में एक छोटे से गांव से आते हैं. उनता संबंध एक किसान परिवार से है और दलित समुदाय से आते हैं. लेकिन फिर भी कोविंद किसी भी चुनाव को जीतने के सारे मसाले को पूरा करते हैं: किसान, दलित और उत्तर प्रदेश.
जेडी (यू) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष का हाथ छोड़कर बीजेपी के उम्मीदवार कोविंद को वोट देने का फैसला किया है. कांग्रेस, वामपंथ, तृणमूल कांग्रेस और राजद को छोड़कर बाकी सारे लोग इस लीक को ही पकड़कर चलेंगे. इसी बीच बीजेपी उत्तर-पूर्व, पश्चिम बंगाल और दक्षिण में अपने पैर जमाने की जुगत में लगी हुई है.
इसी क्रम में हिंदू ध्रुवीकरण भी एक सच्चाई है. इसके अलावा गरीब भाजपा के स्थाई वोटबैंक हैं. इसी कारण से कोविंद की पृष्ठभूमि भाजपा के लिए तुरूप का इक्का है. अगर ऊंची जाति वाले हिंदू, दलित, ओबीसी, किसान और गरीब आपके साथ हैं तो फिर कोई भी पार्टी चुनाव कैसे हार सकती है? इसका साफ सा जवाब है: आप कर सकते हैं, अगर लोगों का मोहभंग हो जाए तो.
अभी तक भाजपा इस क्षेत्र में फायदे में है. भाजपा से मोहभंग सिर्फ अपर मिडिल क्लास और मिडिल क्लास के लोगों का ही हुआ है. ये लोग रोजाना बढ़ते टैक्स को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, हमारे यहां नौकरशाही में अभी भी उतनी सुस्ती और घमंड भरा है, बीफ पर राज्य सरकारों का फैसला, पाकिस्तान और चीन पर एक असंगत नीति, गाय जागरूकता के मामले और एलजीबीटी अधिकारों के मामले में लगने वाले सेंसरशिप हर बात का फल मध्यम वर्ग को ही भुगतना पड़ रहा है.
ये मुद्दे ऐसे नहीं हैं जो भारत के गढ़ों में चुनाव जीतने या हारने अहम भूमिका निभाते हों. लेकिन अगर पीएम मोदी 2019 के चुनावों को जीतना चाहते हैं तो फिर उन्हें ओवर-कॉन्फिडेंस से बचने की जरूरत है.
सत्ता में तीन साल पूरे करने और 281 सांसदों के साथ, बीजेपी में एक चिंताजनक रुझान दिख रहा है: पार्टी के सांसदों के दुर्व्यवहार और कुछ बोल देने की प्रवृति के प्रति जहां पार्टी को दृढ़ होना चाहिए, वहां वो ढीली पड़ रही है; जहां इसे थोड़ा सॉफ्ट होना चाहिए वहां ये कठोर बन रहे हैं- जैसे की टैक्स लॉ, बीफ पर प्रतिबंध, स्कूल की किताबों में विज्ञान के बदले पौराणिक कहानियों को बढ़ावा देना.
पीएम मोदी ने पदभार संभालते समय कहा था कि वो प्रधान मंत्री नहीं बल्कि प्रधान सेवक होंगे. इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि- सांसद वीआईपी नहीं हैं. वे लोगों के सेवक हैं. लेकिन पीएम के साथी सांसद अपने ही नेता की बात पर ध्यान नहीं दे रहे हैं. वे सामंतों की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं.
पिछले दिनों दो सांसदों शिवसेना के रवींद्र गायकवाड़ और टीडीपी के दिवाकर रेड्डी ने विमान चालक दल के साथ जिस तरह का अपमानजनक व्यवहार किया है उससे साफ जाहिर होता है कि सांसदों ने अपनी भूमिका को किस हद तक गलत समझा है. आम जनता तो विमान में सफर करने के पैसे देती है लेकिन एक सांसद को एयरोप्लेन में सफर करने के पैसे नहीं देने होते. सांसदों को एमपी के भत्तों के रूप में फ्री टिकट मिलता है.
भारतीय सांसद दुनिया में सबसे कम काम करने वाले और सबसे ज्यादा बिगड़ैल लोगों में से हैं. उदाहरण के लिए ब्रिटिश सांसदों को अपने लिए घर खुद ढूंढना पड़ता है साथ ही इसका सारा खर्चा भी उन्हें खुद उठाना पड़ता है. वहीं अधिकांश भारतीय सांसदों को लुटियन जोन में दो एकड़ के बंगले मिलते हैं जिसका बाजार में किराया हर महीने लगभग 15 लाख से 20 लाख रुपये के बीच होता है.
एक अंदाज के मुताबिक लोकसभा और राज्य सभा के कुल 800 सांसदों में से 500 को लुटियन जोन में रहने के लिए बंगले मिलते हैं. इन लोगों के घरों का बाजार रेट का सामुहिक किराया एक महीने का 100 करोड़ रुपये (महीने में 500 सांसदों गुणा 20 लाख रुपये का किराया) की राशि होगी. यह रकम 1200 करोड़ रुपये सलाना बनती है जो देश के कर दाताओं के पैसे से भरा जाता है.
अगर सांसदों को मिलने वाले बाकी सारे भत्तों जैसे- मुफ्त सुरक्षा गार्ड, मुफ्त टेलीफोन, मुफ्त बिजली, मुफ्त कार, मुफ्त पेट्रोल, मुफ्त एयरलाइन यात्रा, मुफ्त सचिवालय, घरेलू स्टाफ़, मुफ्त घर को भी जोड़ लें तो करदाताओं के माथे पर थोपे जाने वाली ये रकम कहीं ज्यादा हो जाती है. बदले में हमें क्या मिलता है? अगर आप किसी एयरलाइन में यात्रा कर रहें हैं और बदनसीबी से आपका सह-यात्री एक सांसद है तो वो एयरपोर्ट देर से पहुंचते हैं, फ्लाइट देर करा सकते हैं, एयरलाइन के खाने के बारे में शिकायत कर सकते हैं और (जैसा की शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़ ने किया) एक बुजुर्ग एयरलाइन कर्मचारी पर हमला कर सकते हैं.
आखिर इसका समाधान क्या है? असल में ये बहुत ही आसान है. बदतमीजी करने वाले सांसद को उसकी पार्टी की तरफ से सजा दी जानी चाहिए. शिवसेना और टीडीपी ऐसा कुछ करेंगे वो दिन कभी नहीं आएगा.
इसलिए यह भाजपा पर निर्भर है कि अब वो इस रूटीन को तोड़े. लेकिन बीजेपी भी ऐसा नहीं करने वाली क्योंकि इन्हें चुनाव जीतने से फुरसत कहां है. तभी तो उन्होंने रवींद्र गायकवाड़ के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की. क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि शिवसेना महाराष्ट्र सरकार से बाहर निकल जाए. ये दिवाकर रेड्डी के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं करेंगे क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव से पहले टीडीपी को अपने खिलाफ वो नहीं करना चाहेंगे.
दोनों ही डर निराधार हैं. भाजपा को शिवसेना के वॉकआउट के फैसले का स्वागत करना चाहिए. भाजपा महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव अपने दम पर जीत सकती है और पार्टी को शिवसेना जैसी बोझ पार्टी से छुटकारा भी मिल सकता है. इसी तरह भाजपा के पास कोविंद को राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने के लिए जरुरी वोटों में 60 प्रतिशत वोट पहले से ही हैं. ऐसे में एक टीडीपी के विरोध में हो जाने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला.
दो एनडीए सांसदों की भारी गलती पर किसी तरह का एक्शन नहीं लेकर भाजपा ने एक ऐसी पार्टी का इंप्रेशन दिया है जो सिद्धांत के आगे सत्ता को रखता है. उनका मुख्य उद्देश्य चुनाव जीतना ही है.
(DailyO से साभार)
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