'बेचारे आनंद मोहन काफी समय तक जेल में रहे. वे बलि का बकरा बनाए गए थे. उन्होंने और उनके परिवार ने बहुत दुख भोगा है...' ये करुणा भरे शब्द हैं बिहार से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह के. अब जब विपक्ष में रहते हुए गिरिराज ही आनंद मोहन के बारे में ऐसे उद्गार पेश कर रहे हैं तो उसे जेल से रिहा कराने पर आमादा जदयू और राजद नेतृत्व के बारे में क्या कहें. लेकिन, ख्याल तो मारे गए डीएम कृष्णैया की पत्नी उमा देवी का आता है, जो बिहार सरकार से हाथ जोड़कर गुहार लगा रही है कि आनंद मोहन को रिहा करने का अनर्थ मत कीजिए. यदि आनंद मोहन को रिहा किया गया तो सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का सरकारों से भरोसा उठ जाएगा. उमा देवी के सुर में सुर मिलाकर आईएएस एसोसिएशन भी नीतीश कुमार सरकार के फैसले पर कड़ा ऐतराज जता चुका है.
कहते हैं राजनीति में कोई अस्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. समय और परिस्थिति के आधार पर दोस्त और दुश्मन तय होते हैं. इसके लिए यदि विचारधारा से भी समझौता करना पड़े, तो ऐसा करने से राजनीतिक दल परहेज नहीं करते हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण इस समय बिहार के बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह हैं, जिनके लिए बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव करके रिहाई का रास्ता साफ कर दिया है. एक वक्त था जब आनंद मोहन सिंह राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव को फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे. सही मायने में लालू की राजनीति का विरोध करके ही उन्होंने अपनी सियासत चमकाई थी. दूसरी तरफ जिस नीतीश कुमार ने उनके लिए जेल के नियम बदले हैं, उन्होंने पहले इसी नियम को बनाकर उनकी रिहाई का रास्ता रोका हुआ था. लेकिन आज वक्त बदलने के साथ ही दोनों उनके हितैषी बन चुके हैं.
इससे भी दिलचस्प बात ये है कि बिहार के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी आनंद मोहन की रिहाई का स्वागत करने पर मजबूर है. आनंद मोहन को बेचारा बताते हुए सारा दोष नीतीश सरकार के माथे मढने की कोशिश कर रही है. भाजपा विधान मंडल दल के नेता विजय सिन्हा का बयान सुनिए, सब समझ में आ...
'बेचारे आनंद मोहन काफी समय तक जेल में रहे. वे बलि का बकरा बनाए गए थे. उन्होंने और उनके परिवार ने बहुत दुख भोगा है...' ये करुणा भरे शब्द हैं बिहार से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह के. अब जब विपक्ष में रहते हुए गिरिराज ही आनंद मोहन के बारे में ऐसे उद्गार पेश कर रहे हैं तो उसे जेल से रिहा कराने पर आमादा जदयू और राजद नेतृत्व के बारे में क्या कहें. लेकिन, ख्याल तो मारे गए डीएम कृष्णैया की पत्नी उमा देवी का आता है, जो बिहार सरकार से हाथ जोड़कर गुहार लगा रही है कि आनंद मोहन को रिहा करने का अनर्थ मत कीजिए. यदि आनंद मोहन को रिहा किया गया तो सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का सरकारों से भरोसा उठ जाएगा. उमा देवी के सुर में सुर मिलाकर आईएएस एसोसिएशन भी नीतीश कुमार सरकार के फैसले पर कड़ा ऐतराज जता चुका है.
कहते हैं राजनीति में कोई अस्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. समय और परिस्थिति के आधार पर दोस्त और दुश्मन तय होते हैं. इसके लिए यदि विचारधारा से भी समझौता करना पड़े, तो ऐसा करने से राजनीतिक दल परहेज नहीं करते हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण इस समय बिहार के बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह हैं, जिनके लिए बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव करके रिहाई का रास्ता साफ कर दिया है. एक वक्त था जब आनंद मोहन सिंह राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव को फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे. सही मायने में लालू की राजनीति का विरोध करके ही उन्होंने अपनी सियासत चमकाई थी. दूसरी तरफ जिस नीतीश कुमार ने उनके लिए जेल के नियम बदले हैं, उन्होंने पहले इसी नियम को बनाकर उनकी रिहाई का रास्ता रोका हुआ था. लेकिन आज वक्त बदलने के साथ ही दोनों उनके हितैषी बन चुके हैं.
इससे भी दिलचस्प बात ये है कि बिहार के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी आनंद मोहन की रिहाई का स्वागत करने पर मजबूर है. आनंद मोहन को बेचारा बताते हुए सारा दोष नीतीश सरकार के माथे मढने की कोशिश कर रही है. भाजपा विधान मंडल दल के नेता विजय सिन्हा का बयान सुनिए, सब समझ में आ जाएगा. वो कहते हैं, ''सरकार का कदम दुर्भाग्यपूर्ण है. आनंद मोहन को राजनीतिक कारणों से तत्कालीन सरकार द्वारा फंसाया गया था, उनकी रिहाई स्वागत योग्य है. सरकार को उनसे मांफी मांगनी चाहिए, लेकिन उनकी आड़ में अन्य 26 अपराधियों की रिहाई सूची में नाम देखकर बिहार के लोग स्तब्ध हैं. साल 2016 में जेल मेन्युअल में संशोधन आनंद मोहन पर बदले की भावना से कार्रवाई करने के लिए की गई थी. उसी संशोधन का परिणाम है कि पूरी सजा काटने के बाद भी उनकी रिहाई नहीं हो पाई थी.''
भाजपा नीतीश कुमार पर बिहार में अपराधियों के हौसले को बढ़ावा देने का आरोप लगाती है. लोकसेवकों की जान को बढ़ते खतरे की चिंता जताती है, लेकिन आनंद मोहन की रिहाई पर सवाल नहीं उठाती. हालांकि, आईएएस एसोसिएशन ने नीतीश कुमार के इस फैसले का विरोध करते हुए उसे वापस लेने की मांग की है. पटना के पूर्व आईपीएस हाईकोर्ट में अर्जी भी डालने वाले हैं, क्योंकि उनका मानना है कि नीतीश सरकार के इस फैसले से सरकारी कर्मियों के हौसले टूटेंगे और बिहार में अपराधियों के हौसले बढ़ेंगे. खैर, यहां बड़ा सवाल ये है कि क्या बिहार में 80 लाख से ज्यादा राजपूत वोट बैंक को कब्जे में करने के लिए नीतीश आनंद मोहन को रिहा कर रहे हैं? क्या राजपूत वोटों के लालच में ही बीजेपी आनंद मोहन की रिहाई का विरोध नहीं कर रही है? क्या ऐसा करके नीतीश कुमार बिहार में राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं?
बिहार में 1924 के जेल मैनुअल को 88 साल बाद 12 दिसंबर 2012 में नीतीश कुमार ने बदला था. इस मैनुअल की धारा 481(1)-क में आखिरी लाइन थी कि ड्यूटी पर सरकारी सेवक की हत्या जैसे जघन्य मामले में आजीवन कैद की सजा पा रहे कैदी 433-ए सीआरपीसी के तहत तभी रिहा किए जाएंगे जब वो 20 साल की सजा पूरी कर लेंगे.
कौन है आनंद मोहन सिंह?
उपरोक्त सवालों के जवाब जानने से पहले आइए ये जान लेते हैं कि आखिर आनंद मोहन सिंह कौन है, जिनकी बिहार की राजनीति में अचानक इतनी अहमियत बढ़ गई है. जो पिछले दो दशक से हाशिए पर रहकर जेल में तन्हा जिंदगी जी रहे थे. बता दें कि आनंद मोहन को उत्तरी बिहार के कोसी क्षेत्र का बाहुबली नेता माना जाता है. उनका जन्म सहरसा जिले के पंचगछिया गांव में एक तोमर राजपूत परिवार में हुआ था. उनके दादा राम बहादुर सिंह तोमर स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं. इलाके में उनके परिवार की तूती बोलती थी. कॉलेज में जाने के बाद उनकी पहचान एक दबंग छात्र के रूप में होने लगी थी. धीरे-धीरे कॉलेज की राजनीति में सक्रियता भी बढ़ती गई. इसी बीच साल 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण देश में संपूर्ण क्रांति आंदोलन कर रहे थे. आनंद उनकी समाजवादी सोच से बहुत प्रभावित थे. वो उस आंदोलन का हिस्सा बन गए.
इसकी वजह से बीच में ही कॉलेज छोड़कर पूरी तरह सियासत में कदम रख दिया. जयप्रकाश नारायण के साथ राजनीति में सक्रिय हो गए. 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगने के बाद आनंद मोहन को जेल भेज दिया गया. वो करीब दो साल तक जेल में रहे. वापस लौटने के बाद समाजवादी नेता परमेश्वर कुंवर के संपर्क में आए. उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्हें अपना राजनीतिक गुरू बना लिया. ये वही समय था जब जेपी आंदोलन से निकले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में लगे हुए थे. बिहार में जाति की राजनीति शुरू हो चुकी थी. लालू ने खुद को यादवों, पिछड़ों और मुस्लिमों का नेता घोषित कर दिया था. उस वक्त मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ था, लेकिन 1989 में हुए भागलपुर दंगों में लालू के समर्थन की वजह से मुस्लिम उनकी तरफ चले गए. लालू अपने चुटीले अंदाज की वजह से नौजवानों में भी लोकप्रिय थे.
90 के दशक में आनंद मोहन ने समझ लिया कि यदि बिहार की राजनीति में जमे रहना है तो जाति की राजनीति करनी होगी. इसके साथ ही बाहुबल भी हासिल करना होगा. इसके बाद उन्होंने अगड़ों की राजनीति शुरू कर दी. इसमें राजपूत और भूमिहार जाति को विशेष रूप से टारगेट किया. साल 1990 में जनता दल के टिकट पर महिषी विधानसभा सीट से चुनाव लड़े. इसमें उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार लहतान चौधरी को 62 हजार वोटों से हरा दिया. इसी वक्त मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो गईं. इसमें पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव था. इसका जनता दल ने समर्थन कर दिया, जो कि आनंद मोहन को नागवार गुजरा. क्योंकि वो तो आगड़ों की राजनीति कर रहे थे. उन्होंने आरक्षण का विरोध किया और जनता दल छोड़कर अपनी नई पार्टी बना ली. इसका नाम 'बिहार पीपुल्स पार्टी' था. इसके बाद समता दल से मिल गए.
नीतीश सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश के बहाने से 2012 के जेल मैनुअल में से काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या वाले शब्दों को विलोपित किये जाने का आदेश निकाल दिया. इसके साथ ही आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता साफ हो गया क्योंकि वो 16 साल से जेल में हैं.
डीएम हत्याकांड ने बदली सियासत
साल 1994 की बात है. आनंद मोहन ने अपनी पार्टी से मुजफ्फरपुर के गैंगस्टर छोटन शुक्ला को विधानसभा चुनाव के लिए टिकट दिया था. उस समय छोटन शुक्ला जीत के प्रबल दावेदार माने जा रहे थे. बिहार में लालू यादव की सरकार थी. अचानक एक दिन पुलिस की वर्दी में आए कुछ लोगों ने छोटन शुक्ला पर गोलियों की बौछार कर दी. इस हत्याकांड ने आनंद मोहन को अंदर से झकझोर दिया, क्योंकि छोटन उनका अजीज दोस्त भी हुआ करता था. छोटन के दाह संस्कार वाले दिन भारी संख्या में भीड़ जुटी थी. सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी हो रही थी. लोगों का गुस्सा उफान पर था. उसी वक्त गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया अपनी सरकारी गाड़ी से किसी मीटिंग से वापस लौट रहे थे. नीली बत्ती लगी कार को देख भीड़ आगबबूला हो गई. कहा जाता है कि मुजफ्फरपुर में आनंद मोहन की अगुवाई में भीड़ ने डीएम जी कृष्णैया को पीट-पीट कर मार दिया.
इस हत्याकांड में आनंद मोहन की पत्नी लवली सिंह सहित दो दर्जन लोगों का नाम आरोपित था. लेकिन कोर्ट ने बाकी आरोपियों को बरी करते हुए साल 2007 में आनंद मोहन को सजा-ए-मौत सुना दी. देश में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी बाहुबली नेता को कानून मौत की सजा मिली थी. वैसे तो अतीक अहमद जैसे अपराधियों को बिना कानून के ही मौत दे दी गई, लेकिन भारत जैसे लोकतंत्र में ऐसे कृत्यों को भी अपराध की श्रेणी में रखा जाता है. आनंद मोहन की तरफ से साल 2008 में पटना हाईकोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील की गई. इसके बाद हाई कोर्ट ने उनकी मौत की सजा को सश्रम आजीवन कारावास में बदल दिया. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था. इसके बाद से वो जेल में सलाखों की पीछे जी रहे थे. लेकिन सूबे में जेडीयू और आरजेडी की सरकार बनने के बाद उनको विशेष कृपा प्राप्त होती रही. वो पैरोल पर रिहा होते रहे.
जेल में रहते हुए आनंद मोहन ने 'पर्वत पुरुष दशरथ' नामक कहानी लिखी है. उनकी दो पुस्तकें 'कैद में आजाद कलम' और 'स्वाधीन अभिव्यक्ति' भी प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें से एक पुस्तक को संसद के ग्रंथालय में भी जगह दी गई है.
आनंद मोहन का राजनीतिक वजूद
अब आते उस सवाल पर कि आनंद मोहन सिंह आज सभी राजनीतिक दलों के लिए इतने अहम क्यों हो गए. इसके पीछे सबसे बड़ी चीज वोट की राजनीति है. बिहार में इस वक्त जाति जनगणना हो रही है. सूबे की राजनीति में जाति का क्या महत्व है, ये सभी जानते हैं. नीतीश कुमार बीजेपी से अलग होने के बाद अगड़ा वोट पहले ही गवां चुके हैं. आरजेडी के साथ होने की वजह से यादव, मुस्लिम के साथ कुछ नीचली जातियों का वोट उनके पास है, लेकिन स्वर्णों के वोट के लिए उनको एक चेहरे की तलाश थी. आनंद मोहन राजपूतों और भूमिहारों के लिए रॉबिनहुड माने जाते रहे हैं. शुरू से ही उन्होंने अगड़ों की राजनीति की है. ऐसे में यदि वो नीतीश-लालू के पाले में जाते हैं, तो निश्चित रूप से इसका राजनीतिक फायदा दोनों दलों को होगा. आगामी लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के लिए अभी से सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी गोटी फिट करने में लगे हुए हैं.
यदि आंकडो़ं की बात करे तो बिहार में राजपूतों की आबादी 8 फीसदी के करीब है. सूबे में करीब 35 विधानसभा सीटों और 8 लोकसभा सीटों पर राजपूत जीत या हार में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में कुल 28 राजपूत विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. इनमें बीजेपी से 15, जेडीयू से 2, आरजेडी से 7, कांग्रेस से 1, वीआईपी से 2 और 1 निर्दलीय है. इसके साथ ही सूबे में सवर्ण समुदाय की आबादी करीब 18 फीसदी है, जिसमें सबसे ज्यादा भूमिहार जाति के लोग हैं. यहां भूमिहार 6, तो ब्राह्मण 5.5 फीसदी के आसपास हैं. मोदी के सत्ता में आने के बाद भूमिहार और ब्राह्मण बीजेपी के वोटर बन गए हैं. लेकिन राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आनंद मोहन सिंह की वजह से ये वोट बैंक बीजेपी से शिफ्ट भी हो सकता है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश-तेजस्वी ने जो राजनीतिक दांव चला है, उसका परिणाम का क्या होता है.
आनंद मोहन का राजनीतिक करियर
1990- सहरसा जिले के महिषी विधानसभा सीट से पहली बार विधायक चुने गए.
1996- शिवहर लोकसभा सीट से समता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर सांसद बने.
1998- शिवहर लोकसभा सीट से राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते.
1999- शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े लेकिन हार गए.
2004- शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े लेकिन हार गए.
बीजेपी से नाता तोड़ने के बाद नीतीश कुमार राजपूत वोट बैंक को अपने पाले में करने के लिए नियम कानून, सुशासन, मर्यादा, दलित न्याय, नैतिकता सबकी परवाह किये बिना आनंद मोहन सिंह को रिहा करा दिया है.
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