नोटबंदी के सरकारी फैसले को लेकर 50 दिनों की तो समय सीमा जो जनता के सामने रखी गई थी, उसका काउंटडाउन शुरू हो चुका है. एक तरफ विश्व नए साल की तैयारियों में जुटा है और इधर भारत एक नई उम्मीदों के भरोसे नई शुरूआत का सपना संजोए बैठा है. उम्मीद है कि नोटबंदी से पैदा हुए हालात सुधरेंगे, बैंकों के बाहर कतारें कम होंगी, एटीएम फिर से पैसे देने में समर्थ होंगे और देश की अर्थव्यवस्था डिजीटल इकॉनमी की तरफ बढ़ेगा. हालांकि इसमें कई पेंच भी हैं और चुनौतियां भी, पर यह भी सच है कि उम्मीद संजोने या सपने देखने पर फिलहाल कोई टैक्स नहीं है.
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नए साल में नोटबंदी से पैदा हुए हालात सुधरने की उम्मीद |
इस फैसले की राजनीतिक और आर्थिक समीक्षा जारी है. इस बीच सरकार ने 8 नवंबर के लिए अपने फैसले में लगभग 60 बार संशोधन किया है और यह जोड़-घटाव आने वाले दिनों में तेज होने वाला है. आर्थिक तौर पर देखें तो दो बातें स्पष्ट हैं. फैसले को लेकर जो आरंभिक उत्साह देखा गया था, समय बीतने के साथ इसमें थोड़ी कमी आई है. फैसले के बाद पहली सैलरी का महीना खत्म होने होने को है और इसमें कई उथल-पुथल देखने को मिली. लोगों ने देखा कि किस तरह बड़े पैमाने पर बैंक, जो शुरू में मेहनत करते दिखे, बड़े घोटाले का केंद्र बन गए. लोग कतारों में परेशान होते रहे और तमाम बड़े शहरों से बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से करीब 100 करोड़ बाहर निकल गए, अलग-अलग छापों में अब तक 90 करोड़ रूपए जब्त हो चुके हैं. आयकर विभाग के आंकड़ों को देखें तो करीब 3,200 करोड़ का अज्ञात आय का भी भंडाफोड़ हो चुका है.
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लोगों ने यह भी देखा कि किस तरह बाजार के शातिर खिलाड़ियों ने रातोंरात 1100 से ज्यादा फर्जी कंपनियां खोलकर, बैंक खाते खोलकर काले को सफेद करने का खेल खेला. यह भी खेल देखने को मिला कि किस तरह सोने के कारोबारियों ने ड्यूटी फ्री सोने के आयात के नाम पर 150 करोड़ का सोना दिल्ली के बाजार में बेचा. रोजाना छापे चल रहे हैं, करेंसी पकड़ी जा रही हैं, लोगों की धरपकड़ चल रही है. दूसरी तरफ, फैक्ट्रियों में मजदूरों की छंटनी की भी खबरें आ रही हैं और सरकार जितना मानकर चल रही थी, स्थिति उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. लोग देख रहे हैं कि कैसे आयकर छापे में तमिलनाडु के चीफ सेक्रेटरी पी. रामामोहन्ना राव के यहां छापे में 188 करोड़ नकद और 171 किलो सोना निकल रहा है. दिल्ली में बिजनेसमैन रोहित टंडन के छापे के बाद जो लिंक सामने आ रहे थे, वह कड़ी शेखर रेड्डी से होते हुए पश्चिम बंगाल के बिजनेसमैन पारसमल लोढ़ा तक पहुंच चुकी है और गिरफ्तारियां जारी हैं.
दूसरी तरफ, फैक्ट्रियों में मजदूरों की छंटनी की भी खबरें आ रही हैं और सरकार जितना मान कर चल रही थी, स्थिति उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. फैक्ट्रियों में उत्पादन घटा है, नई करेंसी की समस्या का सीधा असर यह देखने को मिल रहा है कि या तो मजदूरों और स्टाफ को पुराने 500 और 1000 की करेंसी नोट में सैलरी लेने को बाध्य किया जा रहा है या फिर उन्हें स्थिति सुधरने तक घर का रास्ता दिखाया जा रहा है. दिल्ली सरकार के अपने अनुमान के मुताबिक दिल्ली के छह बड़े इंडस्ट्रियल यूनिट में करीब 40 लाख लोग काम करते हैं और पिछले एक महीने के दौरान करीब 5 लाख मजदूरों का पलायन हो चुका है. कमोवेश यही स्थिति या रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के कई शहरों से मिल रही हैं, जहां कहीं न कहीं उद्घोग धंधे फल-फूल रहे हैं. कैश की कमी की वजह से मांग कम हुई है, व्यापारी डिजिटल मोड में जाने से हिचक रहे हैं, लिहाजा उत्पादन और सप्लाई दोनों प्रभावित हुई हैं. बुवाई के सीजन में खाद-पानी की खरीद को लेकर किसानों के सामने अपनी समस्याएं हैं.
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मजदूरों और स्टाफ को पुराने नोटों में सैलरी लेने को बाध्य किया जा रहा है या फिर उन्हें घर का रास्ता दिखाया जा रहा है |
बहस इस बात को लेकर भी हो रही है कि जितना काले धन का आंकड़ा सरकार के पास था, क्या वह पैसा वापस आया. जो आंकड़े बीच में आए, उसके मुताबिक करीब साढ़े 15 करोड़ पुरानी करेंसी पहले से बाजार में था, जिसमें से करीब साढ़े 13 करोड़ पहले से बैंकों में जमा हो चुके हैं. सवाल पूछा जा रहा है कि जब सारी पुरानी अनुमानित करेंसी वापस आ गई तो फिर काला धन कहां गया. हालांकि सरकार आंकड़ों को लेकर अभी आश्वस्त नहीं है और तर्क दिया जा रहा है कि पुरानी करेंसी को जमा करने को लेकर जो आंकड़े आ रहे हैं, उनमें काफी डुप्लीकेसी हो रही है, लिहाजा इन आंकड़ों को सटीक नहीं माना जा सकता.
शायद यही सब खबरें आईं, जिसके आधार पर राजनीतिक लड़ाई लगातार तीखी होती जा रही है. अब चूंकि पांच राज्यों के चुनाव सामने हैं, लिहाजा यह लड़ाई और तीखी और आक्रामक होने के आसार हैं. बीजेपी को लगता है कि जनता मोदी जी के फैसले के साथ है और सबूत के तौर पर पार्टी चंडीगढ़ के नगर निगम चुनाव, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के निकाय चुनावों के परिणाम को सामने रख रही है. हालांकि ये स्थानीय निकायों के चुनाव थे, लिहाजा इस आधार पर नोटबंदी के पक्ष में मुहर लगने का दावा थोड़ी जल्दबाजी होगी. विधानसभा चुनावों के मुद्दे व माहौल अलग होने वाले हैं, पर यह तय है कि नोटबंदी मुद्दा बनने वाला है. पर कांग्रेस की रणनीति कितनी कारगर होगी इसे लेकर भी सवाल सिर्फ बाहर से नहीं, बल्कि पार्टी के अंदर से भी उठने लगने हैं. विरोध का सुर लगाते लगाते राग पार्टी कब बेसुरी होने लगी, इसका अहसास शायद पार्टी को नहीं हो पा रहा. प्रधानमंत्री के खिलाफ बुलेटप्रूफ सबूत होने का दावा करने वाले राहुल गांधी जब मेहसाना से बिड़ला-सहारा डायरी के आरोप दोहराए, तो ऐसा ही शस्त्र साबित हुआ जो हमले से पहले ही अपने धार खो चुके थे. प्रशांत भूषण पहले ही इन डायरियों के पन्नों को लेकर सुप्रीम कोर्ट जा चुके हैं. जिन सहारा के 11 पन्नों की चर्चा कोर्ट में की गई, उनमें दो पन्नें हाथ से लिखे हैं और शेष प्रिटेंड कापी हैं. इन कागजों में लगभग हर पार्टी के नेताओं के नाम हैं, जिनमें बीजेपी, कांग्रेस, टीएमसी, बीजेडी, शिवसेना, एलजेपी, सपा, राष्ट्रीय जनता दल, एनसीपी तक के नाम हैं. मजे की बात यह है कि इन कागजों पर कांग्रेस के ही तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के नाम और कुछ पूर्व कांग्रेसी केंद्रीय मंत्रियों के नाम शामिल हैं. लिहाज़ा दिक्कत यह है कि इन कागजों के आधार पर अगर पार्टी ने लड़ाई आगे बढ़ाने का मन बनाया तो मुसीबत पार्टी के लिए ज़्यादा खड़ी हो सकती है.
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अदालत में जब मामले की सुनवाई शुरू हुई, तब बेंच का मानना था कि इन पन्नों को कैसे सबूत मान लिया जाए. बेंच की दलील थी कि ये कंप्यूटराइज्ड प्रिंट आउट हैं, जो किसी डाटा इंट्री आपरेटर का काम हो सकता है और इसे सबूत के तौर पर कतई नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने प्रशांत भूषण को साफ किया या तो कोई ठोस सबूत पेश किया जाए या फिर भूषण अपनी पीटिशन वापस लें. प्रशांत भूषण जब 16 दिसंबर को फिर से बेंच के सामने पेश हुए, तो फिर वही दलील दी, जिसे कोर्ट पहले ही ठुकरा चुका था. अब कोर्ट ने प्रशांत भूषण को अंतिम मौका दिया है. दरअसल, देश इन डायरियों का खेल को देख चुकी है. जैन हवाला डायरियों का सच कैसे एक-एक कर अदालतों में ध्वस्त हुए, देश ने देखा है.
अब बीजेपी पलटकर सवाल पूछ रही है कि माल्या, अनिल अंबानी, रूइया को कांग्रेस शासन के दौरान करोड़ों के लोन दिए गए, रिकवरी तब क्यों नहीं हुए और सवाल अब क्यों पूछे जा रहे हैं. जब आयकर विभाग के कागजात अक्टूबर 2013 से पड़े हुए थे, कांग्रेस अब उसपर हंगामा क्यों करना चाह रही है. कागजों पर पड़ताल क्यों नहीं हुई, अब मांग के पीछे राजनीति क्यों शुरू हुई, वह भी तब, जब केजरीवाल पहले ही इसे मुद्दा बना चुके थे. इस राजनीतिक और परसेप्शन की लड़ाई में भी राहुल कहीं पीछे रह गए, अब राजनीतिक तौर पर कितना लाभ मिलेगा, इसके देखना शेष है. पर सच यह है कि बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में पार्टी अपने बल पर लगभग उम्मीद छोड़ चुकी है. इसका एक नमूना तब भी देखने को मिला कि गुरूवार को बहराइच में राहुल रैली कर रहे थे और पार्टी की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार शीला दीक्षित दिल्ली में अपने निवास पर विश्राम कर रही थीं. पार्टी किसी भी हालत में सपा से गठबंधन करना चाहती है और यह स्थिति तब है जब राहुल के नेतृत्व में देवरिया से दिल्ली की एक पूरी किसान यात्रा निकाली गई, खाट पर चर्चा करा दी गई, दो करोड़ किसानों से फीडबैक फार्म तक भरवा लिया गया. अगर इतनी मेहनत के बाद भी एक राज्य को लेकर भरोसा या आत्मविश्वास पैदा नहीं हो पा रहा, तो आगे की बड़ी लड़ाई का क्या होगा.
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