तीन साल बीत चुके हैं पर 'देश का मिजाज' अब भी 'मोदी-मोदी' ही है. ये बात इंडिया टुडे के ताजा ओपिनियन पोल में सामने आयी है. देश के 19 राज्यों में हुए इस सर्वे में 97 संसदीय सीटों के 194 विधानसभा क्षेत्रों के 12,178 लोगों को शामिल किया गया. सर्वे के हिसाब से देखें तो अभी चुनाव होने पर एनडीए को 349 सीटें, यूपीए को 75 और बाकियों को 119 सीटें मिल सकती हैं.
12 से 23 जुलाई के बीच हुए इस सर्वे में ममता बनर्जी देश भर में सबसे बेहतरीन काम करने वाली मुख्यमंत्री के तौर पर उभरकर सामने आई हैं. सर्वे में शामिल 12 फीसदी लोगों ने उन्हें पसंद किया है.
ये तो ठीक है कि मोदी अपने सारथी अमित शाह के साथ रथ पर सवार हैं, लेकिन मुकाबले के लिए कोई तो सामने से टक्कर देने वाला होगा. जोरदार न सही, धीरे से ही सही. सवाल यही है कि वो कौन होगा?
1. ममता बनर्जी
पिछले साल के विधानसभा चुनावों से ही शारदा और नारदा स्कैम ममता बनर्जी का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, फिर भी उनकी छवि बेदाग बनी हुई है. वो लगातार जीतती आ रही हैं. चाहे उपचुनाव हो या नगर महापालिकाओं के या फिर पंचायत चुनाव, हर मैदान में वो विरोधियों को शिकस्त देकर साबित करती आ रही हैं कि अभी तो वही बेस्ट हैं. इसी साल जनवरी में हुए सर्वे में ममता के कामकाज की रेटिंग नीतीश कुमार से नीचे थी, पर अब तो वो सबको पछाड़ कर आगे निकल गयी हैं.
हां, पश्चिम बंगाल में ममता के लिए खतरे की बात ये जरूर है कि बीजेपी लगातार मजबूत होती दिख रही हैं. ताजा चुनावों के नतीजे भी इसी बात की पुष्टि करते हैं. ऐसा लगता है जैसे लेफ्ट और कांग्रेस के परंपरागत वोट तृणमूल को मिल तो रहे हैं, लेकिन बीजेपी के खाते में भी छिटक कर चले जा रहे हैं.
नीतीश के बीजेपी से हाथ मिला लेने के बाद...
तीन साल बीत चुके हैं पर 'देश का मिजाज' अब भी 'मोदी-मोदी' ही है. ये बात इंडिया टुडे के ताजा ओपिनियन पोल में सामने आयी है. देश के 19 राज्यों में हुए इस सर्वे में 97 संसदीय सीटों के 194 विधानसभा क्षेत्रों के 12,178 लोगों को शामिल किया गया. सर्वे के हिसाब से देखें तो अभी चुनाव होने पर एनडीए को 349 सीटें, यूपीए को 75 और बाकियों को 119 सीटें मिल सकती हैं.
12 से 23 जुलाई के बीच हुए इस सर्वे में ममता बनर्जी देश भर में सबसे बेहतरीन काम करने वाली मुख्यमंत्री के तौर पर उभरकर सामने आई हैं. सर्वे में शामिल 12 फीसदी लोगों ने उन्हें पसंद किया है.
ये तो ठीक है कि मोदी अपने सारथी अमित शाह के साथ रथ पर सवार हैं, लेकिन मुकाबले के लिए कोई तो सामने से टक्कर देने वाला होगा. जोरदार न सही, धीरे से ही सही. सवाल यही है कि वो कौन होगा?
1. ममता बनर्जी
पिछले साल के विधानसभा चुनावों से ही शारदा और नारदा स्कैम ममता बनर्जी का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, फिर भी उनकी छवि बेदाग बनी हुई है. वो लगातार जीतती आ रही हैं. चाहे उपचुनाव हो या नगर महापालिकाओं के या फिर पंचायत चुनाव, हर मैदान में वो विरोधियों को शिकस्त देकर साबित करती आ रही हैं कि अभी तो वही बेस्ट हैं. इसी साल जनवरी में हुए सर्वे में ममता के कामकाज की रेटिंग नीतीश कुमार से नीचे थी, पर अब तो वो सबको पछाड़ कर आगे निकल गयी हैं.
हां, पश्चिम बंगाल में ममता के लिए खतरे की बात ये जरूर है कि बीजेपी लगातार मजबूत होती दिख रही हैं. ताजा चुनावों के नतीजे भी इसी बात की पुष्टि करते हैं. ऐसा लगता है जैसे लेफ्ट और कांग्रेस के परंपरागत वोट तृणमूल को मिल तो रहे हैं, लेकिन बीजेपी के खाते में भी छिटक कर चले जा रहे हैं.
नीतीश के बीजेपी से हाथ मिला लेने के बाद ममता विपक्षी खेमे में उस जगह को भरने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि, ममता बनर्जी चाहती हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी संभावित विपक्षी महागठबंधन में जगह दी जाए. 2019 की बात और है, हो सकता है तब तक मोदी को टक्कर देने वाला कोई अन्य नेता मजबूती से खड़ा हो जाए, लेकिन फिलहाल तो ममता का कोई सानी नहीं दिखता.
2. अरविंद केजरीवाल
साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बुलाए गये लोगों में अरविंद केजरीवाल का जिक्र तो नहीं आया था लेकिन शरद यादव का कहना था कि विपक्ष में कोई ऐसा नहीं है जिसे न बुलाया गया हो. वैसे ये बात शरद यादव ने नीतीश कुमार का प्रसंग आने पर कही थी. फिर भी अरविंद केजरीवाल नजर नहीं आये. बाकियों में तो जयंत चौधरी से लेकर बाबूलाल मरांडी तक पहुंचे हुए थे. वैसे भी जिस तरह कांग्रेस पूरे लाव लश्कर के साथ पहुंची थी, शरद यादव होस्ट कम और रस्मी संयोजक ज्यादा लग रहे थे. केजरीवाल के नहीं होने की वजह भी शायद यही रही होगी.
विपक्षी खेमे में केजरीवाल की पैरवी अकेले ममता कर रही हैं. ममता का तर्क है कि बीजेपी को टक्कर देने के लिए जब वो लेफ्ट से परहेज छोड़ सकती हैं तो केजरीवाल को लेकर कांग्रेस ऐसा क्यों नहीं कर सकती.
राहुल गांधी भले ही मोदी पर लगातार हमलावर रहते हों लेकिन नीतीश के बाद केजरीवाल ही ऐसे हैं जो बीजेपी और संघ से सख्त लहजे में पेश आते हैं. ऐसे में अगर ममता या किसी और पर बात नहीं बनी तो केजरीवाल भी विपक्षी खेमे में टक्कर देने वालों की रेस में आगे हो सकते हैं.
3. शरद यादव
कहने को तो शरद यादव के पास अब वो भी नहीं है जो उनका हुआ करता था. पार्टी के नाम पर जेडीयू और मोदी सरकार की ओर से ऑफर किया गया केंद्र में मंत्री पद. राज्यसभा में नेता तो अब रहे नहीं सदस्यता पर भी तलवार लटक ही रही है. फिर भी शरद यादव मैदान में डटे हुए हैं तो उसकी एक ही वजह है - नीतीश की मुखालफत के जरिये प्रधानमंत्री मोदी का विरोध.
शरद ने साझी विरासत बचाओ के बहाने महफिल तो अच्छी सजायी थी, लेकिन वहां जुटे ज्यादातर कवियों का हाल ऐसा ही है कि आपस में तो एक दूसरे को दाद दे लेते हैं, बाहर उन्हें कोई पूछने वाला नजर नहीं आता. कहने को कांग्रेस का आभामंडल और लालू का जनाधार जरूर शरद यादव के सपोर्ट में खड़ा है लेकिन अपनों से ही जूझते अखिलेश यादव, जमीन खो चुकीं मायावती और कमजोर पड़ चुके वाम दलों के बूते वो कैसे मजबूत हो पाएंगे.
अगर कोई महागठबंधन बनता है तो 2019 में परिवार के मुखिया के नाते भले ही उन्हें नेता बना दिया जाये, लेकिन हासिल क्या और कितना होगा कहना मुश्किल है.
4. तेजस्वी यादव
डिप्टी सीएम की कुर्सी छिन जाने के बाद से तेजस्वी यादव सड़क पर आ गये हैं. नीतीश कुमार के आतंक को साबित करने के लिए वो रात रात भर स्टेशन के पास सड़क पर ही गुजार दे रहे हैं. फिलहाल वो नीतीश के खिलाफ जनादेश अपमान यात्रा पर निकले हुए हैं.
2019 में तेजस्वी यादव की कोई राष्ट्रीय पोजीशन तो नहीं होगी लेकिन बिहार में विपक्ष का एक चेहरा तो होंगे ही.
5. अखिलेश यादव
यूपी की हार को लेकर लंबे आत्ममंथन के बाद अखिलेश बालकनी से दिखायी तो दे रहे हैं लेकिन जलते मुद्दों पर भी बड़े बेमन से नजर आते हैं. गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत पर जिस तरीके से योगी सरकार फंसी है, अखिलेश यादव चाहते तो कठघरे में खड़ा कर सकते थे - लेकिन मुआवजा मांग कर रस्म निभा ली. हो सकता है कि जिन बातों पर सवाल उठ रहे हैं उनकी नींव तो उन्हीं के शासन में रखी गयी थी.
योगी सरकार को सत्ता संभाले तीन महीने से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन अब तक ऐसा एक बार भी नहीं महसूस हुआ कि यूपी में विपक्ष नाम की कोई चीज भी है. लगता है शिवपाल यादव का बार बार सेक्युलर मोर्चा बनाने की धमकी उन्हें पहले के मुकाबले ज्यादा परेशान करने लगी है. फिर 2019 में कितनी उम्मीद की जाये?
6. मायावती
ये सही है कि लोक सभा में बीएसपी का कोई सांसद नहीं है, यूपी विधानसभा में भी महज 19 विधायक हैं और राज्य सभा से मायावती के इस्तीफे के बाद उनकी पार्टी की हालत पतली है, लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि अब भी उनका वोट प्रतिशत सिफर नहीं हुआ है. यही वजह है कि संघ और बीजेपी को टक्कर देने की रणनीति पर काम कर रहे नेता मानने को तैयार नहीं हैं कि मायावती और अखिलेश कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरें तो तस्वीर अलग नहीं होगी.
अखिलेश और मायावती दोनों साथ आने की बात तो कह रहे हैं लेकिन फसाने को हकीकत में बदलते देखने को मिले तभी कुछ कहा भी जा सकता है.
मायवती के सबसे बड़े सिरदर्द फिलहाल उनके पुराने सहयोगी नसीमुद्दीन सिद्दीकी बने हुए हैं. सिद्दीकी बीएसपी के सारे पुराने दलित और मुस्लिम नेताओं को एकजुट कर मायवती को किनारे लगाने के मिशन में जुटे हुए हैं. माना जा रहा है कि नसीमुद्दीन को अंदर ही अंदर बीजेपी का भी समर्थन हासिल है. नसीमुद्दीन फिलहाल 16 संगठनों को मिलाकर नेशनल बहुजन अलाएंस खड़ा करने में जुटे हुए हैं.
सवाल ये है कि क्या मायावती इतना सब कुछ आसानी से होने देंगी? कुछ बात तो है कि हस्ती मिटती नहीं, 2019 में मायावती की बड़ी भूमिका को नकारना बुद्धिमानी की बात नहीं होगी.
7. नवीन पटनायक
नवीन पटनायक की मुश्किल ये है कि उत्तर भारत में उनकी स्वीकार्यता नहीं के बराबर है - और बीजेपी कहर बन कर उन पर टूट पड़ी है. ओडिशा में बीजेपी का - 'मेरा बूथ सबसे मजबूत' कार्यक्रम उनका सिरदर्द बन चुका है और यही वजह है कि पार्टी का सारा काम भी वो खुद ही देखने लगे हैं. बहुत मजबूत भले न हों, 2019 में नवीन पटनायक भी तो विपक्षी खेमे में एक खंभा हो ही सकते हैं.
माणिक सरकार माणिक सरकार को देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री होने का रुतबा हासिल है. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा त्रिपुरा के मुख्यमंत्री का भाषण न दिखाये जाने को लेकर हाल ही में सुर्खियों में बने हुए थे.
माणिक सरकार का आरोप है कि दूरदर्शन और आकाशवाणी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर उनका भाषण प्रसारित करने से मना कर दिया. माणिक सरकार के मुताबिक प्रसार भारती ने पत्र लिखकर उनके भाषण में बदलाव करने को कहा था, जिसे उन्होंने नामंजूर कर दिया. फिर भाषण का प्रसारण काट-छांट कर किया गया.
माणिक सरकार विपक्षी खेमे में 2019 में कोई कद्दावर पोजीशन हासिल कर पाएंगे ये उम्मीद करना तो ठीक नहीं होगा, लेकिन क्या पता कब किसी की किस्मत एचडी देवगौड़ा जैसी बुलंद हो जाये.
...और राहुल गांधी
अब तक राहुल गांधी ही एक ऐसा नाम है जो घोषित तौर पर 2019 की अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित हैं. सोनिया की तबीयत बहुत ठीक न होने के कारण अब राहुल गांधी ही कांग्रेस का चेहरा भी हैं और उसकी सत्ता में वापसी में सबसे बड़ी बाधा भी. बाधा इसलिए कि जब तक वो खुद या कांग्रेस प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर दावेदारी नहीं छोड़ेंगे, विपक्षी दलों का शायद ही कोई नेता पूरे मन से मिशन 2019 में जुट पाये.
कांग्रेस के लिए अब तक अच्छी बात यही लगती है कि कैप्टन अमरिंदर ने लंबी लड़ाई लड़कर सत्ता में वापसी कर ली और अहमद पटेल ने राज्य सभा की अपनी सीट बचा ली है.
बेहतर तो यही होता कि राहुल गांधी आगे की तैयारी करते और 2019 के लिए सोनिया गांधी की तरह किसी और को मनमोहन सिंह की जगह दे देते. अगर राहुल गांधी को लगता है कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल का काबू में रखना मुश्किल होगा तो शरद यादव को भी ट्राय कर सकते हैं. गारंटी है शरद यादव भी मनमोहन सिंह की तरह कभी निराश नहीं करेंगे.
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