ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैं और सिर्फ इसी बात से अपने यहां कई लोगों की छाती पर सांप लोटते दिख रहा है. और भी जगह हालात यही होंगे. सांप तरह-तरह से लोट रहा होगा. फिलहाल तो देश में सुनक की जाति तलाशी जा रही है. उनके धर्म और संस्कृति पर निशाना साधा जा रहा है. उनकी निष्ठा पर भी प्रश्न हो रहे हैं. क्यों भला? तीन बड़ी वजहें हैं. पहला- उनका भारतीय होना. दूसरा- उनका हिंदू होना और तीसरा सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए अतीत में विदेशी मूल का मसला उठाना, जिसकी वजह से सोनिया पीएम नहीं बन बन पाई थीं. कई लोग बेजा खुश भी हैं. और उसकी भी तीन वजहें हैं. सुनक का भारतीय होना. हिंदू होना और तीसरा भविष्य में भारतीय होने के नाते सुनक का अपने पुरखों के देश के लिए कुछ विशेष करने की उम्मीद पालना.
पहले खुश होने वालों को निपटा लिया जाए. सुनक की जड़ें भारतीयता में रची बसी हैं- बावजूद उनके लिए ब्रिटेन फर्स्ट की नीति सर्वोपरी रही है, रहेगी और रहना ही चाहिए. उनसे बेजा अपेक्षा करना ज्यादती है. भारत के लोगों को ब्रिटेन के पीएम के रूप में सुनक के आने से अतिरिक्त अपेक्षाएं नहीं पालनी चाहिए. इसलिए कि जब आपकी जाति, कुल, क्षेत्र का बेटा भी कोई चीज हासिल करता है तो आपकी मनमानियों को जगह तो नहीं देता. हमारे कई लोग इस बात से भी मुंह फुलाकर कुप्पा होते दिखते हैं कि फलाने का बेटा अफसर हो गया. वह पहचानता तो है, दुआ सलाम भी कर लेता है. लेकिन घमंडी हो गया. फला काम करने को बोला. जरा सी बात थी. बस हड़काना भर था. मना कर दिया. क्यों करे भाई किसी का ऐरा गैरा काम? क्या वह किसी का ईगो शांत करने के लिए कड़ी मेहनत के बाद किसी मुकाम पर पहुंचा. फिर ऋषि सुनक से उम्मीद क्यों पालना? तो जब अपने किसी दूर के रिश्तेदार से गैरवाजिब उम्मीद नहीं पालते हैं, फिर सुनक से उम्मीद क्यों पाल रहे हैं? उम्मीद पालना ही है तो उन्हें यहीं बुला लीजिए और चुनाव लड़वा लीजिए.
अपनी पत्नी के साथ ऋषि सुनक.
बावजूद जिस तरह गांव, कस्बे, मोहल्ले, परिवार, रिश्तेदारी में किसी अपने के अफसर बनने की खुशी होती है, उतनी सुनक के लिए भी होनी ही चाहिए. यह गर्व का विषय है और प्रेरक भी है. हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है. और जितना संभव हो, उतना जश्न मनाना चाहिए. भारतीय होने और भारतीयता पर गर्व करने के लिए इससे बड़ा क्षण और क्या हो सकता है भला? दुखद है कि सुनक पीएम क्या बनें, हर कोई अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग छेड़ते नजर आ रहा है. इसी राग में सोनिया के पीएम नहीं बनने से लेकर अबतक किसी मुस्लिम के पीएम नहीं बनने तक के सवाल आने लगे हैं. सवाल वे लोग भी कर रहे हैं जिन्होंने अपनी पार्टियों से किसी मुस्लिम को पीएम पद का दावेदार कभी नहीं बनाया, जबकि उनकी राजनीति में इसकी खूब संभावना रही है. वे कह रहे कि देखो- ब्रिटेन ने एक अल्पसंख्यक को पीएम बनाकर हमारे गाल पर तमाचा मारा है.
कितना विरोधाभास है? सुनक का पीएम बनना और उसके पीछे की वजहों पर बात करने की बजाए बाल की खाल निकाली जा रही है कि 75 साल में कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाया?
अब जिनकी छाती पर सांप लोट रहा है उन्हें कोई कैसे समझाए कि साब सुनक को इसलिए पीएम नहीं बनाया गया है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय का है. भारतीय जड़े हैं. या फिर हिंदू है आदि-आदि. अल्पसंख्यक समुदाय वहां कम थोड़े हैं. ब्रिटेन में मुस्लिम आबादी किसी दूसरी अल्पसंख्यक आबादी से कम है क्या? बौद्ध, जैन, पारसी और दुनियाभर के तमाम धार्मिक मान्यताओं वाले लोग हैं वहां. लेकिन उनमें से एक सुनक कमाकर वहां पहुंचे हैं. उन्होंने अब तक ना जाने कितनी मर्तबा ब्रिटेन की राजनीति में अपनी मौजूदगी और काबिलियत दर्ज कराई है- वह भी ब्रिटेन फर्स्ट की भावना के साथ. जब बोरिस जॉनसन का जाना कन्फर्म हो गया और यह तय था कि उनकी जगह सुनक ही लेंगे, उदार ब्रिटेन में उन्हीं की पार्टी के लोगों ने जमकर विरोध किया. और मुद्दा सिर्फ यही था कि सुनक और उनकी संस्कृति का मूल ब्रिटिश नहीं है. यह स्वाभाविक है. हायतौबा नहीं होना चाहिए इसपर.
पीएम चुनने के लिए कंजरवेटिव पार्टी में चुनाव भी हुआ. डेढ़ लाख से ज्यादा सदस्यों ने वोट किया. सिर्फ भारतीय होने की वजह से सुनक, लिज ट्रस से करीब 20 हजार वोटों से हार गए. ब्रिटेन की जो हालत थी उसमें लिज ट्रस चीजों को संभाल नहीं पाईं और हालात ऐसे बने कि अब लोगों को वापस सुनक के पास आना पड़ा. सुनक से भारत को नहीं ब्रिटेन को अपेक्षाएं हैं. और वह निश्चित ही उन्हें पूरा करने की कोशिश करेंगे. सुनक की तरह वहां भविष्य में अन्य अल्पसंख्यक समूहों के भारतवंशी या दूसरा एशियाई भी पीएम बने तो हैरान नहीं होना चाहिए. और बनेंगे ही. बहुत से भारतवंशी वहां की राजनीति में सक्रिय हैं और जिम्मेदार पदों पर कार्य भी करते हैं. कई धर्म पंथ के हैं. और सिर्फ ब्रिटेन ही क्यों, दुनिया के जितने भी देशों में भारतीय हैं- वहां के निर्माण में उनकी जरूरतों और हित के हिसाब से ही काम कर रहे हैं.
इसका श्रेय दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी के सुनक भर को नहीं जाता. सुनक और हमारे पुरखों को जाता है. जो दुनिया के कोने-कोने में मजदूर की तरह गए, मगर अपनी मेहनत, ईमानदारी, करुणा, परोपकार से लोगों का भरोसा जीता और मुकाम पाया. बावजूद कि चमड़ी का रंग काला, गेहुआ और सांवला था, कद लंबा-ठिगना-बौना था. उन्होंने कोशिश की और अपनी संस्कृति के साथ दूसरी संस्कृति में घुलमिल गए. किसी दूसरी संस्कृति का भरोसा हासिल करने के लिए पीढ़ियां खप जाती हैं. एक दो पीढ़ी में नहीं हो पाता यह. सुनक जैसे लोगों की पीढ़ियां खपी हैं. विश्वास जीतने के लिए कई पीढियां खपानी पड़ती हैं. गंवाने के लिए एक पीढ़ी ही काफी है. किसी की पत्नी बन जाने भर से देश का भरोसा नहीं जीता जा सकता. उसके लिए खुद को खपाना पड़ता है. जब सोनिया गांधी राजनीति में आई थीं, सच यही है कि उन्होंने खुद को खपाया नहीं था. और अगर उन्होंने तनिक भी खपाया होता तो कम से कम उनकी पार्टी और उन्हीं के सहयोगी विदेशी मूल का मुद्दा नहीं उठाते. विदेशी मूल के मसले पर शरद पवार और पीए संगमा जैसे नेताओं ने कांग्रेस में तोड़फोड़ मचा दी थी. गांधी परिवार के खासमख़ास कई और नेता थे. सहयोगियों में मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भी तो जमकर विरोध किया था. भूल गए क्या? सोनिया जब दूसरी बार साफ़-साफ़ प्रधानमंत्री बनने जा रही थीं तब भी किसी और ने नहीं उनके अपने बेटे ने जिद करके प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. कैसे, विस्तार से पढ़ना चाहे तो यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.
जब मुसलमानों का नेतृत्व ही दूसरे कर रहे हैं तो मुसलमान प्रधानमंत्री कहां से निकलेगा मितरों
सुनक जरूर हिंदू हैं लेकिन हिंदू होने के बावजूद वह वहां हिंदुओं भर के नेता नहीं हैं. वे ब्रिटेन के नेता हैं. सर्व समावेशी नेता. और उनका चुना जाना क्या इस बात की गवाही नहीं देता कि एक ब्रिटिश नागरिक के रूप में उन्होंने कितना कुछ कमाया है- कोई बहस का विषय ही नहीं. यह गर्व हर एशियाई के लिए गर्व का विषय है. जहां तक बात भारत में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री का है, मनमोहन सिंह बने हैं और भविष्य में कोई सिख, कोई बुद्धिष्ट, कोई ईसाई, कोई मुसलमान या फिर कोई हिंदू बनकर ही रहेगा. पर कटु सत्य यही है कि अब बनेगा वही जिसके मन में भारतीयता होगी. असल सवाल तो भारत का नेता, कौन और किन गुणों से हो सकता है- इसपर करते. भारत में मुसलमानों का अपना नेता भी मुसलमानों में नहीं दिखता और मांग प्रधानमंत्री की हो रही है. दो जगह ओवैसी और बदरुद्दीन अजमल जरूर नजर आते हैं. लेकिन बाकी जगहों पर कौन है? अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, लालू यादव, नीतीश कुमार जैसे दर्जनों उनके नेता हैं. इन दर्जनों नेताओं की अक्सर दिल्ली की राजनीति के लिए चर्चा होती ही रहती है. कोई इनमें पीएम बन जाए तो आश्चर्य नहीं. क्या वह मुसलमानों का पीएम नहीं होगा और पहले मुसलमानों ने अपना कोई पीएम नहीं बनाया क्या?
यह जरूर है कि ओवैसी और बदरुद्दीन पीएम या सीएम की रेस में नजर नहीं आते. और तय मान लीजिए कभी आएंगे भी नहीं. सिर्फ इसलिए कि उनकी दिलचस्पी हमेशा एक समुदाय भर का नेता बने रहने में दिखती है. इतिहास उठाकर देख लीजिए, वही मुसलमान मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति बने हैं या आगे जाते दिखे हैं जो अन्य समुदायों के भी नेता थे. सैकड़ों उदाहरण हैं. सुनक जैसे मौके भारत में कम है क्या? सवाल अपनी आत्मा से करें कि कौन सी चीज है जो एक मुसलमान पीएम की कुर्सी तक लेकर नहीं जाती? मान लेते हैं भाजपा नहीं बनाएगी, मगर कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों पर ऐसा क्या दबाव है जो बोल्ड फैसला नहीं ले पा रहे. विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं को चाहिए कि एक मुस्लिम चेहरे को पीएम पद का दावेदार बनाए. और अगर कांग्रेस या क्षेत्रीय दल भी हिचक रहे हैं तो बात कुछ और है.
और बात अगर कुछ और है तो इधर-उधर फ्रस्टेशन निकालने का क्या मतलब है. ऐसा तो है नहीं कि मौका नहीं मिला, मौका मिला और खूब मिला. पर सवाल यही है कि आप कमाते क्या हैं? भारतवंशी मुसलमानों का संकट उनका निजी संकट नहीं है, बना दिया गया है. लेकिन जो दुनिया के दूसरे भूगोल और संस्कृति से निकले भारतीय मुसलमान हैं, उन्हें सुनक के बहाने खुद से सवाल करने ही चाहिए. यूरोपीय देशों को देख लीजिए, खाड़ी देशों में भी (वह चाहे हिंदू मुसलमान या किसी पंथ सम्प्रदाय को मानने वाले हों) भारतीयों को ही वहां क्यों पसंद किया जाता है? जो लोग रात दिन सीरिया, फिलिस्तीन, ईरान, टर्की के लिए परेशान रहते हैं, उनके रोने का कोई इलाज नहीं है. आप चाहेंगे कि पाकिस्तान के साथ व्यापार शुरू हो जाए. सीमा पर बाड़ ना रहे. व्यवस्था ऐसी रहे कि कार स्टार्ट करें और पाकिस्तान चले जाए, उधर के लोग इधर आ जाए. और फिर यह चाहेंगे कि भारत का पीएम बनकर परमाणु बम का बक्सा अपने पास रखें तो विरोधाभासी चीजें एकसाथ संभव नहीं है. देश का बंटवारा किसलिए हुआ था भला?
धार्मिक स्वतंत्रताओं की एक सीमा होती है. सुनक की धार्मिक सीमाएं ब्रिटेन फर्स्ट को प्रभावित नहीं करती- इस वजह से पीएम बने हैं. जिस दिन किसी भी समूह विशेष का नेता इंडिया फर्स्ट हो जाएगा, खुद ब खुद पीएम बन जाएगा.
सुनक उतने ही भारतीय हैं जितने रस्किन बांड विदेशी थे, सोनिया नहीं. हमारा दुर्भाग्य है कि रस्किन बांड राजनीति में नहीं आए. अफ़्रीकी देशों में लाखों हिंदू हैं जिनकी पीढ़ियों ने वहां के स्थानीय समाजों में समावेशी गुणों की वजह से जगह बनाई है. दुनिया के और तमाम भूगोल में भी. सुनक का चुना जाना सिर्फ भारतीयता ही नहीं समूचे एशिया के लिए गर्व का विषय है. हमारी निष्ठा में ईमानदारी, परोपकार और जनकल्याण है. दुनिया हमीं चलाएंगे. सुनक से सीखिए और ऐतिहासिक शर्म से बाहर निकलिए. और ऐसा भी नहीं है कि विदेशी मूल के लोगों या मुसलमानों को भारत में गंभीर जिम्मेदारियां नहीं मिलतीं. असंख्य उदाहरण हैं अपनी क्षमता के साथ देश के नवनिर्माण में उनके शामिल होने का. सिर्फ एक ताजा उदाहरण जान लीजिए. बीसीसीआई का चीफ रोजर बिन्नी को बनाया गया है. सौरव गांगुली को दूसरा टर्म नहीं दिया गया. एक महीना पहले तक रोजर को भरोसा नहीं रहा होगा कि वह दुनिया के सबसे ताकतवर बोर्ड के चीफ होंगे. कभी मौका मिले तो उनके बारे में पढ़िए. वह स्कॉटिश मूल के भारतीय हैं.
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