सड़क पर जूझने के लिए मशहूर रहा समाजवादी पार्टी का काडर अभी तक इस रहस्य को सुलझाने में लगा है कि आखिर अखिलेश यादव पांच साल तक हाथ पर हाथ धरे घर में ही क्यों बैठे रहें? सपा काडर के मन में ऐसे बहुतेरे सवाल हैं. करीब दर्जनभर छोटे दलों के साथ गठबंधन हो सकने की स्थिति में भी किंतु-परंतु है. सपा का जो सांगठनिक किला दिख रहा है- कम से कम यूपी विधानसभा चुनाव के लिहाज से दरका हुआ माना जा सकता है. ये दूसरी बात है कि अब पार्टी पर पूर्व मुख्यमंत्री का एकछत्र नियंत्रण है. पार्टी में दूर-दूर तक उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं. ना घर के अंदर और ना बाहर से. मगर सवाल तो यही है कि क्या इससे अखिलेश का यूपी संकल्प पूरा हो पाएगा?
सपा के पुराने काडर से बात करिए तो वह दबे मन स्वीकार कर लेता है कि अखिलेश ने सक्रियता बढ़ाने में देर की. विपक्ष में पांच साल का लंबा वक्त बिताने के बावजूद उन्होंने पराजयों से कुछ नहीं सीखा और भविष्य की बेहतर तैयारियां नहीं कीं. उन्होंने सबसे ज्यादा ऊर्जा पार्टी पर नियंत्रण में ही लगाई. अन्य चीजों पर समय रहते ध्यान नहीं दिया. ठीकठाक काम करने के बावजूद जिन वजहों से सत्ता से बाहर हुए उसे दुरुस्त नहीं कर पाए. दुरुस्त करने निकले भी तो चुनाव सिर पर आने के बाद. जो प्रभावित करने की बजाय चुनावी स्टंट नजर आता है. आज की तारीख में सपा पूरी तरह से अखिलेश की पार्टी है, मगर इस हालत में नहीं कि यूपी में "मोदी-योगी-मौर्या" की मजबूत तिकड़ी को पीट सके.
बराबर की जंग के लिए अखिलेश को सहयोगियों की जरूरत है. हालांकि उनकी "दुर्भाग्यगाथा" का निकट अंत नहीं दिखता. राहुल गांधी की तरह वे भी गलतियां करते दिख रहे- जबकि उनकी राजनीति बिल्कुल अलग थी. छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन, छोटी सभाओं की जगह टीमटाम वाले रोड शो, मंदिरों में जाकर माथे टेकना, धर्माचार्यों से मुलाक़ात और ध्रुवीकरण को हवा देने की कोशिश. अखिलेश भी ब्राह्मणों को पुचकार रहे- गोया यूपी के सियासत की चाभी सिर्फ जनेऊधारियों के पास हो. ऐसी तमाम कोशिशें फायदा पहुंचाने की बजाय अखिलेश की राजनीतिक...
सड़क पर जूझने के लिए मशहूर रहा समाजवादी पार्टी का काडर अभी तक इस रहस्य को सुलझाने में लगा है कि आखिर अखिलेश यादव पांच साल तक हाथ पर हाथ धरे घर में ही क्यों बैठे रहें? सपा काडर के मन में ऐसे बहुतेरे सवाल हैं. करीब दर्जनभर छोटे दलों के साथ गठबंधन हो सकने की स्थिति में भी किंतु-परंतु है. सपा का जो सांगठनिक किला दिख रहा है- कम से कम यूपी विधानसभा चुनाव के लिहाज से दरका हुआ माना जा सकता है. ये दूसरी बात है कि अब पार्टी पर पूर्व मुख्यमंत्री का एकछत्र नियंत्रण है. पार्टी में दूर-दूर तक उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं. ना घर के अंदर और ना बाहर से. मगर सवाल तो यही है कि क्या इससे अखिलेश का यूपी संकल्प पूरा हो पाएगा?
सपा के पुराने काडर से बात करिए तो वह दबे मन स्वीकार कर लेता है कि अखिलेश ने सक्रियता बढ़ाने में देर की. विपक्ष में पांच साल का लंबा वक्त बिताने के बावजूद उन्होंने पराजयों से कुछ नहीं सीखा और भविष्य की बेहतर तैयारियां नहीं कीं. उन्होंने सबसे ज्यादा ऊर्जा पार्टी पर नियंत्रण में ही लगाई. अन्य चीजों पर समय रहते ध्यान नहीं दिया. ठीकठाक काम करने के बावजूद जिन वजहों से सत्ता से बाहर हुए उसे दुरुस्त नहीं कर पाए. दुरुस्त करने निकले भी तो चुनाव सिर पर आने के बाद. जो प्रभावित करने की बजाय चुनावी स्टंट नजर आता है. आज की तारीख में सपा पूरी तरह से अखिलेश की पार्टी है, मगर इस हालत में नहीं कि यूपी में "मोदी-योगी-मौर्या" की मजबूत तिकड़ी को पीट सके.
बराबर की जंग के लिए अखिलेश को सहयोगियों की जरूरत है. हालांकि उनकी "दुर्भाग्यगाथा" का निकट अंत नहीं दिखता. राहुल गांधी की तरह वे भी गलतियां करते दिख रहे- जबकि उनकी राजनीति बिल्कुल अलग थी. छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन, छोटी सभाओं की जगह टीमटाम वाले रोड शो, मंदिरों में जाकर माथे टेकना, धर्माचार्यों से मुलाक़ात और ध्रुवीकरण को हवा देने की कोशिश. अखिलेश भी ब्राह्मणों को पुचकार रहे- गोया यूपी के सियासत की चाभी सिर्फ जनेऊधारियों के पास हो. ऐसी तमाम कोशिशें फायदा पहुंचाने की बजाय अखिलेश की राजनीतिक सेहत के लिए हानिकारक नजर आ रही.
सपा के मुद्दों से दूर चले गए अखिलेश यादव
मदिरों में सिर नवाने और धर्माचार्यों से मुलाक़ात में अखिलेश को सोशल मीडिया पर ट्रोल्स का कोपभाजन बनने से ज्यादा कुछ नहीं हासिल हुआ. भाजपा की नक़ल में छोटे दलों का साथ लेने की कोशिश में वे अपनी हार की सही वजहों को भूल रहे. उन्हें शायद अपनी उन यात्राओं के बारे में भी ठीक से याद नहीं जिसकी वजह से उन्होंने अकेले यूपी के चुनाव की पूरी फिजा ही बदल दी थी और बाद में मुख्यमंत्री बने थे. फिलहाल जो अखिलेश नजर आ रहे हैं- चुनाव पूर्व सरेंडर मुद्रा में दिख रहे. सपा के राजनीतिक दांत अब धारदार नहीं दिखते.
समझ ही नहीं आता कि आखिर अखिलेश ने पांच साल तक किया क्या? उन्होंने अपनी पराजयों पर मंथन किया भी या नहीं. यह ठीक है कि भाजपा ने छोटे-छोटे दलों का सहयोग लेकर उन्हें सत्ता से बेदखल किया. मगर वे रणनीतियां तो अखिलेश के खिलाफ भाजपा के अपने मंथन से निकली थीं. रणनीति के लिए एक नैरेटिव गढ़ा गया जिसे पूर्व मुख्यमंत्री भांप ही नहीं पाए. रणनीति थी- अन्य पिछड़ी जातियों में राजनीतिक वर्चस्व की इच्छा को जगा देना. सपा के खिलाफ भाजपा यह संदेश पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही कि अखिलेश और सपा ओबीसी नहीं सिर्फ "यादवों" की पार्टी और नेता हैं इसके साथ ही एंटी हिंदू हैं. जो अपनी राजनीति के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. पॉपुलर धारा में कहें तो देश विरोधी भी.
ओबीसी राजनीति में वर्चस्व हथियाने की जंग
सपा के टिकट वितरण, मुस्लिम नुमाइंदगी से लेकर सांगठनिक ढांचे में गैर यादव जातियों की हिस्सेदारी जैसे से उदाहरणों को निकालकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. अब यह सही है या गलत- मगर सपा सरकार में यादव और मुस्लिम गठजोड़ की ताकत को खारिज नहीं किया जा सकता. सांगठनिक प्रोत्साहन से जमीन कब्जाने और उत्पीड़न की बहुत सारी शिकायतें सामने आईं. स्वाभाविक है कि उत्पीड़न झेलने वाली ज्यादातर पीड़ित दबंग जातियों से नहीं रहे होंगे. वे ओबीसी और दलित जातियों से ही होंगे. उधर, ओबीसी की जो गैर यादव जातियां पिछले कुछ सालों में राजनीतिक रूप से ताकतवर बनीं उन्होंने यादवों को ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में लिया. एंटी यादव नैरेटिव ने इसे और मजबूती प्रदान की.
इस तर्क को प्रसारित करना ज्यादा आसान है कि जब 10 से 12 प्रतिशत यादवों का वोट लेकर अखिलेश समूचे ओबीसी समुदाय को पीछे चलने पर "मजबूर" कर सकते हैं तो फिर ओबीसी में शामिल दूसरी मजबूत जातियां भी यही क्यों ना करें? ऐसा नहीं है कि सपा चीफ इन चीजों पर सक्रिय नहीं हुए. बेशक हुए, मगर समय हाथ से निकल चुका है. अखिलेश ने सांगठनिक स्तर पर स्थानीय इकाइयों में फेरबदल किया. बड़े पैमाने पर स्थनीय इकाइयों की कमान गैरयादव नेताओं को दी गई है. अभी हाल ही में प्रदेश और केंद्रीय स्तर पर भी फेरबदल कर गैरयादव नेतृत्व को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया. चुनावी सीजन में हुए फेरबदल पिछले एक दशक से जारी एंटी यादव नैरेटिव को कितना कमजोर करेंगे यह समझना मुश्किल नहीं है.
मुसलमान राजनीतिक गलती दोहरा रहे, पर उनकी मजबूरी है सपा
उधर- अयोध्या पर फैसला, नागरिकता क़ानून, धारा 370, तीन तलाक जैसे मुद्दे हमेशा से मुसलामनों को भावुक करने वाले रहे हैं. सपा की सियासत को मजबूत बनाने में मुसलमानों का ही सबसे बड़ा योगदान रहा. लेकिन तमाम मुद्दों पर अखिलेश चुप रहे, भाजपा की मदद की या पीछे हट गए. नागरिकता क़ानून के खिलाफ यूपी में प्रियंका की सक्रियता के बाद तो सवाल भी उठे कि सपा आखिर है कहां. यहां तक कि जिस आजम खान के चेहरे को पार्टी पोस्टर पर लगाकर मुसलामनों का भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है उनके लिए भी कांग्रेस मुद्दे उठाती नजर आ रही थी.
यह साफ़ है कि मुसलमान पूरी तरह से सपा के साथ हैं, मगर सिर्फ इसलिए हैं कि भाजपा के खिलाफ उनके पास कोई ठोस विकल्प नहीं है. जबकि सपा के साथ जाने में मुस्लिम बड़ी कीमत चुका रहे हैं जिसकी भरपाई उन्हें अगले कई सालों तक करनी होगी यह तय है. मगर राजनीति तो यही है. कई बार हासिल करने से ज्यादा खुशी गंवाने में होती है. इस बार मुसलमान सपा के साथ "गंवा" कर खुश होना चाहते हैं. अखिलेश भले ही कितने ट्वीट कर लें- सपा ना तो किसान आंदोलन क्लेम करने की स्थिति में है और ना ही महंगाई को लेकर भाजपा को घेरने की अवस्था में. इन मुद्दों पर रालोद और कांग्रेस की अपील ज्यादा प्रभावी है.
पांच साल चुप रहने के बाद अखिलेश को लगता है कि अब गठबंधन से तमाम कमियों की भरपाई हो जाएगी. जबकि मायावती के साथ बड़े गठबंधन के अंजाम को वे भूल चुके हैं. एंटी यादव नैरेटिव में जातीय मतों के वजूद पर टिके करीब दर्जनभर छोटे दल सपा को कितना फायदा पहुंचाएंगे? और मान लीजिए कि सपा को उनका वोट ट्रांसफर हो भी जाता है तो क्या सपा का गठबंधन "संसाधन संपन्न" भाजपा के सामने चुनाव बाद भी टिका रह पाएगा? क्योंकि यह तय है कि सपा सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्याबल तक नहीं पहुंच रही.
सपा के लिए तो आधा दर्जन सहयोगियों से कहीं ज्यादा बेहतर और कारगर शिवपाल यादव साबित हो सकते हैं. शिवपाल के साथ नहीं आने का मतलब है कि अखिलेश हर्टलैंड में ही नुकसान झेलने को मजबूर होंगे. जमीन पर स्थितियों को देखें तो अखिलेश से ज्यादा फायदे में उनके संभावित सहयोगी नजर आते हैं. उधर, भाजपा ने मथुरा का राग छेड़ ही दिया है. और यह क्यों ना माना जाए कि अयोध्या और काशी का उदाहरण देकर भाजपा अखिलेश की ही जमीन दरकाने में कामयाब हो सकती है.
पांच साल विपक्ष में रहकर अखिलेश का हासिल आखिर क्या रहा यह तो नहीं मालूम, मगर यूपी चुनाव में "यादव, मुसलमान, दलित, ब्राह्मणों समेत सवर्ण जातियां" निर्णायक नहीं हैं. फैसला इस बार भी ओबीसी में शामिल जातियां ही करेंगी. चाहे चुनाव पहले या चुनाव बाद. भाजपा की उसपर नजर है.
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