सोशल मीडिया और OTT प्लेटफॉर्म के लिए जारी की गई गाइडलाइंस का पालन करने की डेडलाइन खत्म हो चुकी है. माइक्रोब्लॉगिंग साइट Twitter की ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है. वहीं, Facebook ने भारत सरकार के नियमों पर सहमति जता दी है और साथ ही कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ चर्चा जारी रखने की बात कही है. जबकि फेसबुक की ही कंपनी WhatsApp ने भारत सरकार की गाइडलाइंस के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इन अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों पर देश में हो रहे प्रदर्शन या आंदोलन या किसी खास विचारधारा के लोगों का समर्थन और उन्हें बढ़ावा देने के आरोप लगते रहते हैं. इसके अलावा ये कंपनियां धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले कंटेंट पर रोक लगाने में भी अक्षम साबित हुई हैं.
भारत में कई राजनीतिक दल इन सोशल मीडिया कंपनियों को लेकर जारी की गई गाइडलाइंस का विरोध कर रहे हैं. इनका मानना है कि भारत सरकार द्वारा जारी गाइडलाइंस की वजह से संविधान प्रदत्त 'अभिव्यक्ति की आजादी' खतरे में पड़ जाएगी. विपक्षी पार्टियों और विशेष विचारधारा के लोगों का समर्थन मिलने से ट्विटर और वाट्सएप जिद पर अड़े हुए हैं. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी मामले देश के संविधान और कानूनों के माध्यम से सुलझाए जाते हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि सोशल मीडिया कंपनियों को भारतीय कानून के अधीन लाना पार्टी-पॉलिटिक्स से ज्यादा जरूरी क्यों है?
लोकतंत्र में नियम होना जरूरी है
भारत में व्यापार कर रही सभी विदेशी कंपनियों के लिए सरकार ने कुछ नियम-कानून बनाए गए हैं. ये सभी कंपनियां इन नियमों का पालन करते हुए आसानी के साथ भारत में अपना व्यापार कर रही हैं. वहीं, इन सोशल...
सोशल मीडिया और OTT प्लेटफॉर्म के लिए जारी की गई गाइडलाइंस का पालन करने की डेडलाइन खत्म हो चुकी है. माइक्रोब्लॉगिंग साइट Twitter की ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है. वहीं, Facebook ने भारत सरकार के नियमों पर सहमति जता दी है और साथ ही कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ चर्चा जारी रखने की बात कही है. जबकि फेसबुक की ही कंपनी WhatsApp ने भारत सरकार की गाइडलाइंस के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इन अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों पर देश में हो रहे प्रदर्शन या आंदोलन या किसी खास विचारधारा के लोगों का समर्थन और उन्हें बढ़ावा देने के आरोप लगते रहते हैं. इसके अलावा ये कंपनियां धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले कंटेंट पर रोक लगाने में भी अक्षम साबित हुई हैं.
भारत में कई राजनीतिक दल इन सोशल मीडिया कंपनियों को लेकर जारी की गई गाइडलाइंस का विरोध कर रहे हैं. इनका मानना है कि भारत सरकार द्वारा जारी गाइडलाइंस की वजह से संविधान प्रदत्त 'अभिव्यक्ति की आजादी' खतरे में पड़ जाएगी. विपक्षी पार्टियों और विशेष विचारधारा के लोगों का समर्थन मिलने से ट्विटर और वाट्सएप जिद पर अड़े हुए हैं. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी मामले देश के संविधान और कानूनों के माध्यम से सुलझाए जाते हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि सोशल मीडिया कंपनियों को भारतीय कानून के अधीन लाना पार्टी-पॉलिटिक्स से ज्यादा जरूरी क्यों है?
लोकतंत्र में नियम होना जरूरी है
भारत में व्यापार कर रही सभी विदेशी कंपनियों के लिए सरकार ने कुछ नियम-कानून बनाए गए हैं. ये सभी कंपनियां इन नियमों का पालन करते हुए आसानी के साथ भारत में अपना व्यापार कर रही हैं. वहीं, इन सोशल मीडिया कंपनियों को लेकर अभी तक ऐसे कोई नियम नहीं बनाए गए थे. भारत सरकार की ओर से इन सोशल मीडिया कंपनियों को इंटरमीडियरी स्टेटस यानी बिचौलिए का दर्जा मिला हुआ है. जिसकी वजह से अगर कोई इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध किसी आपत्तिजनक कंटेंट (हिंसा, फेक न्यूज वगैरह) या ऐसी किसी सामग्री जिससे भारत की एकता, अखंडता और संप्रुभता पर खतरा हो सकता है, के खिलाफ अदालत जाता है, तो इन कंपनियों को पक्ष नहीं बना सकता है. बीते साल माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर ने जम्मू-कश्मीर को चीन का हिस्सा बता दिया था. जिस पर बवाल होने पर सोशल मीडिया कंपनी ने 'तकनीकी गलती' की बात कहते हुए मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया था.
क्या ऐसी 'तकनीकी गलतियों' की जिम्मेदारी तय नहीं होना चाहिए? ऐसी 'गलतियां' न हों, या जानबूझकर के न की जाएंं, इसके लिए कुछ नियम-कानून नहीं होने चाहिए? ये सोशल मीडिया कंपनियां किसी देश, चुनी हुई सरकारों या नियम-कानूनों से ऊपर नही हैं. लोकतंत्र में इनके लिए भी कानून और नियम हैं और इन्हें उनका पालन करना चाहिए. ये कंपनियां अमेरिका स्थित हेडक्वाटर्स से प्रतिक्रिया मिलने पर ही आगे का कदम उठाती हैं. देश के लिए खतरा पैदा कर सकने वाले कंटेंट पर भी ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने अमेरिकी मुख्यालय से आदेश का इंतजार करते रहते हैं. भारत सरकार द्वारा जारी की गई गाइडलाइंस में मांग की गई है कि ऐसे आपत्तिजनक कंटेंट पर तत्काल कार्रवाई की जाए और उसे फैलाने वाले की जानकारी साझा की जाए. 'फ्री स्पीच' की आड़ लेकर ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म मनमाना व्यवहार करते हैं और चाहते हैं कि इन पर किसी तरह के सवाल न उठाए जाएं. संवैधानिक तरीके से चलने वाले लोकतांत्रिक देश में इस तरह का अड़ियल रवैया शायद ही बर्दाश्त किया जा सकता है.
'असीमित' अधिकारों की जवाबदेही तय करने की जरूरत
इंटरमीडियरी स्टेटस यानी बिचौलिए का दर्जा होने की वजह से इन सोशल मीडिया कंपनियों को कई असीमित अधिकार मिल जाते हैं. अगर सोशल मीडिया कंपनियों से इंटरमीडियरी स्टेटस वापस ले लिया जाता है, तो इन सोशल मीडिया कंपनियों पर भारतीय कानूनों के अनुसार आपराधिक मामला दर्ज करने की छूट मिल जाएगी. किसी आपत्तिजनक कंटेंट के लिए इन पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है. भारत सरकार का इन सोशल मीडिया कंपनियों पर चीन या उत्तर कोरिया की तरह बैन लगाने की संभावना ना के बराबर है. हालांकि, भारत सरकार की गाइडलाइंस के हिसाब से इन सोशल मीडिया कंपनियों की ऐसे मामलों पर जवाबदेही बन जाएगी.
इन गाइडलाइंस के बाद 'फ्री स्पीच' की वकालत करने वाली माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर अपनी मर्जी के हिसाब से किसी ट्वीट को 'मैनिपुलेटेड मीडिया' (Manipulated Media) का लेबल नहीं लगा पाएगा. ऐसा करने पर इन सोशल मीडिया कंपनियों को पारदर्शिता अपनाते हुए जवाब देना होगा. सोशल मीडिया कंपनियां को बताना होगा कि किसी ट्वीट को मैनिपुलेटेड मीडिया पर क्यों फ्लैग किया गया है? साथ ही अन्य भ्रामक या फेक न्यूज पर कार्रवाई करने के लिए इन पर आसानी से दबाव बनाया जा सकता है. एक प्राइवेट कंपनी होने के नाते अधिकारों का सीमित होना बहुत जरूरी है. कानून से ऊपर रहते हुए ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लाखों लोगों के विचारों और निजता पर अपना एकाधिकार नहीं जता सकते हैं. एक देश के तौर पर यह सबके लिए एक खतरनाक स्थिति हो सकती है.
देश से ऊपर नहीं हो सकती पार्टी-पॉलिटिक्स
सोशल मीडिया कंपनी होने के नाम पर किसी के पास भारतीय कानून या देश से ऊपर जाने का हक नहीं हो सकता है. हाल ही में भारत सरकार ने इन सोशल मीडिया कंपनियों से कोरोना वायरस के 'इंडियन वेरिएंट' से जुड़े तमाम हैशटैग, पोस्ट वगैरह को हटाने के लिए कहा था. सरकार के इस आदेश का पालन करने के लिए क्या इन्हें अपने अमेरिकी मुख्यालय की प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए? विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी वैश्विक संस्था पहले ही साफ कह चुकी है कि किसी देश में पाए गए कोरोना वायरस वेरिएंट को उस देश का नाम नहीं दिया जा सकता है, तो इसका पालन करने के लिए सोशल मीडिया कंपनियों को क्यों मुख्यालय से आदेश की जरूरत पड़ती है.
दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल 'सिंगापुर वेरिएंट' की बात करते हैं, तो उनके ट्वीट को मैनिपुलेटेड मीडिया फ्लैग किस आधार पर नहीं किया जाता है? जबकि इस वजह से भारत के विदेशी संबंधों पर सीधा असर पड़ सकता है. इस बात ने इनकार नहीं किया जा सकता है कि एक प्राइवेट कंपनी होने के नाते इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के भी निजी हित और एजेंडा हो सकते हैं. ये एजेंडा और निजी हित देश के लिए खतरनाक स्थिति भी पैदा कर सकते हैं. यही वजह है कि इन सोशल मीडिया कंपनियों को भारतीय कानून के अधीन लाना पार्टी-पॉलिटिक्स से ज्यादा जरूरी है.
ये चीन औेर नॉर्थ कोरिया जैसा कदम नहीं है
कुछ लिबरल मोदी सरकार के इस कदम पर सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की कार्रवाई चीन और नॉर्थ कोरिया जैसे हालात का इशारा करती है. लेकिन, वो ये सच नहीं बताते कि चीन और नॉर्थ कोरिया में ट्विटर जैसी वेबसाइट पर पूरी तरह बैन. जबकि भारत उन्हें भारतीय कानूनों के अधीन काम करने के लिए ही कह रहा है. फ्री स्पीच के कथित पैरोकार ये भी नहीं बताते कि दुनिया के कई नामी लोकतांत्रिक देश जैसे फ्रांस, साउथ कोरिया, इजरायल, रूस, तुर्की, तंजानिया ने कई बार ट्विटर को सेंसर किया है, और सजा भी दी है. ये सभी बड़ी कंपनियां अमेरिका में कठघरे में लाई जाती रही हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.